अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 24
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - आर्षी गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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अयु॑क्त स॒प्त शु॒न्ध्युवः॒ सूरो॒ रथ॑स्य न॒प्त्यः। ताभि॑र्याति॒ स्वयु॑क्तिभिः ॥
स्वर सहित पद पाठअयु॑क्त । स॒प्त । शु॒न्ध्युव॑: । सूर॑: । रथ॑स्य । न॒प्त्य᳡: । ताभि॑: । या॒ति॒ । स्वयु॑क्तिऽभि: ॥२.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्यः। ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअयुक्त । सप्त । शुन्ध्युव: । सूर: । रथस्य । नप्त्य: । ताभि: । याति । स्वयुक्तिऽभि: ॥२.२४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(सूरः) सूर्य [लोकप्रेरक रविमण्डल] ने (रथस्य) रथ [अपने चलने के विधान] की (नप्त्यः) न गिरानेवाली (सप्त) सात [शुक्ल, नील, पीत आदि म० ४] (शुन्ध्युवः) शुद्ध करनेवाली किरणों को (अयुक्त) जोड़ा है। (ताभिः) उन (स्वयुक्तिभिः) धन से संयोगवाली [किरणों के साथ] (याति) वह चलता है ॥२४॥
भावार्थ
जो सूर्य अपनी परिधि के लोकों को अपने आकर्षण में रखकर चलाता है और जिसकी किरणें रोगों को हटाकर प्रकाश और वृष्टि आदि से संसार को धनी बनाती हैं, उस सूर्य को जगदीश्वर परमात्मा ने बनाया है ॥२४॥मन्त्र ४ से इस मन्त्र तक सूर्य के गुणों का वर्णन करके परमेश्वर की महिमा का वर्णन किया है। अब फिर वही प्रकरण परमेश्वरविषयक चलता है ॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।५०।९, और सामवेद−पू० ६।१४।१३ ॥
टिप्पणी
२४−(अयुक्त) योजितवान् (सप्त) सप्तसंख्याकाः-म० ४ (शुन्ध्युवः) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। शुन्ध विशुद्धौ-युच्। शोधिका (सूरः) षू प्रेरणे−क्रन्। लोकप्रेरकः सूर्यः (रथस्य) गमनविधानस्य (नप्त्यः) इक् कृष्यादिभ्यः। वा० पा० ३।३।१०८। नञ्+पत्लृ पतने-इक्। तनिपत्योश्छन्दसि। पा० ६।४।९९। इत्युपधालोपः, शसो जस्। नप्तीः। अपातनशीलाः। न पातयित्रीः (ताभिः) (याति) गच्छति (स्वयुक्तिभिः) स्वस्य धनस्य योजनशक्तिभिः ॥
विषय
सूर्य-चङ्क्रमण
पदार्थ
१. (सूरः) = सूर्य (रथस्य नप्त्यः) = हमारे शरीररूप रथों को न गिरने देनेवाली (सप्त) = सात (शुन्थ्युव:) = शोधक किरणों को (अयुक्त) = रथ में जोतता है। सूर्य की किरणें सात रंगों के भेद से सात प्रकार की हैं। ये हमारे शरीरों में प्राणशक्ति का संचार करके हमारे शरीरों का शोधन करती हैं और उन शरीरों को गिरने नहीं देती। २. यह सूर्य (ताभि:) = उन (स्वयुक्तिभिः) = अपने रथ में जुती हुई किरणरूप अश्वों के साथ (याति) = अन्तरिक्ष में आगे-और-आगे चलता है।
भावार्थ
सूर्य अपनी सात वर्णों की किरणों के साथ आगे-और-आगे बढ़ रहा है।
भाषार्थ
(रथस्य सूरः) शरीर रथ के प्रेरक सूर्य ने, परमेश्वर ने (शुन्ध्युवः) शोषक तथा (नप्त्यः) न गिरने देने वाली (सप्त) सात शक्तियों, ५ ज्ञानेंद्रियों, मन और बुद्धि को (अयुक्त) शरीर-रथ में स्वयं जोता है। (स्व युक्तिभिः) स्वयं जोती हुई (ताभिः) उन सात शक्तियों द्वारा परमेश्वर (याति) प्राप्त होता है।
टिप्पणी
[याति= या प्रापणे। सूरः= षू प्रेरणे। नप्त्यः= जिन सात इन्द्रियादि को परमेश्वर स्वयं शरीर-रथ में जोतता है, ये सात पवित्र हुई, शरीररथ का पतन नहीं होने देती ]।
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
(सूरः) सूर्य के समान सर्व प्रेरक ज्ञान-वान् आत्मा (रथस्य) रमण साधन इस देहरूप ‘रथ’ के (नप्त्यः) साथ सम्बद्ध (सप्त) सात (शुन्ध्युवः) अति वेग युक्त, शुद्ध प्राणों को (अयुक्त) अपने अधीन योग मार्ग में नियुक्त या समाहित करता है, और (ताभिः) उन प्राणों से ही (स्वयुक्तिभिः) अपने योग के आठों उपायों से (याति) परम पद तक प्राप्त करता है।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘नप्त्रियः’ इति साम०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
The sun, bright and illuminant, yokes seven pure, immaculate, purifying and infallible sun beams like horses to his chariot of time and motion, and with these self-yoked powers moves on across the spaces to the regions of light and bliss. So does the Lord of the Universe with his laws and powers of Prakrti move the world as his own chariot of creative manifestation.
Translation
The self-radiant one operates through these harnessed sevens (five organs of senses and mind and intellect on the spiritual plane), - never failing and ever purifying, and thus safely draws the chariot of inner cosmos. (See also Rg. 1.50.9)
Translation
The sun has harnessed seven binding pure rays in its light car and through them by its plans it moves.
Translation
The wise soul hath yoked the seven pure, bright, unfailing breaths of the body. With their aid and with eight limbs of yoga, it travelleth to God, its goal
Footnote
See Rig, 1-50-9. Eight limbs: Yama, Niyama, Asana, Pranayama, Pratyahara, Dharna, Dhyana, Smadhi.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२४−(अयुक्त) योजितवान् (सप्त) सप्तसंख्याकाः-म० ४ (शुन्ध्युवः) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। शुन्ध विशुद्धौ-युच्। शोधिका (सूरः) षू प्रेरणे−क्रन्। लोकप्रेरकः सूर्यः (रथस्य) गमनविधानस्य (नप्त्यः) इक् कृष्यादिभ्यः। वा० पा० ३।३।१०८। नञ्+पत्लृ पतने-इक्। तनिपत्योश्छन्दसि। पा० ६।४।९९। इत्युपधालोपः, शसो जस्। नप्तीः। अपातनशीलाः। न पातयित्रीः (ताभिः) (याति) गच्छति (स्वयुक्तिभिः) स्वस्य धनस्य योजनशक्तिभिः ॥
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