अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 34
ऋषिः - आत्मा
देवता - परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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अ॑प्स॒रसः॑सधमादं मदन्ति हवि॒र्धान॑मन्त॒रा सूर्यं॑ च। तास्ते॑ ज॒नित्र॑म॒भि ताः परे॑हि॒नम॑स्ते गन्धर्व॒र्तुना॑ कृणोमि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प्स॒रस॑: । स॒ध॒ऽमाद॑म् । म॒द॒न्ति॒ । ह॒वि॒:ऽधान॑म् । अ॒न्त॒रा । सूर्य॑म् । च॒ । ता: । ते॒ । ज॒नित्र॑म् । अ॒भि । ता: । परा॑ । इ॒हि॒ । नम॑: । ते॒ । ग॒न्ध॒र्व॒ऽऋ॒तुना॑ । कृ॒णो॒मि॒ ॥२.३४॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्सरसःसधमादं मदन्ति हविर्धानमन्तरा सूर्यं च। तास्ते जनित्रमभि ताः परेहिनमस्ते गन्धर्वर्तुना कृणोमि ॥
स्वर रहित पद पाठअप्सरस: । सधऽमादम् । मदन्ति । हवि:ऽधानम् । अन्तरा । सूर्यम् । च । ता: । ते । जनित्रम् । अभि । ता: । परा । इहि । नम: । ते । गन्धर्वऽऋतुना । कृणोमि ॥२.३४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
(अप्सरसः) अप्सराएँ [कामों में व्यापक स्त्रियाँ] (हविर्धानम्) ग्राह्य पदार्थों के आधार [वधू] (च)और (सूर्यम् अन्तरा) प्रेरणा करनेवाले [वर] के पास (सधमादम्) परस्पर आनन्द (मदन्ति) मनाती हैं। [हे वधू वा वर !] (ताः) वे [स्त्रियाँ] (ते) तेरे (जनित्रम्) जन्म का कारण हैं, (ताः अभि) उनके सामने होकर (परा) निकट (इहि) जा, (गन्धर्वर्तुना) विद्या धारण करनेवाले मनुष्य के ऋतु से [यथार्थ समय के विचारसे] (ते) तेरे लिये (नमः) आदर (कृणोमि) मैं करता हूँ ॥३४॥
भावार्थ
कुलस्त्रियाँ शान्तिकरण, स्वस्तिवाचन आदि गान से आनन्द मनावें, सादर प्रेरणा किये हुएवधू-वरउन को सविनय नमस्कार करें ॥३४॥इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध आचुका है-अथर्व० ७।१०९।३॥
टिप्पणी
३४−(अप्सरसः) म० ९। अपःसु कर्मसु व्यापनशीलाः स्त्रियः (सधमादम्)परस्परानन्दोत्सवम् (मदन्ति) हर्षयन्ति (हविर्धानम्) ग्राह्यपदार्थाधारभूतांवधूम् (अन्तरा) निकटे (सूर्यम्) प्रेरकं वरम् (च) (ताः) स्त्रियः (ते) तव (जनित्रम्) जन्मकारणम् (अभि) अभीत्य (ताः) (परा) निकटे (इहि) प्राप्नुहि (नमः)सत्कारम् (ते) तुभ्यम् (गन्धर्वर्तुना) गन्धर्वस्य विद्याधारकस्य ऋतुनायथार्थकालविचारेण (कृणोमि) करोमि ॥
विषय
अप्सरसः
पदार्थ
१. (अप्सरस:) = [अप+सर] उत्तम कर्मों में संचार करनेवाली ये नारियाँ (हविर्थानम) = जहाँ हवि का धारण किया जाना है, उस पृथिवी, सूर्य च और जहाँ सूर्य उदय होता है उस द्युलोक के अन्तरा-मध्य में-अन्तरिक्ष में (सधमादं मदन्ति) = उस प्रभु के साथ उपासना में बैठकर आनन्दित होती हैं। इनका पृथिवीलोकरूप शरीर यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहता है तथा ये शरीररूप वेदि में हविरूप पवित्र भोजन को ही प्राप्त कराती है। मस्तिष्करूप घुलोक में ज्ञान के सूर्य को उदित करती हैं और हृदयान्तिरक्ष में प्रभु का उपासन करती हुई प्रभु के साथ आनन्दित होती हैं। २.हे वर! (ता:) = वे नारियाँ ही (ते जनित्रम्) = तेरी जाया है-तेरी सन्तान को जन्म देनेवाली हैं (ता: अभि गन्धर्वत्रस्तुना परेहि) = उनकी ओर [परा-towards] ज्ञानी पुरुष की नियमित गति से तू प्राप्त हो। उनके साथ तेरा सम्पर्क शास्त्रविधि के अनुसार उचित ऋतु पर हो। ते इसप्रकार ऋतुगामी तेरे लिए (नमः कृणोमि) = मैं नमस्कार करता हूँ। ऐसे पुरुष को प्रत्येक व्यक्ति आदर देता है।
भावार्थ
अप्सरारूप गृहनारियाँ यज्ञ करनेवाली हों, उनका भोजन भी यज्ञरूप हो। मस्तिष्करूप घलोक में ये ज्ञानसर्य को उदित करें। हृदय में प्रभु का उपासन करती हुई आनन्दित हों। ज्ञानी पति इनके प्रति ऋतुगामी होता हुआ उत्तम सन्तान प्राप्त करे और आदरणीय जीवनवाला हो।
भाषार्थ
(हविर्दानम्) भक्षणीय पदार्थों की निधिरूप पृथिवी (च) और (सूर्यम्) सूर्य के (अन्तरा) अन्तराल में (अप्सरसः) नानारूपों वाली, जल तथा अन्तरिक्ष में सरण करने वाली प्राकृतिक शक्तियां (सधमादम्) परमेश्वर के साथ आनन्द में (मदन्ति) मानो आनन्दित हो रही हैं। (ताः) वे शक्तियां हे परमेश्वर ! (ते) तेरे लिये (जनित्रम्) जनि अर्थात् पत्नीरूप में जगत् के त्राण अर्थात् पालन का साधन है। (ताः अभि) उन की ओर हे परमेश्वर ! (परेहि) तू जा (गन्धर्व) हे गोरूप-जगत् का धारण करने वाले ! (ऋतुना) ऋतु-ऋतु के अनुसार (नमः) तुझे नमस्कार (कृणोमि) मैं करता हूं।
टिप्पणी
[अप्सरसः = "अप्सरा अप्सराणी; अपि वाऽप्स इति रूपनाम– तद्रा भवति, रूपवती" (निरु० ५।३।१३)। अर्थात् अप्सरा है अप अर्थात् अन्तरिक्ष में और जल में सरण करने वाली, विचरने वाली; तथा रूपवती प्राकृतिक शक्तियां। अन्तरिक्ष में विचरने वाली विद्युत्, उषा, चन्द्रज्योत्स्ना मानसून वायु तथा अन्य मेघ और वर्षा-आदि अप्सरायें हैं, "आपः अन्तरिक्षनाम" (निघं० १।३)। तथा जल में विचरने वाली वर्षा काल की शोभा, मेघीय, आकृतियों तथा रूप-रंगों, नदियों, झरनों, जलप्रपातों तथा समुद्र की शोभाएँ–आदि भी अप्सरायें हैं। ये प्राकृतिक शक्तियां परमेश्वर की सङ्गनी हुई हुई शोभा को प्राप्त हैं, मानो परमेश्वर के संग रहती हुई आनन्द सा अनुभव कर रही है। गन्धर्व= गो (गति वाला विश्व; यथा "विश्वं गोरूपम्”, अथर्व० ९।७।२५; १९।४९।८) + धृञ् (धारणे)। अर्थात् गतियुक्त-तथा-गोरूपी विश्व का धारक परमेश्वर। ऋतुना= भिन्न-भिन्न ऋतु में प्राकृतिक शक्तियों के स्वरूपों में भी भेद आ जाता है। वे भेद भी परमेश्वरकृत होते हैं। उनके आधार पर परमेश्वर के प्रति स्तुतिपूर्वक नमस्कार करना]। [व्याख्या-मन्त्र में परमेश्वर को जगत्-गृहस्थ का गृहस्थी दर्शाया है, और अप्सराओं अर्थात् प्राकृतिक शक्तियों को परमेश्वर की पत्नीरूप दर्शाया है जिन द्वारा कि वह जगदुत्पत्ति तथा जगत् का त्राण कर रहा है। "श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ" (यजु० ३१।२२) में, जगत् की शोभा और सम्पत्ति को स्पष्टरूप में परमेश्वर पुरुष की पत्नियां कहा है तथा अथर्व० ११।८।१७ के “वधूः सती। ईशा वशस्य या सास्मिन्वर्णमाभरत्" मन्त्र में ईशा अर्थात् अधिश्वरी शक्ति को, जगत के वशीयता की, वधू तथा जाया है। उस जाया ने इस अस्मदादि जगत् या पुरुष में नानावर्ण भरे हैं। इस प्रकार मन्त्र ३४ में गृहस्थ की उपादेयता दर्शाई है, (१४।२।३२)।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
(हविर्धानम् सूर्यम् च अन्तरा) हविर्धान अर्थात् पृथ्वी और सूर्य के बीच में (अप्सरसः) स्त्रियां (सधमादम्) एक ही साथ आनन्द उत्सव में मिलकर (मदन्ति) प्रसन्न होकर हर्ष प्रकट करें। हे गन्धर्व ! पुरुष (ताः ते जनित्रम्) वे तेरी जाया हैं (ताः अभि परा इहि) तू उनके समक्ष जा। हे गन्धर्व ! युवा पुरुष ! (ऋतुना) कन्या के ऋतुकाल के अवसर पर ही (नमः ते कृणोमि) तेरा आदर सत्कार करता हूं। गन्धर्व—ऋतुना इत्येकं पदम् पदपाठे। गन्धर्व ऋतुनेति पदद्वयम् इति ग्रीफ़िथः।
टिप्पणी
(प्र०) ‘याप्सरसः स’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Between the earth, seat of havi and yajna, and the sun, Apsaras, streams of vapour and currents of energy, celebrate the joy of their being in a common home. O man, they are the consorts of the universal creative potential. Similarly women of the home enjoy life in their conjugal home. They are the consorts of man’s creative potential. O man, go to the woman for she is the mother of generation. O Gandharva, O man, go to your partner consort. I offer you homage according to the creative generative season.
Translation
The energies moving in the clouds revel-in their common dwelling place, which is in between, the oblation-receptacle and the sun. They are your relatives. Go away to them. O sustainer of earth, I pay homage to you in due season. (First half Av. VII.109.3)
Translation
Apsarases, the electrical sparks move between the sun and heaven and earth. They move even in the Yajna. They are the birth place of Gandharva, the cloud. Let this cloud to them. O bride-groom, I, the father of girl pay respect to you by the arrival of cloudy season.
Translation
Ladies rejoice and feast together between the Sun and earth, the place of offering oblations. These are thy kith and kin, go thou and join them. I at the time of menstruation, respect thee, O strong young bridegroom!
Footnote
See Atharva, 7-109-3.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३४−(अप्सरसः) म० ९। अपःसु कर्मसु व्यापनशीलाः स्त्रियः (सधमादम्)परस्परानन्दोत्सवम् (मदन्ति) हर्षयन्ति (हविर्धानम्) ग्राह्यपदार्थाधारभूतांवधूम् (अन्तरा) निकटे (सूर्यम्) प्रेरकं वरम् (च) (ताः) स्त्रियः (ते) तव (जनित्रम्) जन्मकारणम् (अभि) अभीत्य (ताः) (परा) निकटे (इहि) प्राप्नुहि (नमः)सत्कारम् (ते) तुभ्यम् (गन्धर्वर्तुना) गन्धर्वस्य विद्याधारकस्य ऋतुनायथार्थकालविचारेण (कृणोमि) करोमि ॥
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