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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 12
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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    दि॒वि त्वात्त्रि॑रधारय॒त्सूर्या॒ मासा॑य॒ कर्त॑वे। स ए॑षि॒ सुधृ॑त॒स्तप॒न्विश्वा॑ भू॒ताव॒चाक॑शत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वि । त्वा॒ । अत्त्रि॑: । अ॒धा॒र॒य॒त् । सूर्य॑ । मासा॑य । कर्त॑वे । स: । ए॒षि॒ । सुऽधृ॑त: । तप॑न् । विश्वा॑ । भू॒ता । अ॒व॒ऽचाक॑शत् ॥2.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवि त्वात्त्रिरधारयत्सूर्या मासाय कर्तवे। स एषि सुधृतस्तपन्विश्वा भूतावचाकशत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवि । त्वा । अत्त्रि: । अधारयत् । सूर्य । मासाय । कर्तवे । स: । एषि । सुऽधृत: । तपन् । विश्वा । भूता । अवऽचाकशत् ॥2.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 12
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    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (सूर्य) हे सूर्य ! [लोकों के चलानेवाले रविमण्डल] (अत्त्रिः) सदा ज्ञानवान् [परमात्मा] ने (मासाय) महीना [कालविभाग] (कर्तवे) करने के लिये (त्वा) तुझको (दिवि) आकाश में (अधारयत्) धारण किया है। (सः) वह तू (सुधृतः) अच्छी प्रकार धारण किया गया, (तपन्) तपता हुआ, और (विश्वा भूता) सब प्राणियों को (अवचाकशत्) निहारता हुआ (एषि) चलता है ॥१२॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने सूर्य को बहुत से लोकों पर आकर्षण, ताप, वृष्टि आदि पहुँचाने के लिये बनाया है, मनुष्य उसी प्रकार तेजस्वी होकर परस्पर पुरुषार्थ करें ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(दिवि) आकाशे (त्वा) सूर्यम् (अत्त्रिः) म० ४। सदा ज्ञानवान् परमात्मा (अधारयत्) स्थापितवान् (सूर्य) सांहितिको दीर्घः। हे रविमण्डल (मासाय) कालविभागायेत्यर्थः (कर्तवे) कर्तुम् (सः) स त्वम् (एषि) गच्छसि (सुधृतः) सुपुष्टः (तपन्) तापं कुर्वन् (विश्वा) सर्वाणि (भूता) लोकान् (अवचाकशत्) अ० ६।८०।१। भृशं पश्यन् ॥

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    विषय

    'काल-निर्माता' सूर्य

    पदार्थ

    १. हे (सूर्य) = रविमण्डल! (अत्रि:) = उस त्रिगुणातीत प्रभु ने [अ-त्रि] (त्वा) = तुझे (मासाय कर्तवे) = मास आदि कालविभागों को करने के लिए (दिवि अधारयत्) = द्युलोक में धारण किया है। २. (सः) = वह तू (सुभृतः) = सम्यक् धारण किया हुआ (तपन्) = अत्यन्त दीप्त होता हुआ (विश्वा भूता अवचाकशत्) = सब प्राणियों को देखता हुआ एषि-गति करता है।

    भावार्थ

    सूर्य की गति से ही मास आदि काल-विभाग चलता है। यह सूर्य सब लोकों को प्रकाशित करता हुआ व सब प्राणियों को देखता हुआ चलता है।

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    भाषार्थ

    (सूर्य) हे सूर्य (मासाय कर्त्तवे) सौर और चान्द मास के निर्माण के लिये, (अत्रिः) परमेश्वर ने (त्वा) तुझे (दिवि) द्युलोक में (आ अधारयत्) सम्यकतया धारित या स्थापित किया है। (सः) वह (सुधृतः) उत्तम प्रकार से धृत अर्थात् स्थापित हुआ तू (तपन्) तपता हुआ (एषि) आता है, और (विश्वा भूता) सब भूत-भौतिक जगत् को (अव चाकशत्) नीचे की ओर प्रकाशित करता हुआ आता है।

    टिप्पणी

    [अत्रिः= अत्त्रिः (मन्त्र ४)। चाकशत् = चकासृ दीप्तौ। मासाय= सौरमास तथा चान्द्रमास। सौरमास की रचना तो १२ राशियों में सूर्य के संक्रमणों द्वारा होती है और चन्द्रमास की रचना नक्षत्रों में चन्द्र के संक्रमण द्वारा होती है। चन्द्रमा पर सूर्य के प्रकाश के कम और अधिक के पड़ने पर पूर्णिमा, अष्टमी तथा अमावास्या लक्षित होती हैं, और इस से चान्द्रमास का परिज्ञान होता है। इस लिये चान्द्रमास की रचना में भी सूर्य हेतु है। वेद में दोनों प्रकार के मास अभिप्रेत है। इसी लिये इन के दिनों में साम्य के लिये ३० दिनों का मलमास तथा अधिमास (Intercalary-month) का वर्णन वेदों में हुआ है (अथर्व० १३।३।८)]।

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    विषय

    रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।

    भावार्थ

    हे (सूर्य) सूर्य आत्मन् ! (अत्त्रिः) सर्वव्यापक एवं प्रलयकाल में सबको अपने भीतर ले लेने वाला परमात्मा (त्वां) तुझ को (दिवि) द्यौलोक में सूर्य के समान (मासाय*) मास = उत्तमकर्म या तपस्या के (कर्त्तवे) करने के लिये (दिवि) प्रकाशमान मोक्षलोक में (अधारयत) स्थापित करता है। (सः) वह (एषः) यह सूर्य के समान (विश्वा भूता) (सुधृतः) उत्तम रीति से घृत, स्थिर होकर (तपन) तेज से परितप्त होकर समस्त प्राणियों के प्रति (अवचाकशत्) प्रकाशित होता है, उनको ज्ञान प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    * मसी परिणामे दिवादिः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    O sun, the Lord Supreme, Attri, above threefold limitations of time, space and mutability, placed you high in heaven for the division of time into year and months in relation to earth and moon in motion. There placed accurately in position and well borne in law, shining, irradiating and blazing, watching and illuminating all forms of existence, you go on in your fixed orbit, giving them their warmth of life.

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    Translation

    The enjoyer Lord has established you in the sky for making the mouth. As such, you go well-maintained, giving out heat and illuminating all the beings.

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    Translation

    The All-consuming heat establishes this sun in heaven to create the months. That sun scorching ont, illumining all the worlds moves on its axis well-held.

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    Translation

    O soul, God, free from three sorts of pains, has established thee in theregion of salvation for the sake of penance. So on thou goest firmly held. Through thy refulgence thou bestowest knowledge on mankind.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(दिवि) आकाशे (त्वा) सूर्यम् (अत्त्रिः) म० ४। सदा ज्ञानवान् परमात्मा (अधारयत्) स्थापितवान् (सूर्य) सांहितिको दीर्घः। हे रविमण्डल (मासाय) कालविभागायेत्यर्थः (कर्तवे) कर्तुम् (सः) स त्वम् (एषि) गच्छसि (सुधृतः) सुपुष्टः (तपन्) तापं कुर्वन् (विश्वा) सर्वाणि (भूता) लोकान् (अवचाकशत्) अ० ६।८०।१। भृशं पश्यन् ॥

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