अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 28
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
0
अत॑न्द्रो या॒स्यन्ह॒रितो॒ यदास्था॒द्द्वे रू॒पे कृ॑णुते॒ रोच॑मानः। के॑तु॒मानु॒द्यन्त्सह॑मानो॒ रजां॑सि॒ विश्वा॑ आदित्य प्र॒वतो॒ वि भा॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठअत॑न्द्र: । या॒स्यन् । ह॒रित॑: । यत् । आ॒ऽअस्था॑त् । द्वे इति॑ । रू॒पे इति॑ । कृ॒णु॒ते॒ । रोच॑मान: । के॒तु॒ऽमान् । उ॒त्ऽयन् । सह॑मान: । रजां॑सि। विश्वा॑: । आ॒दि॒त्य॒: । प्र॒ऽवत॑:। वि । भा॒सि॒॥२.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
अतन्द्रो यास्यन्हरितो यदास्थाद्द्वे रूपे कृणुते रोचमानः। केतुमानुद्यन्त्सहमानो रजांसि विश्वा आदित्य प्रवतो वि भासि ॥
स्वर रहित पद पाठअतन्द्र: । यास्यन् । हरित: । यत् । आऽअस्थात् । द्वे इति । रूपे इति । कृणुते । रोचमान: । केतुऽमान् । उत्ऽयन् । सहमान: । रजांसि। विश्वा: । आदित्य: । प्रऽवत:। वि । भासि॥२.२८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जब (अतन्द्रः) निरालसी वह [परमेश्वर] (यास्यन्) चलने की इच्छा करनेवाला [होता है], वह (हरितः) आकर्षक दिशाओं में (आ-अस्थात्) आकर ठहरता है, (रोचमानः) प्रकाशमान वह [जगदीश्वर] (द्वे) दो (रूपे) रूप [जड़ और चेतन जगत्] को (कृणुते) बनाता है। (आदित्य) हे अखण्ड ! [परमेश्वर] (केतुमान्) ज्ञानवान् (उद्यन्) चढ़ता हुआ, और (रजांसि) लोकों को (सहमानः) जीतता हुआ तू (विश्वाः) सब (प्रवतः) आगे बढ़ने की क्रियाओं को (वि भासि) चमका देता है ॥२८॥
भावार्थ
बुद्धिमान् लोग खोज करके परमात्मा को प्रत्येक दिशा में व्यापक और सब सृष्टि का कर्ता साक्षात् करते हैं। मनुष्य उस जगदीश्वर की उपासना करके अपनी उन्नति का प्रयत्न करें ॥२८॥
टिप्पणी
२८−(अतन्द्रः) निरलसः परमेश्वरः (यास्यन्) यातुं गन्तुमिच्छन् (हरितः) आकर्षिकाः दिशाः (यत्) यदा (आस्थात्) लडर्थे लुङ्। आगत्य तिष्ठति (द्वे रूपे) जडचेतनरूपे जगती (कृणुते) सृजति (रोचमानः) प्रकाशमानः (केतुमान्) प्रज्ञावान् (उद्यन्) ऊर्ध्वो गच्छन् (सहमानः) पराजयन् (रजांसि) लोकान् (विश्वाः) सर्वाः (आदित्य) हे अविनाशिन् परमेश्वर (प्रवतः) प्रकृष्टगतिक्रियाः (वि) विविधम् (भासि) भासयसि। दीपयसि ॥
विषय
अतन्द्रः यास्यन्
पदार्थ
१.हे (आदित्य) = किरणों द्वारा जलों का आदान करनेवाले सूर्य! (यदा) = जब (अतन्द्रः यास्यन्) = तन्द्रा से रहित होकर गति की इच्छावाले आप (हरित: आस्थात्) = इन किरणरूप अश्वों पर अधिष्ठित होते हो तब (रोचमान:) = देदीप्यमान होते हुए आप (द्वे रूपे कृणुते) = दिन व रात्रि के दो रूपों को प्रकट करते हो। २. (केतुमान) = प्रकाश की किरणोंवाले (उद्यन्) = उदय होते हुए (विश्वा एनांसि सहमानः) = [रजस् Gloom, darkness] सब अन्धकारों को कुचलते हुए आप (प्रवत: विभासि) = [Delight, elevation] सब उच्च स्थानों को दीस करनेवाले होते हैं। उदय होते हुए सूर्य का प्रकाश सर्वप्रथम पर्वत शिखरादि उच्च स्थानों को ही प्रकाशमय करता है।
भावार्थ
सूर्य में तन्द्रा का नितान्त अभाव है। यह प्रकाशमय किरणों का अधिष्ठाता है। दिन व रात्रि का निर्माण करता हुआ यह उदित होता है तो अन्धकार का पराभव करके प्रारम्भ में ही शिखरों को दीस करनेवाला होता है। सूर्य की भाँति हमें भी तन्द्राशून्य गतिवाला बनना |
भाषार्थ
(अतन्द्रः) आलस्य रहित हुआ सूर्य, (यास्यन्) जाने के निमित्त, (यद्) जब (हरितः) पीली प्रभा वाले रश्मिरूपी अश्वों१ पर (आ अस्थात्) सवार होता है, तब (रोचमानः) प्रदीप्त हुआ (द्वे रूपे) दो रूपों अर्थात् दिन और रात्रि का (कृणुते) निर्माण करता है। (आदित्य) हे आदित्य ! (केतुमान्) किरणरूपी झण्डों से युक्त, (उद्यन्) उदय होता हुआ (विश्वा रजांसि) सब लोकों को (सहमानः) पराभूत करता हुआ, (प्रवतः) गहरी खाईयों को (वि भासि) तू विशेषतया प्रकाशित करता है।
टिप्पणी
[हरितः= सूर्य की रश्मियाँ पीत वर्ण की कही जाती हैं। द्वे रूपे= उदित हुआ सूर्य दिन का निर्माण करता और अस्त होकर रात्रि का निर्माण करता है। सहमानः= सूर्य उदित होता हुआ द्युलोक के सभी लोक-लोकान्तररूपी नक्षत्रों तथा ताराओं को पराभूत कर देता है, उन्हें प्रकाश रहित कर देता है। प्रवतः = खाइयां, दर्रे और घाटियां। यथा "यस्या उद्वतः प्रवतः समं बहु" (अथर्व० १२।१।२), अर्थात् जिस पृथिवी में ऊंचे-नीचे तथा समतल बहुत हैं]। [१. "हरित आदित्यस्य" (निघं० १।१५) तथा हरितोऽश्वानिति व (निरुक्त ४।२।१२)।]
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
हे (आदित्य) आदित्य ! आदित्य के समान तेजस्वी आत्मन् ! सूर्य जिस प्रकार (विश्वा रजांसि सहमानः) समस्त लोकों और धूलि पटलों को अपने तेज से दूर करता हुआ (केतुमान्) रश्मियों से युक्त होकर (प्रवतः) दूर से ही प्रकाशित होता है उसी प्रकार तू भी (विश्वा रजांसि) समस्त प्रकार के रजों, विकारों को (सहमानः) अपने तपोबल से दूर करता हुआ (उद्यन्) उनसे ऊपर उठता हुआ (केतुमान्) ज्ञानवान् होकर (प्रवतः) दूर से (विभासि) प्रकाशित होता, प्रसिद्ध होता है। और जिस प्रकार (अतन्द्रः) विना अस्त हुए सूर्य दिशाओं में गति करता है तो (द्वे रूपे कृणुते) दो रूप दिन और रात्रि के प्रगट करता है उसी प्रकार आदित्य योगी भी (अतन्द्रः) तन्द्रा रहित, आलस्य रहित होकर (यास्यन्) मोक्ष-मार्ग में गति करने की इच्छा करता हुआ (यदा) जब (हरितः) अपने हरणशील प्राणों को (आस्थात्) वश करता है तब (रोचमानः) अति प्रकाशमान होता हुआ (द्वे रूपे) दो रूपों को (कृणुते) प्रकट करता है। दो रूप = सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात, निर्बीज और सबीज।
टिप्पणी
(द्वि०) “दिवि रूपं कृणुषे रोचमानः” इति पैप्प० सं०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
Relentless, ever awake, ever on the move, when the Sun shines radiating its rays of light, the shining glory creates two forms of existence: the day where it shines and the night where it does not. O Aditya, imperishable Aditi’s own mutation as embodiment of light, commanding your banners of sun beams, overwhelming and crossing regions of the worlds in space, you shine over all places high or low from the heights of heaven.
Translation
Free from lassitude, desirous of travelling, when he mounts his golden horses, he, the glowing, takes two forms. O sun, rich in rays, when rising, you overcome all the worlds, and shine out in tempests.
Translation
This sun, without any fatigue or break, shining makes two forms-the day and night or the dawn and dusk when it moving towards quarters passes out them. This effulgent with rays, rising up, conquering all the worlds shines from high place.
Translation
When the Unwearied God, through His impelling force pervades the beautiful directions, He, the Refulgent, creates the animate and inanimate worlds. O Indivisible God, full of Knowledge, Exalted, controlling all the worlds. Thou shinest from afar!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२८−(अतन्द्रः) निरलसः परमेश्वरः (यास्यन्) यातुं गन्तुमिच्छन् (हरितः) आकर्षिकाः दिशाः (यत्) यदा (आस्थात्) लडर्थे लुङ्। आगत्य तिष्ठति (द्वे रूपे) जडचेतनरूपे जगती (कृणुते) सृजति (रोचमानः) प्रकाशमानः (केतुमान्) प्रज्ञावान् (उद्यन्) ऊर्ध्वो गच्छन् (सहमानः) पराजयन् (रजांसि) लोकान् (विश्वाः) सर्वाः (आदित्य) हे अविनाशिन् परमेश्वर (प्रवतः) प्रकृष्टगतिक्रियाः (वि) विविधम् (भासि) भासयसि। दीपयसि ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal