अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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वि॑प॒श्चितं॑ त॒रणिं॒ भ्राज॑मानं॒ वह॑न्ति॒ यं ह॒रितः॑ स॒प्त ब॒ह्वीः। स्रु॒ताद्यमत्त्रि॒र्दिव॑मुन्नि॒नाय॒ तं त्वा॑ पश्यन्ति परि॒यान्त॑मा॒जिम् ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒प॒:ऽचित॑म् । त॒रणि॑म् । भ्राज॑मानम् । वह॑न्ति । यम् । ह॒रित॑: । स॒प्त । ब॒ह्वी: । स्रु॒तात् । यम् । अत्त्रि॑: । दिव॑म् । उ॒त्ऽनि॒नाय॑ । तम् । त्वा॒ । प॒श्य॒न्ति॒ । प॒रि॒ऽयान्त॑म् । आ॒जिम् ॥2.४॥
स्वर रहित मन्त्र
विपश्चितं तरणिं भ्राजमानं वहन्ति यं हरितः सप्त बह्वीः। स्रुताद्यमत्त्रिर्दिवमुन्निनाय तं त्वा पश्यन्ति परियान्तमाजिम् ॥
स्वर रहित पद पाठविप:ऽचितम् । तरणिम् । भ्राजमानम् । वहन्ति । यम् । हरित: । सप्त । बह्वी: । स्रुतात् । यम् । अत्त्रि: । दिवम् । उत्ऽनिनाय । तम् । त्वा । पश्यन्ति । परिऽयान्तम् । आजिम् ॥2.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(यम्) जिस (विपश्चितम्) विविध प्रकार [पार्थिव रस] एकत्र करनेवाले (भ्राजमानम्) प्रकाशमान, (तरणिम्) [अन्धकार से] पार करनेवाले सूर्य को (सप्त) सात [शुक्ल, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश, चित्र वर्णवाली] (बह्वीः) बहुत [भिन्न-भिन्न प्रकारवाली] (हरितः) आकर्षक किरणें (वहन्ति) ले चलती हैं। (यम्) जिस [सूर्य] को (अत्रिः) नित्यज्ञानी [परमात्मा] ने (स्रुतात्) बहते हुए [प्रकृतिरूप समुद्र] से (दिवम्) आकाश में (उन्निनाय) ऊँचा किया है, (तम् त्वा) उसे तुझ [सूर्य] को (आजिम्) मर्यादा पर (परियान्तम्) सर्वथा चलता हुआ (पश्यन्ति) वे [विद्वान्] देखते हैं ॥४॥
भावार्थ
जिस परमात्मा ने प्रलय के पीछे अनेक लोकों के धारक आकर्षक सूर्य को रचकर दृढ़ता से आकाश में चलाया है, विद्वान् लोग परमेश्वर की उस बड़ी महिमा को विचार कर वैदिक मार्ग पर दृढ़ होकर चलते हैं ॥४॥इस मन्त्र से मन्त्र २४ तक सूर्य का वर्णन करके परमेश्वर की महिमा का वर्णन किया है। मन्त्र २४ की टिप्पणी देखो ॥
टिप्पणी
४−(विपश्चितम्) वि+प्र+चिञ् चयने-क्विप्, तुक्। पार्थिवरसानां विविधं चयनशीलम् (तरणिम्) अन्धकारात् तारकं सूर्यम् (भ्राजमानम्) प्रकाशमानम् (वहन्ति) गमयन्ति (यम्) (हरितः) हृसृरुहियुषिभ्य इतिः। उ० १।९७। हृञ् प्रापणस्वीकारस्तेयनाशनेषु-इति प्रत्ययः। हरित आदित्यस्याऽऽदिष्टोपयोजनानि-निघ० १।१५। रसाकर्षकाः किरणाः (सप्त) शुक्लनीलपीतरक्तहरितकपिशचित्ररूपयुक्ताः (बह्वीः) बह्व्यः। अनेकविधाः (स्रुतात्) स्रवणशीलात् प्रकृतिरूपसमुद्रात् (यम्) (अत्रिः) अदेस्त्रिनिश्च। उ० ४।६८। अत सातत्यगमने−त्रिप्। सदाज्ञानवान् परमात्मा। (दिवम्) आकाशम् (उन्निनाय) उन्नतवान् (तम्) (त्वा) (पश्यन्ति) अवलोकयन्ति विद्वांसः (परियान्तम्) परितो गच्छन्तम् (आजिम्) अज्यतिभ्यां च। उ० ४।१३१। अज गतिक्षेपणयोः-इण्। मर्यादाम्। संग्रामम् ॥
विषय
'आजिम् परियान्तम्' [सूर्यम्]
पदार्थ
१.(विपश्चितम्) = सबको देखनेवाले (तरणिम्) = अन्धकार से तरानेवाले (भ्राजमानम्) = देदीप्यमान (यम्) = जिस सूर्य को (सप्त बह्वी: हरित:) = सात रंगोंवाली अनेक किरणें (वहन्ति) = सर्वत्र प्रास कराती हैं, (यम्) = जिसको (अत्रि:) = [अ अत्रि] त्रिगुणातीत प्रभु स्(त्रुतात्) = सुत के हेतु से-आकाश से वृष्टि जल के वर्षण के हेतु से (दिवम् उन्निनाय) = द्युलोक में प्राप्त कराते हैं, (तं त्वा) = उस तुझ सूर्य को (आजिम् परियान्तम्) = [race-course, road-way] मार्ग पर गति करते हुए को (पश्यन्ति) = ज्ञानी लोग देखते हैं। २. ज्ञानी पुरुष सूर्य में प्रभु की महिमा को देखते हुए आश्चर्य करते हैं कि [क] किस प्रकार यह दीप्त सुर्य करोड़ों किलोमीटरों तक अन्धकार को समाप्त कर देता है, [ख] इसकी सात रंगों में विभक्त अनन्त किरणें किस प्रकार विविध प्राणशक्तियों का हममें संचार कर रही हैं, [ग] किस प्रकार यह सूर्य दृष्टि का हेतु बनकर सब अन्नों का उत्पादक बनता है, [घ] किस प्रकार यह सूर्य अपने मार्ग पर आकृष्ट लोकसमूह के साथ आगे बढ़ रहा है।
भावार्थ
ज्ञानी पुरुष मार्ग पर आगे बढ़ते हुए अपने प्रकाश से अन्धकार को दूर करते हए सप्त वर्ण की किरणों से प्राणदायी तत्वों का संचार करते हुए वृष्टि का हेतु बनते हुए सूर्य को देखते हैं और प्रभु की महिमा का स्मरण करते हैं।
भाषार्थ
(बह्वीः) बड़ी (सप्त१ हरितः) सात या फैली हुई रश्मियां (यम्) जिस (भ्राजमानम्) चमकते हुए, (विपश्चितम्) मेधावी परमेश्वर द्वारा चिने हुए, (तरणिम्) रात्रि के अन्धकार नद से तैराने वाले सूर्य को (वहन्ति) ले जाती हैं, (यम्) और जिसे (अत्त्रिः) अत्त्रि (स्रुतात्) द्रवावस्था से निकाल कर (दिवम् उन्निनाय) ऊपर द्युलोक में लाया, (तं त्वा) उस तुझ को (आजिम् परियान्तम्) मानो संग्राम की ओर जाते हुए को, (पश्यन्ति) देखते हैं। आजौ संग्रामनाम (निघं० २।१७)।
टिप्पणी
[विपश्चितम् = विपः मेधाविनाम (निघं० ३।१५) + चितम् (चिञ् चयने)]। चिनी हुई वस्तु स्वयं गति नहीं करती, वह निश्चल होती है। इस द्वारा दर्शाया है कि सूर्य निश्चल है, ध्रुव है। अन्यत्र कहा भी है "एक पादं नोत्खिदति सलिलाद्धंस उच्चरन्" (अथर्व० ११।४।२१), अर्थात् हंस (सूर्य) अपने एक पैर को उखाड़ता नहीं, जमाए रखता है। तरणिम् = वह नौकारूप है जो कि प्रत्यक्षत द्यु-समुद्र में तैरती हुई, पूर्व से पश्चिम तक जाती दीखती है। इसे ले जाने वाले सप्तरंगी महाबली सात अश्व हैं। सूर्य की शुभ्र रश्मि, सात रंगों वाली ७ किरणों के परस्पर मिश्रण द्वारा निर्मित होती है। ये सप्तविध किरणें वर्षर्तु में इन्द्रधनुष् में दीखती हैं। अत्त्रि= चराचर जगत् का "अत्ता"२ अर्थात् खाने वाला परमेश्वर। विराट् अर्थात् आग्नेय अवस्था से जब जगत् की स्रुतावस्था अर्थात् द्रवावस्था आई, तब उस द्रवावस्था से अत्त्रि ने सूर्य को पृथक् कर उसे द्युलोक में स्थापित किया। विराट्-अवस्था तेजोमयी अवस्था है, तत्पश्चात् स्रुतावस्था आती है। "ततोविराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः । स जातोऽअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥" (यजु० ३१।५)। "अतिअरिच्यत" द्वारा जगत् की अति विरेचनावस्था अर्थात् द्रवावस्था सूचित की है। सूर्य के सम्बन्ध में कहा है कि वह मानो संग्राम में जाता है- अन्धकार के साथ युद्ध करने के लिये। मन्त्र वर्णन कवितामय है। अत्त्रिः३ = अद भक्षणे। परमेश्वर प्रलयवस्था में जगत् का भक्षण करता है। मन्त्र में अत्त्रि के वर्णन द्वारा मन्त्रवर्णन अध्यात्मरूप हुआ है। अत्त्रिः (१३।२।१२;३६ तथा १३।३।१५)। स्रुतात् = स्रु (गतौ) + क्तः। गति सूचक है द्रवावस्था का]। [१. सप्त = "सृप्ता संख्या" तथा "सप्तपुत्रम्= सर्पणपुत्रमिति वा" (नियुक्त ४।४।२६)। २. वेदान्त (१।२।९)। परमेश्वर को "अन्नाद" भी कहा है (अथर्व ० १३।३।७)। ३. अत्त्रिः= अद् +त्रिः (त्रैङ् पालने)। परमेश्वर प्रलयावस्था में जगत् का "अद्" भक्षण करता, और सर्गावस्था में जगत् का त्राण करता है। अद् + त्र + इनि:।]
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
(बह्वीः) नाना संख्या वाली या बड़ी बड़ी (सप्त) सात दिशाएं जिस प्रकार सूर्य को धारण करती हैं उसी प्रकार सात (हरितः) हरण करने वाली प्राण वृत्तियां (यं वहन्ति) जिस आत्मा को वहन या धारण करती हैं और (यम्) जिसको (अत्त्रिः) सर्वव्यापक सर्व जगत् को अपने में लीन करने हारा (स्रुताद्) प्रस्रवण-शील, गतिशील संसार से (दिवम्) धौलोक, मोक्ष में (उत् निनाय) ले जाता है (तं) उस (त्वा) तुझे (विपश्चितम्) ज्ञान, कर्म के संचय करने-हारे (तरणिम्) संसार को पार करने वाले, मुक्त (भ्राजमानम्) अति देदीप्यमान तेजस्वी आत्मा को विद्वान् लोग अपना (आजिम्) प्राप्त करने योग्य चरम-सीमा स्वरूप परब्रह्म के प्रति (परियान्तम्) गमन करते हुए (पश्यन्ति) साक्षात् दर्शन करते हैं।
टिप्पणी
(तृ० च०) ‘स्रुताद्दिव मत्रिदिवमन्यनाय तं त्वा पश्येम पर्यन्तिमाजिम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
We celebrate the Sun, all-watching, all saving, glorious blazing, whom seven abundant lights irradiate over all quarters of space, whom Attri, Lord omnipotent, free from the three limitations of space, time and mutability, raised from the cosmic ocean of particles to heaven, where, O refulgent Sun, people see you moving in your orbit, victorious in your warlike mission.
Translation
They behold you racing along your course — you, who are wise, victorious, and blazing; whom seven excellent golden coursers carry; whom the enjoyer (Atri) has conducted up from the flood to the sky. -
Translation
The people of the world behold this sun moving round on its axis. It is that to which the seven great rays carry, which is brilliantly shining, which supports and moves the other bodies (af) and which is the means of Yajna (Vipashchit). The all-consuming fire has raised it from water to heavenly domain.
Translation
Just as seven different hued rays carry the Sun, so vital breaths support the soul. The Wise God lifts the soul from the earth to the state of emancipation. The learned behold thee. O soul, marching towards God, as an embodiment of knowledge and action, as emancipated and radiant!
Footnote
Griffith translates Atri as a celebrated Rishi, said to have been thrown into a fiery pit by the Asuras. This explanation is unacceptable, as there is.no history in the Vedas. The word means God. Seven rays: Violet, indigo, brown, green, yellow, orange, red.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(विपश्चितम्) वि+प्र+चिञ् चयने-क्विप्, तुक्। पार्थिवरसानां विविधं चयनशीलम् (तरणिम्) अन्धकारात् तारकं सूर्यम् (भ्राजमानम्) प्रकाशमानम् (वहन्ति) गमयन्ति (यम्) (हरितः) हृसृरुहियुषिभ्य इतिः। उ० १।९७। हृञ् प्रापणस्वीकारस्तेयनाशनेषु-इति प्रत्ययः। हरित आदित्यस्याऽऽदिष्टोपयोजनानि-निघ० १।१५। रसाकर्षकाः किरणाः (सप्त) शुक्लनीलपीतरक्तहरितकपिशचित्ररूपयुक्ताः (बह्वीः) बह्व्यः। अनेकविधाः (स्रुतात्) स्रवणशीलात् प्रकृतिरूपसमुद्रात् (यम्) (अत्रिः) अदेस्त्रिनिश्च। उ० ४।६८। अत सातत्यगमने−त्रिप्। सदाज्ञानवान् परमात्मा। (दिवम्) आकाशम् (उन्निनाय) उन्नतवान् (तम्) (त्वा) (पश्यन्ति) अवलोकयन्ति विद्वांसः (परियान्तम्) परितो गच्छन्तम् (आजिम्) अज्यतिभ्यां च। उ० ४।१३१। अज गतिक्षेपणयोः-इण्। मर्यादाम्। संग्रामम् ॥
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