अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 26
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - पुरोद्व्यतिजागता भुरिग्जगती
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
5
यो वि॒श्वच॑र्षणिरु॒त वि॒श्वतो॑मुखो॒ यो वि॒श्वत॑स्पाणिरु॒त वि॒श्वत॑स्पृथः। सं बा॒हुभ्यां॑ भरति॒ सं पत॑त्त्रै॒र्द्यावा॑पृथि॒वी ज॒नय॑न्दे॒व एकः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । वि॒श्वऽच॑र्षणि: । उ॒त । वि॒श्वत॑:ऽमुख: । य: । वि॒श्वत॑:ऽपाणि: । उ॒त । वि॒श्वत॑:ऽपृथ: । सम् । बा॒हुऽभ्या॑म् । भर॑ति । सम् । पत॑त्रै: । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । ज॒नय॑न् । दे॒व: । एक॑: ॥२.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
यो विश्वचर्षणिरुत विश्वतोमुखो यो विश्वतस्पाणिरुत विश्वतस्पृथः। सं बाहुभ्यां भरति सं पतत्त्रैर्द्यावापृथिवी जनयन्देव एकः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । विश्वऽचर्षणि: । उत । विश्वत:ऽमुख: । य: । विश्वत:ऽपाणि: । उत । विश्वत:ऽपृथ: । सम् । बाहुऽभ्याम् । भरति । सम् । पतत्रै: । द्यावापृथिवी इति । जनयन् । देव: । एक: ॥२.२६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [परमेश्वर] (विश्वचर्षणिः) सबका देखनेवाला, (उत) और (विश्वतोमुखः) सब ओर से मुख [मुख्य व्यवहार वा उपाय] वाला, (यः) जो (विश्वतस्पाणिः) सब ओर से हाथ के व्यवहारवाला, (उत) और (विश्वतस्पृथः) सब ओर से पूर्तिवाला है। (एकः) वह अकेला (देवः) प्रकाशस्वरूप [परमात्मा] (बाहुभ्याम्) दोनों [धारण-आकर्षण रूप] भुजाओं से (पतत्रैः सम्) गमनशील परमाणुओं के साथ (द्यावापृथिवी) सूर्य पृथिवी को (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ (सम्) यथावत् (भरति) पुष्ट करता है ॥२६॥
भावार्थ
निराकार सर्वशक्तिमान् अकेले जगदीश्वर ने सब आगा-पीछा देख, सब प्रकार के संयोग-वियोग आदि उपायों से परमाणुओं में धारण आकर्षण-सामर्थ्य देकर कुम्भकार के समान सब जगत् को रचा है, उसकी उपासना सब मनुष्य करें ॥२६॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है १०।८१।३, और यजुर्वेद १७।१९ ॥
टिप्पणी
२६−(यः) परमेश्वरः (विश्वचर्षणिः) सर्वद्रष्टा-निघ० ३।११। (उत) अपि (विश्वतोमुखः) सर्वतोमुखं प्रधानं व्यवहार उपायो वा यस्य सः (यः) (विश्वतस्पाणिः) पण व्यवहारे-इण्। सर्वतो हस्तसामर्थ्यं यस्य सः (उत) (विश्वतस्पृथः) पातॄतुदिवचि०। उ० २।७। पृ पालनपूरणयोः-थक्, टाप्। सर्वतः पृथा पूर्तिर्यस्य सः (सम्) सम्यक् (बाहुभ्याम्) धारणाकर्षणरूपभुजाभ्याम् (भरति) पुष्णाति (सम्) सह (पतत्रैः) गमनशीलैः परमाणुभिः (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (जनयन्) उत्पादयन् (देवः) प्रकाशस्वरूपः (एकः) अद्वितीयः ॥
विषय
'विश्वतोमुख' प्रभु
पदार्थ
(विश्वतोमुखः) = सब ओर मुखवाले हैं (यः) = जो (विश्वतः पाणि:) = सब ओर हाथोंवाले हैं, (उत) = और (विश्वतस्पृथः) = सब ओर पूरण [व्याति]-वाले हैं [पू पालनपूरणयोः], २. वे प्रभु (बाहुभ्यां भरति) = बाहुओं से द्युलोक को सम्यक् भृत करते हैं और (पतनैः) = पतनशील इन पाँवों से पृथिवीलोक को भुत कर रहे हैं, वे (एक: देव:) = अद्वितीय प्रभु द्यावापृथिवी (जनयन्) = द्युलोक व पृथिवीलोक को प्रादुर्भूत कर रहे |
भावार्थ
वे प्रभु सर्वद्रष्टा व सर्वव्यापक हैं। प्रभु सर्वत्र सब इन्द्रियों के गुणों के आभासवाले हैं। वे प्रभु ही द्यावापृथिवी का प्रादुर्भाव व धारण करते हैं।
भाषार्थ
(यः) जो परमेश्वर (विश्वचर्षणिः) विश्व का द्रष्टा, (विश्वतोमुखः) सब ओर मुख वाला, (विश्वतस्पाणि१) सब ओर हाथों के व्यवहार वाला, (विश्वतस्पृथः) सब ओर विस्तार वाला है, वह (एकः देवः) एक देव (पतत्रैः) परमाणुओं द्वारा (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी लोक को (सं जनयन्) उत्पन्न करता हुआ (बाहुभ्याम्१) निज बल द्वारा (संभरति) लोक तथा पृथिवी लोक का सम्यक् भरण-पोषण करता है।
टिप्पणी
[विश्वतोमुखः= सब ओर विद्यमान परमेश्वरीय कृतियां, मानो उस के मुख रूप होकर, उसकी महिमा का वर्णन करती हैं। पृथः= प्रथ विस्तारे। बाहुभ्याम् = बाह्वोर्बलम् (अथर्व० १९।६०।१)। पाणिः = हाथ; हाथों द्वारा आदान-प्रतिदान। पतत्रैः= गतिशील परमाणुओं द्वारा। सूर्यपक्ष में अर्थ गौण है। बाहुभ्याम् = सूर्य की धारण और आकर्षण शक्ति। पतत्रैः= गतिशील रश्मियां। जनयन्= प्रकट करना, रात्रि के अन्धकार से द्यूलोक और पृथिवी को अनावृत करना]। [१. "अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः।" (श्वेताश्वतर - अ० ३। मं० १९)।]
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
(यः) जो परमात्मा (विश्वचर्षणिः) समस्त जगत् का द्रष्टा, सब चोर चक्षु से सम्पन्न (उत) और (विश्वतोमुखः) सब ओर को मुखों वाला है। (यः विश्वतः पाणिः) जिसके सर्वत्र हाथ हैं और जो (विश्वतस्पृथः) सर्वत्र व्याप्त है वह (एकः देवः) एक मात्र सब का द्रष्टा सब का प्रकाशक उपास्य-देव विश्व के प्राणियों पर दया करके (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी इन दोनों में विद्यमान समस्त चराचर संसार को (पतत्रैः) कारकों द्वारा (संजनयन्) भली प्रकार उत्पन्न करता हुआ (बाहुभ्याम्) अपनी बाहुओं से, अपने हाथों से मानो सब को (सं भरति) भली प्रकार भरण पोषण करता है।
टिप्पणी
(प्र०) ‘विश्वचर्षणि रुतविश्वतोमुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात्’ (तृ०) ‘सं बाहुभ्यां धमति’ (च०) ‘द्यावाभूमी’ इति ऋ०। ‘यो विश्वचक्षु’ रिति मै० सं०। (तृ०) ‘नमति’ इति तै० सं०। ‘धमत्’ इति मै० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
All watching with cosmic eyes, all speaking with cosmic voice, all protecting with cosmic arms, and all reaching with infinite cosmic presence, the sole, self- refulgent creator of heaven and earth shapes and controls the universe with the hands of his thought and will with strokes of natural forces forging things into form and sustaining them in life.
Translation
He who belongs to all men (carsani) and has faces on all sides, who has hands on all sides and palms on all sides -- he brings together with his (two) arms, together with his wings (pL), generating heaven and earth, sole Lord. (See Also Rg. X.81.3, Yv. XII.19)
Translation
Only one powerful Divinity, who is Vishvacharshani All visioned and Vishvato Mukhah, one who has everything in his front and is the revealer of the Vedas; who is Vishva tapanih, omnipotent, and Vishvatasprithah, Omnipresent or All-pervading; creating the earth and heaving with atomic molecules through integrating and disintegrating on powers subsists ( this universe).
Translation
God keeps an eye on the whole world, preaches morality to humanity, is full of immense strength, is present everywhere. The Incomparable One Effulgent Lord, with mobile atoms, creating the Earth and Heaven, with His mighty power nourishes the universe.
Footnote
See Rig, 10-83-3, Yajur, 17-19.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२६−(यः) परमेश्वरः (विश्वचर्षणिः) सर्वद्रष्टा-निघ० ३।११। (उत) अपि (विश्वतोमुखः) सर्वतोमुखं प्रधानं व्यवहार उपायो वा यस्य सः (यः) (विश्वतस्पाणिः) पण व्यवहारे-इण्। सर्वतो हस्तसामर्थ्यं यस्य सः (उत) (विश्वतस्पृथः) पातॄतुदिवचि०। उ० २।७। पृ पालनपूरणयोः-थक्, टाप्। सर्वतः पृथा पूर्तिर्यस्य सः (सम्) सम्यक् (बाहुभ्याम्) धारणाकर्षणरूपभुजाभ्याम् (भरति) पुष्णाति (सम्) सह (पतत्रैः) गमनशीलैः परमाणुभिः (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (जनयन्) उत्पादयन् (देवः) प्रकाशस्वरूपः (एकः) अद्वितीयः ॥
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