अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 37
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - पञ्चपदा विराड्जगती
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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दि॒वस्पृ॒ष्ठे धाव॑मानं सुप॒र्णमदि॑त्याः पु॒त्रं ना॒थका॑म॒ उप॑ यामि भी॒तः। स नः॑ सूर्य॒ प्र ति॑र दी॒र्घमायु॒र्मा रि॑षाम सुम॒तौ ते॑ स्याम ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒व: । पृ॒ष्ठे । धाव॑मानम् । सु॒ऽप॒र्णम् । अदि॑त्या: । पु॒त्रम् । ना॒थऽका॑म: । उप॑ । या॒मि॒ । भी॒त: । स: । न॒: । सू॒र्य॒ । प्र । ति॒र॒ । दी॒र्घम् । आयु॑: । मा । रि॒षा॒म॒ । सु॒ऽम॒तौ । ते॒ । स्या॒म॒ ॥२.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवस्पृष्ठे धावमानं सुपर्णमदित्याः पुत्रं नाथकाम उप यामि भीतः। स नः सूर्य प्र तिर दीर्घमायुर्मा रिषाम सुमतौ ते स्याम ॥
स्वर रहित पद पाठदिव: । पृष्ठे । धावमानम् । सुऽपर्णम् । अदित्या: । पुत्रम् । नाथऽकाम: । उप । यामि । भीत: । स: । न: । सूर्य । प्र । तिर । दीर्घम् । आयु: । मा । रिषाम । सुऽमतौ । ते । स्याम ॥२.३७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(नाथकामः) नाथ [ईश्वर] को चाहनेवाला, (भीतः) डरा हुआ मैं (दिवः) आकाश की (पृष्ठे) पीठ पर (धावमानम्) दौड़ते हुए, (सुपर्णम्) बड़े पालनेवाले, (अदित्याः) अखण्ड वेदवाणी के (पुत्रम्) शोधनेवाले [परमेश्वर] को (उप) आदर से (यामि) पहुँचता हूँ। (सः) सो तू, (सूर्य) हे सर्वप्रेरक ! [जगदीश्वर] (नः) हमारे लिये (दीर्घम्) दीर्घ (आयुः) जीवन समय को (प्र तिर) बढ़ा दे, (मा रिषाम) हम दुखी न होवें, (ते) तेरी (सुमतौ) सुमति में (स्याम) हम रहें ॥३७॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि आकाश को भी वश में रखनेवाले, सर्वपालक, शुद्ध वेदवाणी के देनेवाले परमेश्वर की आज्ञा में रहकर अपने जीवन को यशस्वी बनावें और विघ्नों को हटा कर सदा आनन्द से रहें ॥३७॥
टिप्पणी
३७−(दिवः) आकाशस्य (पृष्ठे) उपरिभागे (धावमानम्) शीघ्रं गच्छन्तम् (सुपर्णम्) सुपालकम् (अदित्याः) अदितिर्वाङ्नाम-निघ० १।११। अखण्डिताया देववाण्याः (पुत्रम्) पुवो ह्रस्वश्च। उ० ४।१६५। पूञ् शोधने−क्त्र। शोधकम् (नाथकामः) ईश्वरं कामयमानः (उप) आदरे (यामि) प्राप्नोमि (भीतः) भयं प्राप्तः (सः) स त्वम् (नः) (अस्मभ्यम्) (सूर्य) हे सर्वप्रेरक परमेश्वर (प्र तिर) प्रवर्धय (दीर्घम्) (आयुः) जीवनकालम् (मा रिषाम) मा रिष्यामहै। मा हिंस्यामहै (सुमतौ) कल्याणां बुद्धौ (ते) तव (स्याम) ॥
विषय
'अदिति-पुत्र' प्रभु
पदार्थ
१. (दिवः पृष्ठे) = ज्ञान के आधार में (धावमानम्) = हम सबके जीवनों को शुद्ध करते हुए [धाव् शुद्धौ] (सुपर्णम्) = उत्तमता से हमारा पालन करते हुए (अदित्याः पुत्रम्) = वेदवाणी के द्वारा [अ दिति-अखण्डिता वाक्] हमें पवित्र व रक्षित करनेवाले [पुनाति, त्रायते] प्रभु को (भीत:) = संसार के इन काम-क्रोधरूप शत्रुओं से भयभीत हुआ-हुआ मैं (नाथकाम:) = नाथ को, रक्षक को चाहता हुआ (उपयामि) = समीपता से प्राप्त होता हूँ। २.हे सूर्य-उत्तम कर्मों में प्रेरित करनेवाले प्रभो! (स:) = वे आप (नः) = हमारे लिए (दीर्घम् आयु:) = दीर्घजीवन को प्रतिर अत्यन्त बढ़ानेवाले होओ। (मा रिषाम) = हम हिंसित न हों। (ते सुमतौ स्याम) = सदा आपकी कल्याणी मति में निवास करें।
भावार्थ
प्रभु ज्ञान द्वारा हमारा शोधन करते हैं। प्रभु की कल्याणी मति में चलते हुए हम दीर्घ आयुष्य को प्राप्त करते हैं।
भाषार्थ
(दिवस्पृष्ठे) मूर्धा की पीठ पर (धावमानम्) गति करते और उपासक को शुद्ध करते हुए, (सुपर्णम्) उत्तम-पालक, तथा (अदित्याः पुत्रम्) अखण्डित एक रस चित्तवृत्ति के पुत्ररूप, उस द्वारा प्रकटीभूत परमेश्वर को, (नाथ कामः) उस नाथ की कामना वाला मैं- (भीतः) सांसारिक कामादि शत्रुओं से डरा हुआ। (उपयामि) शरणागत होता हूं। (सूर्य) हे सूर्य सदृश ज्योति वाले! (सः ) वह तू (नः) हमें (दीर्घम् आयुः प्रतिर) दीर्घायु प्रदान कर, (ते सुमतौ स्याम) तेरी सुमति में हम रहें, (मा रिषाम) इस प्रकार हमारा विनाश न हो।
टिप्पणी
[दिवः पृष्ठे= "दिवं चक्रे मूर्धानम्" (अथर्व० १०।७।३२), दिव् अर्थात् मूर्धा के साथ स्पृष्ट सहस्रार चक्र में प्रकट हुआ परमेश्वर, इस मूर्धा में गति करता, तथा उपासक को विशुद्ध करता है। धावमानम्= धावु गति शुद्ध्योः। उपासक को कामादि से विशुद्ध करने में जो परमेश्वर की ऐच्छिक सक्रियता है, वह गति यहां अभीष्ट है। उपासक कामादि शत्रुओं से छुटकारा पा कर दीर्घायु की प्रार्थना करता है। मन्त्र में परमेश्वर के अधिष्ठान रूपी सूर्यपिण्ड का भी वर्णन हुआ है, परन्तु "नाथकामः" और "सुमतौ" का सम्बन्ध अधिष्ठातृ परमेश्वर के साथ समझना चाहिये। पृष्ठ=स्पृष्ट, "पृष्ठं स्पृशतेः संस्पृष्टमङ्ग" (निरुक्त ४।१।३) शिताम (३) शब्द की व्याख्या में]।
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
(दिवस्पृष्ठे) द्यौलोक, आकाश के उपरि देश में (धावमानं) गति करते हुए सूर्य के समान देदीप्यमान, उस मोक्षमय तेजोमय लोक में गति करते हुए (सुपर्णम्) उत्तम ज्ञान और पालना से युक्त (अदित्याः पुत्रम्) अदिति के पुत्र आदित्य योगी अथवा अखण्ड ब्रह्म के उपासक आत्मा को स्वयं (नाथकामः) ऐश्वर्य प्राप्त करने की इच्छा करता हुआ (भीतः) मृत्यु से भयभीत होकर (उपयामि) उसकी शरण जाता हूँ। हे (सूर्य) सूर्य ! तत्समान तेजस्विन् आत्मन् ! (सः) वह तू (नः) हमें (दीर्घम् आयुः) दीर्घ आयु (प्रतिर) प्रदान कर हम (ते सुमतौ) तेरी उत्तम बुद्धि या ज्ञानोपदेश के अधीन (स्याम) रहें और (मा रिषाम) कभी पीड़ित न हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
Smothered by the pressures of life around, yearning for fulfilment of my life’s mission and purpose, I come and pray to the Sun, self-refulgent child of Imperishable mother Eternity, flying high in space on top of heaven like a celestial Bird of infinite wings of will and action. May the Sun give us long life and good health, may we never come to harm and injury, and may we, O Lord, ever enjoy your love and good will.
Translation
Frightened and desirous of refuge, I approach the strongwinged sun, the son of eternity, racing on the top of the sky. As such, O son, may you bestow a long span of life. May we not come to harm. May we be in your friendly favour.
Translation
I, the man of learning afraid and desirous of strength approach through .my knowledge the sun which moves on the above par of heaven, which is refulgent with rays and is the son of Aditi, the indivisible atomic continuum. Let it give us long life. We always remain it its safety and never be in trouble.
Translation
Longing for God, afraid of death, do I approach Him, the Controller of heaven, the Mighty-Nourisher, the Devisor of the Vedas. O God, grant us long life. May we, unharmed, enjoy Thy gracious favour.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३७−(दिवः) आकाशस्य (पृष्ठे) उपरिभागे (धावमानम्) शीघ्रं गच्छन्तम् (सुपर्णम्) सुपालकम् (अदित्याः) अदितिर्वाङ्नाम-निघ० १।११। अखण्डिताया देववाण्याः (पुत्रम्) पुवो ह्रस्वश्च। उ० ४।१६५। पूञ् शोधने−क्त्र। शोधकम् (नाथकामः) ईश्वरं कामयमानः (उप) आदरे (यामि) प्राप्नोमि (भीतः) भयं प्राप्तः (सः) स त्वम् (नः) (अस्मभ्यम्) (सूर्य) हे सर्वप्रेरक परमेश्वर (प्र तिर) प्रवर्धय (दीर्घम्) (आयुः) जीवनकालम् (मा रिषाम) मा रिष्यामहै। मा हिंस्यामहै (सुमतौ) कल्याणां बुद्धौ (ते) तव (स्याम) ॥
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