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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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    मा त्वा॑ दभन्परि॒यान्त॑मा॒जिं स्व॒स्ति दु॒र्गाँ अति॑ याहि॒ शीभ॑म्। दिवं॑ च सूर्य पृथि॒वीं च॑ दे॒वीम॑होरा॒त्रे वि॒मिमा॑नो॒ यदेषि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । त्वा॒ । द॒भ॒न् । प॒रि॒ऽयान्त॑म् । आ॒जिम् । स्व॒स्त‍ि । दु॒:ऽगान् । अति॑ । या॒हि॒ । शीभ॑म् । दिव॑म् । च॒ । सू॒र्य॒ । पृ॒थि॒वीम् । च॒ । दे॒वीम् । अ॒हो॒रा॒त्रे इति॑ । वि॒ऽमिमा॑न: । यत् । एषि॑ ॥2.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा त्वा दभन्परियान्तमाजिं स्वस्ति दुर्गाँ अति याहि शीभम्। दिवं च सूर्य पृथिवीं च देवीमहोरात्रे विमिमानो यदेषि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । त्वा । दभन् । परिऽयान्तम् । आजिम् । स्वस्त‍ि । दु:ऽगान् । अति । याहि । शीभम् । दिवम् । च । सूर्य । पृथिवीम् । च । देवीम् । अहोरात्रे इति । विऽमिमान: । यत् । एषि ॥2.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे सूर्य !] (आजिम्) मर्यादा पर (परियान्तम्) सब ओर से चलते हुए (त्वा) तुझको वे [विघ्न] (मा दभन्) न दबावें, (दुर्गान्) विघ्नों को (अति) उलाँघकर (स्वस्ति) आनन्द के साथ (शीभम्) शीघ्र (याहि) चल। (यत्) क्योंकि (सूर्य) हे सूर्य ! [लोकों के चलानेवाले पिण्डविशेष] (दिवम्) आकाश (च च) और (देवीम्) चलनेवाली (पृथिवीम्) पृथिवी को (अहोरात्रे) दिन-राति (विमिमानः) विविध प्रकार नापता हुआ (एषि) तू चलता है ॥५॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार ईश्वरनियम से सूर्य अन्धकार आदि विघ्नों को मिटाकर जगत् का उपकार करता है, वैसे ही मनुष्य दोषों को त्याग कर सबको सुख पहुँचाने में प्रयत्न करें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(मा दभन्) मा हिंसन्तु ते विघ्नाः (त्वा) सूर्यम् (परियान्तम्) परितो गच्छन्तम् (आजिम्) म० ४। मर्यादाम् (स्वस्ति) मङ्गलेन सह (दुर्गान्) विघ्नान् (अति) उल्लङ्घ्य (याहि) प्राप्नुहि (शीभम्) शीघ्रम् (दिवम्) आकाशम् (च) (सूर्य) हे प्रेरक रवे (पृथिवीम्) (च) (देवीम्) दिवु गतौ-अच्। गतिशीलाम् (अहोरात्रे) (विमिमानः) विविधं मानं कुर्वन् (यत्) यस्मात् कारणात् (एषि) गच्छसि ॥

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    विषय

    'दिन-रात का बनानेवाला' सूर्य

    पदार्थ

    १. हे (सूर्य) = सूर्य! (आजिम् परियन्तम्) = मार्ग पर आगे बढ़ते हुए (त्वा) = तुझे (मा दभन्) = कोई भी हिंसित नहीं कर पाते। तू (शीभम्) = शीघ्र ही (दुर्गान) = दुःखेन गन्तव्य सब [दुर्ग] मार्गों को (अतियाहि) = लांघकर चलनेवाला हो और स्वस्ति-हमारे कल्याण का कारण बन। हे सूर्य! (अहोरात्रे) = दिन और रात्रि का (विमिमान:) = मापपूर्वक निर्माण करता हुआ (यत् एषि) = जब तू गति करता है तब तू (दिवं च) = इस द्युलोक को (देवीं पृथिवीम्) = दिव्यगुणोंवाली पृथिवी को हमारे लिए [स्वस्ति] कल्याण का साधन बनाता है। सूर्य के कारण सब देव हमारे लिए कल्याण का साधन बनते हैं। सूर्य केन्द्र में है और सब लोक-लोकान्तर इसके चारों ओर गति कर रहे हैं। सूर्य इन सबको हमारे लिए कल्याणकर बनाता है।

    भावार्थ

    मार्ग पर चलते हुए सूर्य को कोई भी विघ्न रोक नहीं पाते। दिन व रात्रि का निर्माण करता हुआ यह सूर्य सब लोकों को हमारे लिए हितसाधक बनाता है।

     

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    भाषार्थ

    (आजिम्, परि यान्तम्) संग्राम की ओर जाते हुए (त्वा) तुझे हे सूर्य! (मा दभन्) विरोधी शक्तियां न दवाएं, (दुर्गान्) दुर्गम मार्गों का, (स्वस्ति) कल्याण पूर्वक (शीभम्) शीघ्र (अति याहि) अतिक्रमण करता हुआ तू जा। (यद्) जो कि (दिवं च, पृथिवीं च देवीम् अहोरात्रे विमिमान:) द्युलोक को, और दिव्य पृथिवी लोक को (एषि) तु आता है, दिन और रात को मापता हुआ।

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    विषय

    रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।

    भावार्थ

    हे आत्मन् सूर्य ! (आजिम्) चरम सीमा, मोक्ष पद तक (परियान्तम्) पहुंचते हुए (त्वा) तुझको (मा दभन्) हिंसक काम क्रोध आदि मानस शत्रु तुझे न मारें। तू (दुर्गान्) कठिन कठिन दुर्गम स्थानों और अवसरों, प्रलोभनों को भी (शीभम्) अतिशीघ्र (अतियाहि) पार कर। (स्वस्ति) तेरा मोक्ष मार्ग में सदा कल्याण हो। तू (यद्) जब (अहोरात्रे वि मिमानः) दिन रात्रि को नाना प्रकार से बनाता, बिताता हुआ हे (सूर्य) सूर्य समान तेजस्विन् योगिन् ! (दिवं) द्यौलोक के समान प्रकाशमान और (पृथिवीम् च) पृथिवी लोक के समान सर्वाश्रय परमात्मा के पास (एषि) पहुंचता है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘पर्यन्तम्’ (द्वि०) ‘सुगेन दुर्गम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Let no one stop you on your course, going on your mission. Go on fast, O Sun, and win your castles of victory peacefully for the good of life, you that go on counting over days and nights, shining over heaven and the heavenly earth.

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    Translation

    May they not obstruct you racing along your course; may you go across difficulties quickly and safely, as you, O sun, go to the sky and the earth, making day and night.

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    Translation

    There are no powers competent to overpower this sun moving round (on its axis). This very swiftly passes (through its lustrous light) the places which can be hardly traversed. This making day and night keeps in its contact the heaven and the grand earth.

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    Translation

    O soul, let not foes like lust and anger assail thee in thy journey towards salvation. Speedily overcome all temptations. May thou safely march on the path of salvation. O Yogi, lustrous like the Sun, passing thy days and nights justly, thou goest to God, Brilliant like the sky, and the Giver of shelter like the earth!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(मा दभन्) मा हिंसन्तु ते विघ्नाः (त्वा) सूर्यम् (परियान्तम्) परितो गच्छन्तम् (आजिम्) म० ४। मर्यादाम् (स्वस्ति) मङ्गलेन सह (दुर्गान्) विघ्नान् (अति) उल्लङ्घ्य (याहि) प्राप्नुहि (शीभम्) शीघ्रम् (दिवम्) आकाशम् (च) (सूर्य) हे प्रेरक रवे (पृथिवीम्) (च) (देवीम्) दिवु गतौ-अच्। गतिशीलाम् (अहोरात्रे) (विमिमानः) विविधं मानं कुर्वन् (यत्) यस्मात् कारणात् (एषि) गच्छसि ॥

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