अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 38
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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स॑हस्रा॒ह्ण्यं विय॑तावस्य प॒क्षौ हरे॑र्हं॒सस्य॒ पत॑तः स्व॒र्गम्। स दे॒वान्त्सर्वा॒नुर॑स्युप॒दद्य॑ सं॒पश्य॑न्याति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒ह॒स्र॒ऽअ॒ह्न्यम् । विऽय॑तौ । अ॒स्य॒ । प॒क्षौ । हरे॑: । हं॒सस्य॑ । पत॑त: । स्व॒:ऽगम् । स: । दे॒वान् । सर्वा॑न् । उर॑सि । उ॒प॒ऽदद्य॑ । स॒म्ऽपश्य॑न् । या॒ति॒ । भुव॑नानि । विश्वा॑ ॥२.३८॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्राह्ण्यं वियतावस्य पक्षौ हरेर्हंसस्य पततः स्वर्गम्। स देवान्त्सर्वानुरस्युपदद्य संपश्यन्याति भुवनानि विश्वा ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽअह्न्यम् । विऽयतौ । अस्य । पक्षौ । हरे: । हंसस्य । पतत: । स्व:ऽगम् । स: । देवान् । सर्वान् । उरसि । उपऽदद्य । सम्ऽपश्यन् । याति । भुवनानि । विश्वा ॥२.३८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(स्वर्गम्) मोक्षसुख को (पततः) प्राप्त हुए (अस्य) इस [सर्वत्र वर्तमान] (हरेः) हरि [दुःख हरनेवाले] (हंसस्य) हंस [ज्ञानी वा व्यापक परमेश्वर] के (पक्षौ) दोनों पक्ष [ग्रहण करने योग्य कार्य और कारण रूप व्यवहार] (सहस्राह्ण्यम्) सहस्रों दिनोंवाले [अनन्त देशकाल] में (वियतौ) फैले हुए हैं। (सः) वह [परमेश्वर] (सर्वान्) सब (देवान्) [दिव्य गुणों को अपने] (उरसि) हृदय में (उपदद्य) लेकर (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (संपश्यन्) निहारता हुआ (याति) चलता रहता है ॥३८॥
भावार्थ
जैसे परमेश्वर अन्तर्यामी रूप से अनन्त कार्य और कारण रूप जगत् की निरन्तर सुधि रखता है, वैसे ही मनुष्य परमेश्वर का विचार करता हुआ सब कामों में सदा सावधान रहे ॥३८॥यह मन्त्र आ चुका है-अथर्व० १०।८।१८, और आगे फिर है-अ० १३।३।१४ ॥
टिप्पणी
३८-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अथर्व० १०।८।१८। तत्रैव द्रष्टव्यः। (हंसस्य) वृतॄवदिवचिवसिहनि०। उ० ३।६२। हन हिंसागत्योः-स। ज्ञानिनो व्यापकस्य परमेश्वरस्य ॥
विषय
सहस्त्र युगपर्यन्त दिन व रात
पदार्थ
१. (स्वर्गं पततः) = सदा आनन्दमय लोक में गति करनेवाले-सदा आनन्दस्वरूप हंसस्य हमारे पापों का नाश करनेवाले और पापनाश के द्वारा (हरे:) = दु:खों का हरण करनेवाले (अस्य) = इस प्रभु के (पक्षौ) = सृष्टि-निर्माण व प्रलयरूप दो पक्ष [दिन व रात] (सहस्त्राह्णयं वियतौ) = सहस्त्र युगपर्यन्त परिमाणवाले दिन व रात में फैले हुए हैं-या विशिष्टरूप से नियमबद्ध हैं। [सहलयुगपर्यन्तमहर्यद् ब्रह्मणो विदुः । रात्रिं युगसहस्त्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः] । २. (सः) = वे प्रभु (सर्वान् देवान्) = सब पृथिवीस्थ, अन्तरिक्षस्थ व द्युलोकस्थ ग्यारह-ग्यारह कुल तेतीस देवों को (उरसि उपदद्य) = अपने हृदय में, अपने एक देश में ग्रहण करके (विश्वा भुवनानि) = सब लोकों को (सम्पश्यन् याति) = सम्यक् देखते हुए-सबका सम्यक् धारण करते हुए याति-गति करते हैं।
भावार्थ
सदा आनन्दमयलोक में निवास करनेवाले, पापनाशक, दु:खनिवारक प्रभु के सृष्टिनिर्माण व प्रलयरूप दिन व रात नियमबद्ध रूप से सहस्र युगों के परिमाणवाले हैं। वे प्रभु सब देवों को अपने अन्दर धारण करके सब लोकों को देखते हुए गति करते हैं।
भाषार्थ
(स्वर्गम्, पततः) स्वर्ग की ओर उड़ते हुए, (हरेः) सौरपरिवार का हरण करते हुए, उसे अपने साथ लिये हुए, (अस्य हंसस्य) इस हंस अर्थात् सूर्य के (पक्षौ) दोनों पंख, (सहस्राह्ण्यम्) हजारों दिनों से (वियतौ) विशेष रूप में प्रयत्न शील हैं। (सः) वह हंस (सर्वान्) सब (देवान्) सौरपरिवार के ग्रह-उपग्रह आदि को (उरसि) अपनी छाती में (उपदद्य) दे कर अर्थात् धारित कर के, (संपश्यन्) देखता हुआ, (विश्वा भुवनानि) मार्गवर्ती सब भुवनों को (याति) पहुंचता है।
टिप्पणी
[वियतौ = वि + यती (प्रयत्ने) + क्विप् + प्रथमा द्विवचन। हरेः= हञ् हरणे, ले चलना। हंसस्य = सूर्यस्य। हन्ति अन्धकारं, सनोति ददाति च प्रकाशम्; हन् + षणु (दाने) +डः (औणादिक प्रत्यय)। उप दद्य= उप + दद् (दाने)। संपश्यन् = कविता में, या निज अधिष्ठातृ-परमेश्वर की दृष्टि से। स्वर्गं पततः= स्वर्ग कौन सा स्थान है जिस की ओर सूर्य-हंस हजारों दिनों से उड़ता जा रहा है, कहा नहीं जा सकता। वर्तमान काल के पाश्चात्य ज्योतिषी कहते हैं कि उत्तर दिशा में एक तारा है जिसे VEga (Alpha Lyrae) कहते हैं, जो कि वीणा मण्डल में है, उस की ओर सपरिवार-सूर्य गति कर रहा है, और यह VEGA तारा पृथिवी से २६ प्रकाश-वर्षो की दूरी पर है। एक "प्रकाश-वर्ष" = ५,८८०,००० मिलियन मील। वीणामण्डल (Lyra Constillation) हरकुलीज मण्डल के पूर्व में, तथा आकाश गङ्गा के पश्चिम में है। एक "प्रकाश-वर्ष" का अभिप्राय है कि प्रकाश की किरणें एक वर्ष में जितना मार्ग चलती हैं। सम्भवतः मन्त्र का वर्णन केवल कविता मात्र ही हो]। [परमेश्वर पक्ष में हंसः = The supreme soul Brahman (आप्टे) धात्वर्थ की दृष्टि से "हन्ति, प्रज्ञानान्धकारम्, सनोति ददाति च ज्ञानप्रकाशमिति हंसः। सहस्राह्ण्यम्= हजारों दिनों की व्याप्ति में। परमेश्वर पक्ष में हजार युगों को एक दिन कहा है। यथा "तद्वै युगसहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदु" (ऋ० भा० भूमिका, महर्षि दयानन्द, वेदोत्पत्ति विषय)। हजार युगों की रात्रि भी कही है "रात्रि च तावतीमेव"। ब्राह्म दिन-रात रूपी सर्ग और प्रलय, परमेश्वर-पक्षी के दो पक्ष अर्थात् पंख हैं। इन पंखों द्वारा परमेश्वर-पक्षी मानो उड़ान कर रहा है। स्वर्ग है असीम- आकाश। सर्वान् देवान्= संसार के सब द्योतमान सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तारागण आदि। यह ब्रह्माण्ड फैलता जा रहा है असीम-आकाश में। वेद में दिन-रात को परमेश्वर के दो पार्श्व कहे हैं, यथा "अहोरात्रे पार्श्वे" (यजु० ३१।३२)। परमेश्वर का वर्णन जब पक्षी रूप में होगा, तब दो पार्श्व, पक्षरूप ही होंगे। सहस्राह्ण्यम् में "अहः" शब्द द्वारा दिन और रात अभिप्रेत हैं। यथा “अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च" (ऋ० ६।९।१) तथा निरुक्त (२।६।२१) । "अहश्च कृष्णं रात्रिः, शुक्लं चाहरर्जुनम्"।]
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
(सहस्र-अह्न्यम्) हज़ारों दिनों या युगों में बीतने योग्य (स्वर्गम्) विस्तृत आकाश भाग में (पततः) जाते हुए सूर्य के समान (हरेः) अति पीतवर्ण एवं गतिशील, परम आत्मा के (पक्षौ) दोनों पक्ष, दोनों मार्ग, रात दिन (वियतौ) विशेष रूप से नियम बद्ध हैं। (सः) वह (सर्वान् देवान्) समस्त देवों, प्राणों को (उरसि) अपने छाती पर, अपने हृदय में (उपदद्य) धारण करके (विश्वा भुवनानि) समस्त लोकों को (सं पश्यन्) देखता हुआ (याति) विचरण करता है। सहस्रयुगपर्मन्तमहर्यद् ब्रह्मणो विभुः। रात्रियुगसहस्रान्तां तेहोरात्रविदो जनाः। अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्य हरागमे। रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥ गी० ८। १७। १८॥
टिप्पणी
(तृ०) ‘स विश्वान् देवान्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
Over a thousand days (infinite in dimensions) are spread the wings of the will and action of the celestial Sun, saviour spirit and redeemer from the oppressions of life, which flies over and beyond the borders of time and space on the path of eternal freedom. Having taken over all divine forces of nature and humanity unto its heart, watching all worlds of existence, it flies on and on.
Translation
A thousand days journey are expanded the wings of him, of the yellow swan flying to heaven; he, putting all the gods in his breast, goes viewing together all existences. (See also Av. X.8.18)
Translation
The two wings-like wings periods (called winter solstice and sumar solstice, of this sun) are spreading. This sun takes away the water through its rays and moves in the space till Sahasrahnyam, one thousand chaturyugi, the four times period of four Yugas. (i. e. 4,32,00,00,000 years). That sun keeping all the shining rays on its breast and showing people all the worlds moves.
Translation
Both the wings of this Wise God, the Assuager of misery, the Possessor of the joy of salvation, are extended over unlimited time and place. Imbibing all divine virtues in Himself, He goes His way beholding every creature.
Footnote
Wings: Cause-and Effect. Matter is the cause, and the created world the effect. God watches the conduct of every creature, and giving him reward or punishment continues to create, sustain and dissolve the universe.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३८-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अथर्व० १०।८।१८। तत्रैव द्रष्टव्यः। (हंसस्य) वृतॄवदिवचिवसिहनि०। उ० ३।६२। हन हिंसागत्योः-स। ज्ञानिनो व्यापकस्य परमेश्वरस्य ॥
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