अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 29
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - बार्हतगर्भानुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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बण्म॒हाँ अ॑सि सूर्य॒ बडा॑दित्य म॒हाँ अ॑सि। म॒हांस्ते॑ मह॒तो म॑हि॒मा त्वमा॑दित्य म॒हाँ अ॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठबट् । म॒हान् । अ॒सि॒ । सू॒र्य॒ । बट् । आ॒दि॒त्य॒ । म॒हान् । अ॒सि॒ । म॒हान् । ते॒ । म॒ह॒त: । म॒हि॒मा । त्वम् । आ॒दि॒त्य॒ । म॒हान् । अ॒सि॒॥२.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
बण्महाँ असि सूर्य बडादित्य महाँ असि। महांस्ते महतो महिमा त्वमादित्य महाँ असि ॥
स्वर रहित पद पाठबट् । महान् । असि । सूर्य । बट् । आदित्य । महान् । असि । महान् । ते । महत: । महिमा । त्वम् । आदित्य । महान् । असि॥२.२९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(सूर्य) हे चराचर प्रेरक [परमेश्वर !] तू (बट्) सत्य-सत्य (महान्) महान् [बड़ा] (असि) है, (आदित्य) हे अविनाशी ! तू (बट्) ठीक-ठीक (महान्) महान् [पूजनीय] (असि) है। (महतः ते) तुझ बड़े की (महिमा) महिमा (महान्) बड़ी है, (आदित्य) हे प्रकाशस्वरूप ! (त्वम्) तू (महान्) बड़ा (असि) है ॥२९॥
भावार्थ
जिस परमात्मा के बड़े होने को संसार में बड़े से बड़े भी मानते हैं, हे मनुष्यो ! उसकी उपासना करके प्रयत्न से अपने को बढ़ाओ ॥२९॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−८।९१।११, यजु० ३३।३९, और साम० पू० ३।९।४। तथा उ० ९।१।९ ॥
टिप्पणी
२९−(बट्) बट वेष्टनसामर्थ्यादिषु-क्विप्। सत्यम्-निघ० ३।१० (महान्) विशालः। पूजनीयः (असि) (सूर्य) सर्वप्रेरक परमेश्वर (बट्) (आदित्य) हे अविनाशिन् (महान्) (असि) (महान्) (ते) तव (महतः) पूजनीयस्य (महिमा) महत्त्वम् (त्वम्) (आदित्य) हे आदीप्यमान परमेश्वर (महान्) (असि) ॥
विषय
महान्
पदार्थ
१.हे (सूर्य) = निरन्तर गतिशील [सरति] व सबको कार्य में प्रेरित करनेवाले [सुवति कर्मणि] सूर्य! तू (बट्) = सचमुच ही (महान् असि) = महान् है, महनीय है। हे (आदित्य) = किरणों द्वारा जलों का आदान करनेवाले आदित्य ! तू (बट्) = सचमुच (महान्) = महनीय है-प्रभु की महिमा का तुझमें प्रकाश हो रहा है [तेजसा रविरंशुमान्] । तू तेजस्वी पदार्थों में प्रभु की विभूति ही है। २. (महतः ते) = महनीय तेरी महिमा महान् है। हे (आदित्य) = आदान करनेवाले सूर्य! उदय होते ही समन्तात् कृमियों का छेदन-भेदन [दाप् लवणे] करनेवाले सूर्य! [उद्यन्नादित्य क्रिमीन् हन्ति]। (त्वं महान् असि) = तू महान् है।
भावार्थ
हम सूर्य की भाँति निरन्तर सरणशील, गतिशील, कर्त्तव्यकर्म-तत्पर बनकर तथा अच्छाइयों का आदान करते हुए [आदानात्] व बुराइयों का छेदन-भेदन करते हुए 'सूर्य व आदित्य' बनें और इसप्रकार महनीय जीवनवाले हों।
भाषार्थ
(सूर्य) हे प्रेरक! (बट्) सत्य है कि (महान् असि) महान तू है, (आदित्य) उदित हुए हे आदित्य! अर्थात् द्युलोक की ज्योतियों का आदान अर्थात् अपहरण करने वाले (बट्) सत्य है कि (महान्) महान् (असि) तू है। (ते महतः) तुझ महान् की (महिमा महान्) महिमा महान है, (आदित्य) हे आदित्य!(त्वम्) तू (महान् असि) महान् है।
टिप्पणी
[बट् सत्यनाम (निघं० ३।१०)। मन्त्र में "सूर्य और आदित्य" इन दो पदों द्वारा प्रकृत परमेश्वर और सूर्यपिण्ड- इन दोनों का संयुक्त वर्णन सम्भवतः अभिप्रेत हो। सूर्य और आदित्य ये दोनों नाम परमेश्वर के भी हैं (अथर्व० १३।४ (१)। ५; तथा (यजु० ३२।१)]।
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
(बट्) सत्य निश्चय से हे सूर्य के तेजस्विन् आत्मन् ! तू (महान् असि) महान् है। हे (आदित्य) आदित्य समान आत्मन् ! (बट्) सचमुच (महान् असि) तू महान् है (महतः ते) तुझ महान् की (महान् महिमा) बड़ी महिमा है। (त्वम्) तू हे (आदित्य) सूर्य के समान प्रकाशक परमेश्वर ! तू (महान् असि) ‘महान्’ सब से बड़ा है।
टिप्पणी
(तृ० च०) ‘महस्ते सतो महिमा पनस्यते अधा देव महान् असि’ इति ऋ० यजु०। ‘महिमा पनिष्ठम महादेव महान् असि’ इति साम०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
O Surya, inspirer of life with life energy, truly you are great. O Aditya, child of imperishable mother Nature, surely you are unassailable, your grandeur is greater than greatness itself, O Aditya, child of divine Shakti, you are great beyond all possibility of challenge and negation.
Translation
Verily , great art thou, Osun; verily, O Aditya, great art thou; great is the greatness of thee the great one; thou, O son of Infinity, art great. (See Yv. XXXIII.39. Rg. VII.101.11)
Translation
This Surya, the impelling sun is tremendously grand. This Aditya, the sun causing evaporation and moistification is considerably grand. This sun is very grand and the grandeur of this grand body is also very glorious.
Translation
O All-urging God, verily Thou art great. O Indestructible God, truly. Thou art great. Great is Thy grandeur. Mighty One. O Refulgent God, Thou art great!
Footnote
See Rig, 8-101-11, Yajur, 33-39, Atharva, 20-58-3.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२९−(बट्) बट वेष्टनसामर्थ्यादिषु-क्विप्। सत्यम्-निघ० ३।१० (महान्) विशालः। पूजनीयः (असि) (सूर्य) सर्वप्रेरक परमेश्वर (बट्) (आदित्य) हे अविनाशिन् (महान्) (असि) (महान्) (ते) तव (महतः) पूजनीयस्य (महिमा) महत्त्वम् (त्वम्) (आदित्य) हे आदीप्यमान परमेश्वर (महान्) (असि) ॥
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