अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 32
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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चि॒त्रश्चि॑कि॒त्वान्म॑हि॒षः सु॑प॒र्ण आ॑रो॒चय॒न्रोद॑सी अ॒न्तरि॑क्षम्। अ॑होरा॒त्रे परि॒ सूर्यं॒ वसा॑ने॒ प्रास्य॒ विश्वा॑ तिरतो वी॒र्याणि ॥
स्वर सहित पद पाठचि॒त्र: । चि॒कि॒त्वान् । म॒हि॒ष: । सु॒ऽप॒र्ण: । आ॒ऽरो॒चय॑न् । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒हो॒रा॒त्रे इति॑ । परि॑ । सूर्य॑म् । वसा॑ने॒ इति॑ । प्र । अ॒स्य॒ । विश्वा॑ । ति॒र॒त॒: । वी॒र्या᳡णि ॥२.३२॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्रश्चिकित्वान्महिषः सुपर्ण आरोचयन्रोदसी अन्तरिक्षम्। अहोरात्रे परि सूर्यं वसाने प्रास्य विश्वा तिरतो वीर्याणि ॥
स्वर रहित पद पाठचित्र: । चिकित्वान् । महिष: । सुऽपर्ण: । आऽरोचयन् । रोदसी इति । अन्तरिक्षम् । अहोरात्रे इति । परि । सूर्यम् । वसाने इति । प्र । अस्य । विश्वा । तिरत: । वीर्याणि ॥२.३२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(चित्रः) अद्भुत, (चिकित्वान्) समझवाला, (महिषः) महान् (सुपर्णः) बड़ा पालन करनेवाला [परमेश्वर] (रोदसी) दोनों सूर्य और पृथिवी [प्रकाशमान अप्रकाशमान लोकों] और (अन्तरिक्षम्) [उनके] मध्य लोक को (आरोचयन्) चमका देता हुआ [वर्तमान है]। (सूर्यम्) सूर्य लोक को (परि) सब ओर से (वसाने) ओढ़े हुए (अहोरात्रे) दोनों दिन और रात्रि (अस्य) इस [परमात्मा] के (विश्वा) व्यापक (वीर्याणि) वीर कर्मों को (प्र तिरतः) बढ़ाते हैं [प्रसिद्ध करते हैं] ॥३२॥
भावार्थ
परमेश्वर बड़ा आश्चर्यस्वरूप सब सृष्टि का कर्ता है। उसी के नियम अनुसार सूर्य और पृथिवी के घुमाव से दिन-रात्रि उत्पन्न होकर हमें पुरुषार्थ के योग्य बनाते हैं, हे विद्वानों ! उसी परमेश्वर को पहिचान कर अपने को बढ़ाओ ॥३२॥
टिप्पणी
३२−(चित्रः) अद्भुतः (चिकित्वान्) कित ज्ञाने कि ज्ञाने वा-क्वसु। ज्ञानवान् (महिषः) महान् (सुपर्णः) बहुपालनोपेतः (आरोचयन्) प्रदीपयन् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अन्तरिक्षम्) (अहोरात्रे) (परि) सर्वतः (सूर्यम्) लोकप्रेरकं रविमण्डलम् (वसाने) आच्छादयन्ती (प्र तिरतः) वर्धयतः। प्रसिद्धानि कुरुतः (अस्य) परमेश्वरस्य (विश्वानि) व्यापकानि (वीर्याणि) वीरकर्माणि ॥
विषय
'अद्भुत ज्ञानी, पूज्य, पालक' प्रभु
पदार्थ
१. (चित्र:) = वे प्रभु अद्भुत महिमावाले हैं, (चिकित्वान्) = ज्ञानी है, (महिषः) = वे पूजनीय प्रभु ही (सुपर्ण:) = उत्तमता से पालन करनेवाले हैं। वे ही (रोदसी) = द्यावापृथिवी को तथा (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष को (आरोचयन्) = दीप्त कर रहे हैं। २. ये सूर्य (परिवसाने) = सूर्य को सब ओर से धारण करते हुए [ओड़े हुए] (अहोरात्रे) = दिन और रात (अस्य) = इस प्रभु के (विश्वा वीर्याणि) = सब वीर कर्मों को (प्रतिरत:) = बढ़ा रहे हैं-प्रभु के वीरता पूर्ण कर्मों की महिमा को प्रकट करते हैं।
भावार्थ
वे 'अद्भुत ज्ञानी, पूज्य, पालक' प्रभु सर्वत्र व्याप्त हैं। सूर्य की गति से निर्मित ये दिन व रात प्रभु की महिमा का ही प्रकाश कर रहे हैं।
भाषार्थ
(चित्रः) विचित्र शक्ति वाला, (चिकित्वान्) चेतनावान्, (महिषः) महान् (सुर्पणः) सुपालक सूर्य पिण्ड या सूर्य पिण्ड का अधिष्ठाता-पुरुष, (रोदसी, अन्तरिक्षम्) द्युलोक-पृथिवी लोक और अन्तरिक्ष को (आ रोचयन्) प्रकाशित करता हुआ वर्तमान है। (सूर्य परि वसाने) सूर्य के आश्रय पर वसने वाले (अहोरात्रे) दिन-और-रात्रि (अस्य) इस की (विश्वा) विविध प्रकार की (वीर्याणि) शक्तियों को (प्रतिरतः) प्रकर्ष रूप में फैला रहे हैं, बढ़ा रहे हैं।
टिप्पणी
[चिकित्वान् = चेतनावान् (निरुक्त ८।२।६; इध्मः (२) की व्याख्या में)। चेतना धर्म है चेतन का। अतः इस द्वारा सूर्य पिण्ड के अधिष्ठाता को सूचित किया जाता है। कित रोगापनयने अर्थ में सूर्य को भी निर्दिष्ट किया है। सूर्य, विविध रोगों का चिकित्सक हैं। दिन-रात्रि का सम्बन्ध सूर्य के साथ है अतः मन्त्र में सूर्यपिण्ड का भी निर्देश हुआ है। वस्तुतः जैसे जीवित मनुष्य के सम्बन्ध में शरीर पिण्ड के गुणधर्मों का आरोप जीवात्मा में, और जीवात्मा के गुणधर्मो का आरोप शरीर पिण्ड में, बोल-चाल में होता है, इसी प्रकार इस सूक्त में अधिष्ठेय-सूर्यपिण्ड के गुणधर्मों का आरोप अधिष्ठातृ-पुरुष में, और अधिष्ठातृ-पुरुष के गुणधर्मों का आरोप अधिष्ठेय-सूर्यपिण्ड में प्रायः हुआ है। इस दृष्टि से सूक्त को "अध्यात्म" कहा है। "अहोरात्रे सूर्य परिवसाने" का शाब्दिक अर्थ है "सूर्य रूपी ओढ़नी को अपने सब ओर ओड़े हुए दिन-रात"]।
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
(चित्रः) समस्त संसार के संचय करने हारा (चिकित्वान्) ज्ञानी (महिषः) महान् (सुपर्णः) उत्तम पालन शक्ति से युक्त (रोदसी) द्यौ पृथिवी और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (रोचयन्) प्रकाशित करता है (सूर्यं) सूर्य को (परिवसाने) आश्रय करके रहने वाले (अहोरात्रे) दिन और रात भी (अस्य) इस परमेश्वर के (विश्वा वीर्याणि) समस्त वीर्यों को (प्र तिरतः) बतलाते हैं, बढ़ाते हैं।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘रोदसीम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
Sublime, intelligent, great, all sustainer, the Sun abides, illuminating heaven, earth and the firmament. Both day and night, wearing the glory of the Sun, exalt the universal grandeur and cosmic exploits of this Sun.
Translation
Wonderfully wise, mighty, strong-winged (sun) illuminates the heaven and earth, as well as, the midspace. Day and night, dwelling about the sun, spread far and wide all his energies.
Translation
The wondrous, sight-giving. grand, refulgent sun illuminating the heaven, earth and firmament is playing its part. The day and night depending on the sun spread out its various power.
Translation
Brilliant, Wise, Mighty God, the Nourisher, illumes both the spheres and air between them. Day and Night, sheltering on the Sun, spread forth more widely all His heroic powers.
Footnote
Both the spheres: The Sun and the Earth.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३२−(चित्रः) अद्भुतः (चिकित्वान्) कित ज्ञाने कि ज्ञाने वा-क्वसु। ज्ञानवान् (महिषः) महान् (सुपर्णः) बहुपालनोपेतः (आरोचयन्) प्रदीपयन् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अन्तरिक्षम्) (अहोरात्रे) (परि) सर्वतः (सूर्यम्) लोकप्रेरकं रविमण्डलम् (वसाने) आच्छादयन्ती (प्र तिरतः) वर्धयतः। प्रसिद्धानि कुरुतः (अस्य) परमेश्वरस्य (विश्वानि) व्यापकानि (वीर्याणि) वीरकर्माणि ॥
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