अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 32
ऋषिः - आत्मा
देवता - परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
0
दे॒वा अ॑ग्रे॒न्यपद्यन्त॒ पत्नीः॒ सम॑स्पृशन्त त॒न्वस्त॒नूभिः॑। सू॒र्येव॑ नारिवि॒श्वरू॑पा महि॒त्वा प्र॒जाव॑ती॒ पत्या॒ सं भ॑वे॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वा: । अग्रे॑ । नि । अ॒प॒द्य॒न्त॒ । पत्नी॑: । सम् । अ॒स्पृ॒श॒न्त॒ । तन्व᳡: । त॒नूभि॑: । सू॒र्याऽइ॑व । ना॒रि॒ । वि॒श्वऽरू॑पा । म॒हि॒ऽत्वा । प्र॒जाऽव॑ती । पत्या॑ । सम् । भ॒व॒ । इ॒ह ॥२.३२॥
स्वर रहित मन्त्र
देवा अग्रेन्यपद्यन्त पत्नीः समस्पृशन्त तन्वस्तनूभिः। सूर्येव नारिविश्वरूपा महित्वा प्रजावती पत्या सं भवेह ॥
स्वर रहित पद पाठदेवा: । अग्रे । नि । अपद्यन्त । पत्नी: । सम् । अस्पृशन्त । तन्व: । तनूभि: । सूर्याऽइव । नारि । विश्वऽरूपा । महिऽत्वा । प्रजाऽवती । पत्या । सम् । भव । इह ॥२.३२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
(देवाः) विद्वान् लोग (अग्रे) पहिले (पत्नीः) अपनी पत्नियों को (नि) निश्चय करके (अपद्यन्त) प्राप्तहुए हैं, और उन्होंने (तन्वः) शरीरों को (तनूभिः) शरीरों से (सम्) यथाविधि (अस्पृशन्त) स्पर्श किया है। [वैसे ही] (नारी) हे नारी ! तू (सूर्या इव) सूर्यकी कान्ति के समान (महित्वा) अपने महत्त्व से (विश्वरूपा) समस्त सुन्दरतावाली, (प्रजावती) उत्तम सन्तान को प्राप्त होनेहारी तू (पत्या) अपने पति से (इह) यहाँ [गृहाश्रम में] (सं भव) मिल ॥३२॥
भावार्थ
पूर्वज महात्माओं केसमान पति-पत्नी आपस में प्रीति से प्रयत्न करके उत्तम सन्तान उत्पन्न करें औरगृहाश्रम के बीच सुख बढ़ावें ॥३२॥मन्त्र ३१ की टिप्पणी देखो ॥
टिप्पणी
३२−(देवाः)विद्वांसः (अग्रे) पूर्वकाले (नि) निश्चयेन (अपद्यन्त) प्राप्तवन्तः (पत्नीः) (सम्) सम्यक्। यथाविधि (अस्पृशन्त) स्पृष्टवन्तः (तन्वः) शरीराणि (तनूभिः)शरीरैः (सूर्या) सूर्यकान्तिः (इव) यथा (नारि) हे नरस्य पत्नि (विश्वरूपा)सर्वसौन्दर्योपेता (महित्वा) महत्त्वेन (प्रजावती) प्रशस्तसन्तानयुक्ता (पत्या) (सं भव) संगच्छस्व (इह) गृहाश्रमे ॥
विषय
पवित्र गृहस्थाश्रम
पदार्थ
१. (अग्रे) = सृष्टि के आरम्भ में (देवा:) = देववृत्ति के पुरुषों ने (पत्नी: न्यपद्यन्त) = पत्नियों को प्राप्त किया। (तन्वः) = अपने शरीरों को (तनूभिः) = उनके शरीरों से (समस्पृशन्त) = संस्पृष्ट किया। उत्तम सन्तान को जन्म देना भी एक पवित्र कार्य ही है। देववृत्ति के पुरुष इसे स्वीकार करते हैं। २. हे (नारि) = गृहस्थ-यज्ञ को आगे ले-चलनेवाली वधु। तू (सूर्या इव) = सूर्य के समान दीस जीवनवाली बन। (विश्वरूपा) = सब अङ्गों में रूप-सौन्दर्यवाली हो। (महित्वा) = प्रभु-पूजन के द्वारा [मह पूजायाम्] (प्रजावती) = प्रशस्त प्रजावाली होती हुई तू (इह) = यहाँ (पत्या संभव) = पति के साथ एक होकर रहनेवाली हो। तू पति की अद्धांगिनी बन जा। तुम दोनों परस्पर एक हो जाओ।
भावार्थ
गृहस्थ में उत्तम सन्तान को जन्म देना एक दिव्य व पवित्र कार्य है। पत्नी सूर्यसम दीस हो, वह सर्वांग सुन्दर होती हुई उत्तम सन्तानवाली हो। प्रभुपूजन करती हुई पति के साथ यह एक हो जाए।
भाषार्थ
(देवाः) देव लोग (अग्रे) पूर्व-काल से (पत्नीः) पत्नियों को (नि, अपद्यन्त) प्राप्त करते रहे हैं, (तन्वः) और शरीरों का (तनूभिः) शरीरों के साथ (सम्) विधिपूर्वक (अस्पृशन्त) स्पर्श करते रहे हैं। (नारि) हे नारि ! (महित्वा) अपनी महिमा के कारण (सूर्या इव) आदर्श सूर्या ब्रह्मचारिणी के सदृश (विश्वरूपा) समस्त गुणों से सुभूषित तू (प्रजावती) उत्तम-सन्तानों से सम्पन्न होने वाली (इह) इस गृह में (पत्या) पति के साथ (संभव) मिल, या सम्यक्-भूति को प्राप्त कर।
टिप्पणी
[व्याख्या - गृहस्थ-धर्म के कृत्य पवित्र हैं, लज्जा के विषय नहीं,- इस सिद्धान्त को हृदयङ्गत कराने के लिये, पुरावाद के रूप में कहा है कि देव अर्थात् उच्चकोटि के विद्वान् भी विवाह करते रहे हैं, और गृहस्थ धर्म के कृत्यों को करते रहे हैं। अतः इन कृत्यों को अपवित्र न समझना चाहिये। गृहस्थ धर्म में मूल प्रेरक भाव होना चाहिये "प्रजा सम्बन्धी इच्छा"। प्रजा की उत्पत्ति गौणरूप, और "भोगेच्छा" मुख्य उद्देश्य न होना चाहिये। अर्थात् सन्ताने भोगेच्छा का आनुषङ्गिक परिणामरूप न होनी चाहियें। गृहस्थ में प्रवेश करते समय प्रत्येक वधू के संमुख सूर्या अर्थात् आदित्य ब्रह्मचारिणी का आदर्श होना चाहिये। छोटी उम्र और अल्पविद्या के होते विवाह आदर्शरूप नहीं है। अतः मन्त्र में "सूर्येव विश्वरूपा" कहा है। सूर्या से अभिप्राय सौर-ज्योति का भी है। सूर्य की ज्योति जैसे विश्वरूपा है, विश्वको रूपित अर्थात् प्रकाशित करती है, इसी प्रकार विदुषी और सद्गुणों से सम्पन्ना वधू को भी ज्ञान प्रकाश फैलाने वाली बनना चाहिये।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
(अग्रे) पूर्वकाल में (देवाः) देवगण, विद्वान् लोग भी (पत्नीः) अपनी पत्नियों के साथ ! (नि अपद्यन्त) एक सेज पर सोते हैं और (तन्वः) अपने शरीर को (तनूभिः) अपनी स्त्रियों के शरीर के साथ (सम् अस्पृशन्त) स्पर्श कराते, आलिंगन करते हैं। हे (नारि) स्त्रि—तू (सूर्या इव) सूर्य-परमेश्वर की उत्पादक शक्ति के समान ही (महित्वा) अपने बड़े ऐश्वर्य से (विश्वरूपा) विश्वरूप हो, नाना सामर्थ्यवती होकर (प्रजावती) प्रजा से सम्पन्न होकर (इह) इस लोक में (पत्या) पति के साथ (सं भव) मिलकर सन्तान उत्पन्न कर।
टिप्पणी
(प्र०) ‘देवाग्रे’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Noble and divine people earlier have married their wives, they have lived together united in body with body and mind with mind. You, too, O maiden, like the light of the sun, mistress of universal beauty in form, join me as one with me with your mental greatness and be the proud mother of noble progeny.
Translation
The enlightened ones, since olden times, used to lie with their wives. Bodies embrace bodies closely. O woman beauteous and great like a girl of marriageable age (Surya), capable of bearing children, may you unite here with your husband.
Translation
O bride, as learned men at first, in this house-hold life won their wives and had contacted of their bodies with the bodies of their wives in the same manner you beautiful securing all respect, meeting your husband become the mother of children like the splendor of the sun.
Translation
Learned persons in ancient times lay down beside their consorts. O Dame, lustrous like the Sun, exquisite in her beauty, here rich in future children, meet thy husband!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३२−(देवाः)विद्वांसः (अग्रे) पूर्वकाले (नि) निश्चयेन (अपद्यन्त) प्राप्तवन्तः (पत्नीः) (सम्) सम्यक्। यथाविधि (अस्पृशन्त) स्पृष्टवन्तः (तन्वः) शरीराणि (तनूभिः)शरीरैः (सूर्या) सूर्यकान्तिः (इव) यथा (नारि) हे नरस्य पत्नि (विश्वरूपा)सर्वसौन्दर्योपेता (महित्वा) महत्त्वेन (प्रजावती) प्रशस्तसन्तानयुक्ता (पत्या) (सं भव) संगच्छस्व (इह) गृहाश्रमे ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal