अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 25
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - ककुम्मत्यास्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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रोहि॑तो दिव॒मारु॑ह॒त्तप॑सा तप॒स्वी। स योनि॒मैति॒ स उ॑ जायते॒ पुनः॒ स दे॒वाना॒मधि॑पतिर्बभूव ॥
स्वर सहित पद पाठरोहि॑त: । दिव॑म् । आ । अ॒रु॒ह॒त् । तप॑सा । त॒प॒स्वी । स: । योनि॑म् । आ । ए॒ति॒ । स: । ऊं॒ इति॑ । जा॒य॒ते॒ । पुन॑: । स: । दे॒वाना॑म् । अधि॑ऽपति: । ब॒भू॒व॒ ॥२.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
रोहितो दिवमारुहत्तपसा तपस्वी। स योनिमैति स उ जायते पुनः स देवानामधिपतिर्बभूव ॥
स्वर रहित पद पाठरोहित: । दिवम् । आ । अरुहत् । तपसा । तपस्वी । स: । योनिम् । आ । एति । स: । ऊं इति । जायते । पुन: । स: । देवानाम् । अधिऽपति: । बभूव ॥२.२५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(तपस्वी) ऐश्वर्यवान् (रोहितः) सबका उत्पन्न करनेवाला [परमेश्वर] (तपसा) अपने सामर्थ्य से (दिवम्) प्रत्येक व्यवहार में (आ) सब ओर से (अरुहत्) प्रकट हुआ है। (सः) वह (योनिम्) प्रत्येक कारण [कारण के कारण] को (आ एति) प्राप्त होता है, (सः उ) वह ही (पुनः) फिर (जायते) बाहिर दीखता है, (सः) वही (देवानाम्) चलनेवाले लोकों का (अधिपतिः) बड़ा स्वामी (बभूव) हुआ है ॥२५॥
भावार्थ
परमेश्वर अपने सामर्थ्य से कारणों का आदि कारण होकर और बाहिर से भी सब कार्यरूप जगत् का नियन्ता बनकर सब लोकों का स्वामी है ॥२५॥
टिप्पणी
२५−(रोहितः) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः (दिवम्) प्रत्येकव्यवहारम् (आ) समन्तात् (अरुहत्) प्रादुरभवत् (तपसा) स्वसामर्थ्येन (तपस्वी) ऐश्वर्यवान् (योनिम्) कारणम् (आ) समन्तात् (एति) प्राप्नोति (सः) (उ) एव (जायते) प्रादुर्भवति (पुनः) पश्चात् (सः) (देवानाम्) गन्तॄणां लोकानाम् (अधिपतिः) सर्वस्वामी (बभूव) ॥
विषय
मोक्ष से पुनरावृत्ति
पदार्थ
१. (रोहित:) = प्रभु की उपासना से अपना वर्धन करनेवाला (तपस्वी) = तपोमय जीवनवाला साधक (तपसा) = तप के द्वारा (दिवं आरुहत्) = प्रकाशमय ब्रह्मलोक में-मोक्ष में आरोहरण करता है। मोक्षप्राप्ति के लिए तपस्या अत्यन्त आवश्यक है। भोगप्रधान जीवन के साथ मोक्ष का सम्बन्ध नहीं है। (सः) = वह तपस्वी (योनिम् आ एति) = अपने घर [ब्रह्मलोक] को सब प्रकार से प्राप्त होता है। इस घर में परान्तकाल तक निवास करके (स:) = वह (उ) = निश्चय से (पुन: जायते) = पुनः जन्म लेता है, शरीरधारण करके इस लोक में आता है। २. (स:) = वह (देवानां अधिपतिः बभूव) = दिव्यगुणों का स्वामी होता है। यह मोक्ष से लौटनेवाला व्यक्ति उत्तम दिव्यगुणसम्पन्न जीवनवाला होता है। स्वर्गच्युत व्यक्तियों के जीवन में 'दान-प्रसंग, मधुरवाणी, देवार्चन तथा ब्राह्मण-तर्पण' आदि उत्तम गुणों की स्थिति होती है। (स्वर्गच्युतानामिह भूमिलोके चत्वारि चिहानि वसन्ति देहे। दानप्रसको मधुरा च वाणी सुरार्चनं ब्रह्म तर्पणं च॥)|
भावार्थ
हम तपस्या के द्वारा उन्नत होते हुए मोक्ष प्राप्त करते हैं। परान्तकाल के पश्चात् पुनः यहाँ जन्म लेते हैं। उस समय हमारी वृत्ति दिव्यगुणसम्पन्न होती है।
भाषार्थ
(तपसा) उपासक के तप के द्वारा, (तपस्वी) ज्ञान रूप तप वाला (रोहितः) सर्वोपरि आरूढ़ परमेश्वर, (दिवम्) उपासक के शिरस्थ-सहस्रारचक्र पर (आरुहत्) आरूढ़ हुआ है। (सः) वह परमेश्वर (योनिम्) सहस्रारचक्र रूपी घर में (ऐति) आता है, (सः) वह निश्चय से (पुनः) बार-बार (जायते) प्रकट होता है। (सः) वह (देवानाम्) देवों का (अधिपतिः बभूव) अधिपति हुआ है।
टिप्पणी
[(दिवम् = " शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत") (यजु० ३१।१३) तथा "दिवं यश्चक्रे मूर्धानम्" (अथर्व० १०।७।३२) में सिर को द्यौः तथा दिवम् कहा है। (तपस्वी = "यस्य ज्ञानमयं तपः")(मुण्डक उप० १॥९)। योनि र्गृहनाम (निघं० ३।४)। देवानाम् = दिव्यकोटि के योगिजन तथा द्योतमान लोकलोकान्तर। मन्त्र का अभिप्राय यह है कि अभ्यासी के तपोमय जीवन पूर्वक योगाभ्यास की परिपक्व अवस्था में, ज्ञानस्वरूप परमेश्वर, योगी के शिरस्थ सहस्रार चक्र में प्रकट हो जाता है। सहस्रारचक्र परमेश्वर का मानो घर बन जाता है। योगी जब-जब सम्माधिस्थ हो कर परमेश्वर में ध्यान लगाता है, तब-तब उसे परमेश्वर का प्रत्यक्ष हो जाता है। इसे "पुनः जायते" द्वारा प्रकट किया है। ऐसे योगी की क्रियाओं और कर्मों का अधिपति-परमेश्वर प्रेरक होता है। सूर्य पक्ष में,- दिवम्= द्युलोक; तपसा तपस्वी= ताप द्वारा तपा हुआ; योनिम्= द्युलोक तथा जगद्योनि परमेश्वर अथवा प्रकृति; पुनः जायते = बार-बार उदित होता है, या प्रतिकल्प में पैदा होता है]।
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
(रोहितः) रोहित, तेजस्वी सूर्य के समान आत्मा (तपसा) तप से (तपस्वी) तपस्वी होकर (दिवम्) प्रकाशमान परमेश्वर या मोक्ष को (आरुहत्) प्राप्त होता है। वही पुनः (योनिम् एति) योनि या इस लोक या जन्म स्थान, मनुष्य आदि योनि को प्राप्त होता है। (सः उ पुनः जायते) वह ही पुनः पुनः, बार बार उत्पन्न होता है (सः) वह ही (देवानाम्) ग्राह्य विषयों में क्रीड़ा करने वाले प्राणों का (अधिपतिः) स्वामी (बभूव) होता है। परमात्मा पक्ष में—रोहित सर्वोत्पादक, परमेश्वर अपने तप से तपस्वी है। वह (योनिम्) योनि प्रकृति को प्राप्त होकर जगत् का प्रादुर्भाव करता है और समस्त अग्नि ‘वायु’ आदि देवों का स्वामी हो रहता है।
टिप्पणी
(प्र०) ‘दिवमाक्रमीत्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
Rohita, self-refulgent light of life, the Sun, burning and blazing with its own creative and energising light and warmth of life, rises to the heavenly heights of the universe. It rises to the origin of all originative causes, takes its own self manifestive birth with things born again and again, and still remains the same highest ordainer of the divine forces of nature and noble humanity.
Translation
The austere ascending one ascends to heaven by his austerity. He comes to the womb therefrom. Ofcourse, he is born again. He becomes the overlord of the bounties of Nature.
Translation
The sun hot with heat has mounted on the heavenly region. It comes to its birth-place and rises up again. It is the controlling power of all the luminaries.
Translation
The brilliant soul, devout, aflame through austerity marches on to salvation. It returns to its birth place. It is born again and again. It has become the ruler of vital breaths.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२५−(रोहितः) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः (दिवम्) प्रत्येकव्यवहारम् (आ) समन्तात् (अरुहत्) प्रादुरभवत् (तपसा) स्वसामर्थ्येन (तपस्वी) ऐश्वर्यवान् (योनिम्) कारणम् (आ) समन्तात् (एति) प्राप्नोति (सः) (उ) एव (जायते) प्रादुर्भवति (पुनः) पश्चात् (सः) (देवानाम्) गन्तॄणां लोकानाम् (अधिपतिः) सर्वस्वामी (बभूव) ॥
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