अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 35
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः। आप्रा॒द्द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षं॒ सूर्य॑ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च ॥
स्वर सहित पद पाठचि॒त्रम् । दे॒वाना॑म् । उत् । अ॒गा॒त् । अनी॑कम् । चक्षु॑: । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । अ॒ग्ने: । आ । अ॒प्रा॒त् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । सूर्य॑: । आ॒त्मा । जग॑त: । त॒स्थुष॑: । च॒ ॥२.३५॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्राद्द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥
स्वर रहित पद पाठचित्रम् । देवानाम् । उत् । अगात् । अनीकम् । चक्षु: । मित्रस्य । वरुणस्य । अग्ने: । आ । अप्रात् । द्यावापृथिवी इति । अन्तरिक्षम् । सूर्य: । आत्मा । जगत: । तस्थुष: । च ॥२.३५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(देवानाम्) गतिमान् लोकों का (चित्रम्) अद्भुत (अनीकम्) जीवनदाता, (मित्रस्य) सूर्य [वा प्राण] का, (वरुणस्य) चन्द्रमा [अथवा जल वा अपान] का और (अग्नेः) बिजुली का (चक्षुः) दिखानेवाला [ब्रह्म] (उत्) सर्वोपरि (अगात्) व्यापा है। (सूर्यः) सर्वप्रेरक, (जगतः) जङ्गम (च) और (तस्थुषः) स्थावर संसार के (आत्मा) आत्मा [निरन्तर व्यापक परमात्मा] ने (द्यावापृथिवी) सूर्य भूमि [प्रकाशमान अप्रकाशमान लोकों] और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (आ) सब प्रकार से (अप्रात्) पूर्ण किया है ॥३५॥
भावार्थ
जो अद्भुतस्वरूप परमात्मा सूर्य, चन्द्र, वायु आदि द्वारा सब प्राणियों को सुख देता है, मनुष्य उसको उपासना द्वारा जानकर आत्मोन्नति करें ॥३५॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।११५।१। यजुः० ७।४२। तथा १३।४३, और साम पू० ६।१४।३ ॥
टिप्पणी
३५−(चित्रम्) अद्भुतस्वरूपम् (देवानाम्) गतिमतां लोकानाम् (उत्) सर्वोपरि (अगात्) व्यापत् (अनीकम्) म० ३४। जीवनप्रदम् (चक्षुः) दर्शकं ब्रह्म (मित्रस्य) सूर्यस्य प्राणस्य (वरुणस्य) चन्द्रस्य। जलस्य अपानस्य (अग्नेः) विद्युतः (आ) समन्तात् (अप्रात्) प्रा पूरणे-लङ्। पूरितवान् (द्यावापृथिवी) प्रकाशमानाप्रकाशमानलोकौ (अन्तरिक्षम्) (सूर्यः) सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (आत्मा) अतति सततं गच्छति व्याप्नोतीति। अन्तर्यामी परमात्मा (जगतः) जङ्गमस्य (तस्थुषः) ष्ठा गतिनिवृत्तौ-क्वसु। स्थावरस्य (च) ॥
विषय
मित्र, वरुण और अग्नि' के चक्षु
पदार्थ
१. (देवानाम्) = सूर्यादि प्रकाशमान पिण्डों का (चित्रं अनीकम्) = अद्भुत बलस्वरूप वह प्रभु (उत् अगात्) = उदित हुआ है। इन सूर्यादि पिण्डों में प्रभु का प्रकाश ही दीप्त हो रहा है। वे प्रभु (मित्रस्य) = सूर्य के (वरुणस्य) = चन्द्र के तथा (अग्नेः) = अग्नि के (चक्षुः) = प्रकाशक हैं। २. वे प्रभु द्यावापृथिवी (अन्तरिक्षम्) = द्युलोक, पृथिवीलोक तथा अन्तरिक्षलोक का (आ अप्रात्) = समन्तात् पूरण किये हुए हैं-प्रभु इन सब लोकों में व्यास है। (सूर्य:) = वे प्रभु सूर्य हैं-सूर्यसम् देदीप्यमान हैं। जगतः तस्थुषः च-जंगम व स्थावर के आत्मा हैं-इन सबके अन्दर व्यास होकर रह रहे |
भावार्थ
वे प्रभु देवों के अद्भुत बल हैं। सूर्य, चन्द्र व अग्नि के प्रकाशक हैं, त्रिलोकी को व्याप्त किये हुए हैं और जंगम व स्थावर जगत् के आत्मा हैं।
भाषार्थ
(चित्रम्) अद्भुत, (देवानाम् अनीकम्) द्योतमान रश्मियों का समूह (उद् अगात्) उदित हुआ है, यह (मित्रस्य) मित्र की, (वरुणस्य) वरुण की और (अग्नेः) अग्नि की (चक्षुः) आंख है। इस ने (द्यावापृथिवी, अन्तरिक्षम्) द्युलोक-पृथिवी लोक और अन्तरिक्ष को (आ अ प्रात) प्रकाश से भरपूर कर दिया है। (सूर्यः) सूर्य (आत्मा) आत्मा है (जगतः) जङ्गम प्राणियों का (तस्थुषश्च) तथा स्थावरों का।
टिप्पणी
[मन्त्र सूर्यपिण्ड तथा सूर्यस्थ परमेश्वर का वर्णन करता है, मुख्यरूप से परमेश्वर का तथा गौणरूप से सूर्यपिण्ड का। परमेश्वर पक्ष में मित्र, वरुण और अग्नि= द्युलोकस्थ सूर्य, अन्तरिक्षस्थ वायु तथा पृथिवीस्थ अग्नि। परमेश्वर परक मुख्यार्थ है, इस में यह भी प्रमाण है कि सूर्य को त्रिलोकी में भरपूर माना है। सूर्य निज प्रकाश द्वारा त्रिलोकी में भरपूर नहीं। सूर्य पक्ष में मित्र और वरुण दिन और रात हैं। यथा "अहोरात्रौ मित्रावरुणौ" (ताण्डय २५।१०।१०)। परमेश्वर भी निज ज्योति द्वारा रश्मिसमूहरूप है। परमेश्वर हृदयाकाश में उदित होता है]।
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
(देवानाम्) विद्वानों के लिये (चित्रम्) अति अद्भुत, (अनीकम्) बल, (मित्रस्य) मित्र, सबको स्नेह करने वाले (वरुणस्य) सर्व (अग्नेः) ज्ञानी पुरुष को (चक्षुः) सर्व पदार्थों को दर्शाने वाली आंख वही परमात्मा (जगत्) जंगम और (तस्थुषः) स्थावर का भी (आत्मा) आत्मा, अन्तर्यामी परमात्मा (द्यावापृथिवी अन्तरिक्षम्) द्यौ, पृथिवी और अन्तरिक्ष को भी (आप्राद्) पूर्ण व्याप्त कर रहा है। उपद्रष्टानुमन्ता च भर्त्ता भोक्ता महेश्वरः। परमात्मेति चाप्युक्तो देहोस्मिन् पुरुषः परः॥ गी० १३॥ २२॥ समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्। विनष्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥ १३॥ २७॥
टिप्पणी
(तृ०) ‘आप्राद्यावा’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
The sun, wondrous banner of divinities, abundant light of life, the eye of Mitra, Varuna and Agni, love, judgement and fire of Divinity, is risen, and it has filled the heaven and earth and the sky with its glorious light. It is indeed the very life and soul of the moving and the unmoving world.
Translation
Yonder has arisen with wonderful divine effulgence the eye of our light, life and energy. He has filled the celestial regions, the earth and the interspace with his glory. This sun is the soul of all that. moves or is immovable. (See also Rg.- LII.15.1,:Yv. VII.42)
Translation
This wondrous sun is the supporting force of all the celestial bodies. It is illuminator of air, water and fire. This pervades the heaven, earth and the middle-region through its light. This is the most impelling force of the animate and inanimate objects.
Translation
God is wonderful, mightier than all the forces of nature and learned persons. He is the Displayer of air, water and fire. He is the Protector of the Sun, Earth and Atmosphere. He is Resplendent and soul of all that moves and all that moves not.
Footnote
See Yajur, 7-42, 13-46, Atharva, 20-107-14, Rig, 1-115-1.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३५−(चित्रम्) अद्भुतस्वरूपम् (देवानाम्) गतिमतां लोकानाम् (उत्) सर्वोपरि (अगात्) व्यापत् (अनीकम्) म० ३४। जीवनप्रदम् (चक्षुः) दर्शकं ब्रह्म (मित्रस्य) सूर्यस्य प्राणस्य (वरुणस्य) चन्द्रस्य। जलस्य अपानस्य (अग्नेः) विद्युतः (आ) समन्तात् (अप्रात्) प्रा पूरणे-लङ्। पूरितवान् (द्यावापृथिवी) प्रकाशमानाप्रकाशमानलोकौ (अन्तरिक्षम्) (सूर्यः) सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (आत्मा) अतति सततं गच्छति व्याप्नोतीति। अन्तर्यामी परमात्मा (जगतः) जङ्गमस्य (तस्थुषः) ष्ठा गतिनिवृत्तौ-क्वसु। स्थावरस्य (च) ॥
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