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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 52
    ऋषिः - आत्मा देवता - विराट् परोष्णिक् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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    उ॑श॒तीः क॒न्यला॑इ॒माः पि॑तृलो॒कात्पतिं॑ य॒तीः। अव॑ दी॒क्षाम॑सृक्षत॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒श॒ती: । क॒न्यला॑: । इ॒मा: । पि॒तृ॒ऽलो॒कात् । पति॑म् । य॒ती॒: । अव॑ । दी॒क्षाम् । अ॒सृ॒क्ष॒त॒ । स्वाहा॑ ॥२.५२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उशतीः कन्यलाइमाः पितृलोकात्पतिं यतीः। अव दीक्षामसृक्षत स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उशती: । कन्यला: । इमा: । पितृऽलोकात् । पतिम् । यती: । अव । दीक्षाम् । असृक्षत । स्वाहा ॥२.५२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 52
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    (इमाः) यह (उशतीः)कामना करती हुईं (कन्यलाः) शोभावती कन्याएँ (पितृलोकात्) पितृलोक [पितृकुल] से (पतिम्) अपने-अपने पति को (यतीः) जाती हुईं (स्वाहा) सुन्दर वाणी के साथ (दीक्षाम्) दीक्षा [नियम व्रत की शिक्षा] को (अव सृक्षत) दान करें ॥५२॥

    भावार्थ

    गुणवती विदुषीस्त्रियाँ विवाह करके घर के सुप्रबन्ध से सन्तान आदि को वेद द्वारा उत्तम नियमऔर कर्म सिखावें ॥५२॥

    टिप्पणी

    ५२−(उशतीः) कामयमानाः (कन्यलाः) अ० ५।५।३। अघ्न्यादयश्च। उ०४।११२। कनी दीप्तिकान्तिगतिषु-यक्+ला आदाने-क, टाप्। शोभाग्रहीत्र्यः (इमाः)विदुष्यः (पितृलोकात्) पितृकुलात् (पतिम्) स्वस्वभर्तारम् (यतीः) गच्छन्त्यः (दीक्षाम्) दीक्ष मौण्ड्येज्योपनयननियमव्रतादेशेषु-अप्रत्ययः। नियमव्रतयोःशिक्षाम् (अव सृक्षत) अवसृजन्तु। ददतु (स्वाहा) अ० २।१६।१। सुवाण्या। वेदवाचा ॥

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    विषय

    दीक्षा अवसर्जन

    पदार्थ

    १. (उशती:) = पतिलोक की कामना करती हुई (इमाः कन्यला:) = ये कन्याएँ-दीस जीवनवाली युवतियों [कन दीसौ], (पितृलोकात् पतिं यती:) = पितृलोक से पति की ओर जाती हुई (दीक्षाम्) = व्रत संग्रह को (अव असृक्षत्) = [to form, to create]-निर्मित करती हैं। गृह के उत्तम निर्माण के लिए व्रत के बन्धन में अपने को बाँधकर पतिगृह की ओर जाती हैं। २. इसके लिए (स्वाहा) = वे महान् स्वार्थ-त्याग करती हैं। वस्तुतः 'वर्षों एक गृह से सम्बद्ध रहकर उसे छोड़कर अन्यत्र जाना' त्याग तो है ही और अपने कन्धों पर एक नवगृह-निर्माण के भार को उठाना भी त्याग ही है। इस उत्तरदायित्व को समझने पर विलास में डूबने की आशंका नहीं रहती।

    भावार्थ

    एक दीप्त जीवनवाली युवति पितगृह से पतिगृह की ओर जाती है। इस समय यह व्रतों को आधार बनाकर उत्तम गृह के निर्माण में अपनी आहुति दे डालती है। इसी से जीवन की पवित्रता बनी रहती है।

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    भाषार्थ

    (उशतीः) कामनावाली (इमाः) ये (कन्यलाः) कन्याएं, (पितृलोकात्) पिता के लोक अर्थात् पितृगृह से (पतिम्) पति की ओर (यतीऽ) जाती हुई, प्रयाण करती हुई, (दीक्षाम्) नई दीक्षा को (अव असृक्षत) धारण करती हैं, (स्वाहा) इस निमित्त विवाह की अग्नि में आहुति प्रदान कर।

    टिप्पणी

    [उशतीः=कामयमानाः। वश कान्तौ, कान्तिः इच्छा। पितृलोक=पौराणिक पितृलोक का प्रायः अर्थ करते हैं “मृतपितरों का लोक”–मन्त्र में इस का स्पष्ट अर्थ है, पितृगृह। अथर्व० काण्ड १८ वे के भाष्य में पितरों का वर्णन हुआ है, वहां भी प्रकरण की दृष्टि से पितरः और पितृलोक के अर्थ बुद्धिसंगत ही किये हैं। अव-असृक्षत का अर्थ यद्यपि “छोड़ना या त्याग करना” होता है, परन्तु अर्थ प्रतीत नहीं होता। “अव" शब्द का प्रयोग अन्यार्थ में भी होता है। यथा- अवधानम्, अवगतम्, अवकाशः अवधारणम् अवबोधः आदि] [व्याख्या-कन्या का अर्थ है कुमारी। कन्या में जब कामना उत्पन्न हो जाय, पति प्राप्ति की इच्छा उत्पन्न हो जाय (उशतीः) तभी उस का विवाह करना चाहिये। विवाह में कन्या को दीक्षा लेनी चाहिये, अर्थात् व्रत लेना चाहिये, जोकि गृहस्थधर्म को सफलता पूर्वक निभाने में सहायक हो। यह व्रत अग्निसाक्षिक होना चाहिये। इस व्रत को प्रमाणित करने के लिए कन्या अग्नि में, स्वाहा का उच्चारण करती हुई, आहुतियां देती है [अथर्व० १४।२।६३]। इन दीक्षाओं अर्थात् व्रतों का वर्णन आगे के ५ मन्त्रों में किया गया है।

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    विषय

    पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    (उशतीः) पति की कामना करती हुई (इमाः) ये (कन्यलाः) कन्याएं (पितृलोकात्) पिता के घर से (पतिं यतीः) पति के पास जाती हुई (दीक्षाम्) व्रतदीक्षा, दृढ़ व्रत को (अव असृक्षत) धारण करती हैं। (स्वाहा) यही सब से उत्तम शिक्षा है या यही एक यज्ञाहुति या यश का कार्य है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Inspired with the passion of love for matrimony, let these maidens give up the one, parental, initiation while departing from the parental home, and take on the new matrimonial initiation in truth of thought, word and deed.

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    Translation

    Full of desire, these girls, going to husband from the father's house, have discarded the consecration. Svaha.

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    Translation

    Let the girls desiring their husbands and going to husbands house from the house of their parent be initiated into inviolable nuptial vows. Whatever has been uttered herein true and good.

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    Translation

    These maids who from their father’s house have come with longing to their lord have taken the strict vow of domestic life. This is an excellent teaching.

    Footnote

    Griffith remarks: “The meaning and the application of the stanza are obscure.” I see no obscurity in it. The significance is quite clear. A maiden after marriage goes to the house of her husband, and takes the strict vow of leading the chaste and pure domestic life and perform all its duties faithfully and diligently.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५२−(उशतीः) कामयमानाः (कन्यलाः) अ० ५।५।३। अघ्न्यादयश्च। उ०४।११२। कनी दीप्तिकान्तिगतिषु-यक्+ला आदाने-क, टाप्। शोभाग्रहीत्र्यः (इमाः)विदुष्यः (पितृलोकात्) पितृकुलात् (पतिम्) स्वस्वभर्तारम् (यतीः) गच्छन्त्यः (दीक्षाम्) दीक्ष मौण्ड्येज्योपनयननियमव्रतादेशेषु-अप्रत्ययः। नियमव्रतयोःशिक्षाम् (अव सृक्षत) अवसृजन्तु। ददतु (स्वाहा) अ० २।१६।१। सुवाण्या। वेदवाचा ॥

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