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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 40
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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    रोहि॑तो लो॒को अ॑भव॒द्रोहि॒तोऽत्य॑तप॒द्दिव॑म्। रोहि॑तो र॒श्मिभि॒र्भूमिं॑ समु॒द्रमनु॒ सं च॑रत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रोहि॑त: । लो॒क: । अ॒भ॒व॒त् । रोहि॑त: । अति॑ । अ॒त॒प॒त् । दिव॑म् । रोहि॑त: । र॒श्मिऽभि॑: । भूमि॑म् । स॒मु॒द्रम् । अनु॑ । सम् । च॒र॒त् ॥२.४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रोहितो लोको अभवद्रोहितोऽत्यतपद्दिवम्। रोहितो रश्मिभिर्भूमिं समुद्रमनु सं चरत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रोहित: । लोक: । अभवत् । रोहित: । अति । अतपत् । दिवम् । रोहित: । रश्मिऽभि: । भूमिम् । समुद्रम् । अनु । सम् । चरत् ॥२.४०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 40
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    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (रोहितः) सर्वजनक [परमेश्वर] (लोकः) लोकोंवाला [सब लोकों का स्वामी] (अभवत्) हुआ, (रोहितः) सर्वोत्पादक [ईश्वर] ने (दिवम्) सूर्य को (अति) अत्यन्त करके (अतपत्) तापवाला किया। (रोहितः) सर्वस्रष्टा [ईश्वर] ने (रश्मिभिः) [सूर्य की] किरणों से (भूमिम्) भूमि और (समुद्रम्) अन्तरिक्ष [आकाशस्थ चन्द्र तारागण आदि लोकसमूह] को (अनु) अनुकूलता से (सं चरत्) संचारवाला किया ॥४०॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने सब लोकों का स्वामी होकर सूर्य द्वारा उन में ताप पहुँचाकर उनमें घूमने और चलने की शक्ति दी है ॥४०॥

    टिप्पणी

    ४०−(रोहितः) सर्वोत्पादकः (लोकः) लोक-अर्शआद्यच्। लोकवान्। सर्वलोकस्वामी (अभवत्) (रोहितः) (अति) अत्यन्तम् (अतपत्) तापवन्तं कृतवान् (दिवम्) सूर्यम् (रोहितः) (रश्मिभिः) सूर्यकिरणैः (भूमिम्) (समुद्रम्) अन्तरिक्षम्-निघ० १।३। (अनु) आनुकूल्येन (सम्) सम्यक् (चरत्) अडभावः, अन्तर्गतण्यर्थः। अचरत्। अचारयत्। चालितवान् ॥

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    विषय

    प्रकाशक प्रभु

    पदार्थ

    १. (रोहित:) = वे सदा से वृद्ध (लोकः अभवत्) = लोक है, प्रकाश हैं। (रोहित:) = ये रोहित प्रभु ही (दिवं अति अतपत्) = द्युलोकस्थ सूर्य को अतिशेयन दीस करते हैं। प्रभु की दीसि से ही सूर्य दीस है। २. (रोहित:) = वे सदावृद्ध प्रभु ही (रश्मिभिः) = अपनी प्रकाश की किरणों से (भूमिं समुद्रम्) = इस भूमि व अन्तरिक्ष का (अनु संचरत्) = लक्ष्य करके गति करनेवाले होते हैं। प्रभु ही सब सूर्यचक्र व नक्षत्रों को प्रकाश प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु ही लोक हैं। वे रोहित प्रभु ही सूर्यादि को दीस कर रहे हैं।

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    भाषार्थ

    (रोहितः) रोहित (लोकः) लोक (अभवत्) हुआ, (रोहितः) रोहित ने (दिवम्) द्युलोक को (अत्यतपत्) अति तपाया। (रोहितः) रोहित (रश्मिभिः) निज रश्मियों द्वारा (भूमिं समुद्रम् अनु) भूमि और समुद्र में (सं चरत्) संचार करता है विचरता है।

    टिप्पणी

    [लोकः = सूर्य से फट कर सौर लोक (परिवार) बना है, मानो सूर्य "सौर लोक (परिवार) रूप हो गया है। परमेश्वर पक्ष में परमेश्वर आलोक१ अर्थात् प्रकाशवान् या दर्शनीय हुआ है। प्रलयकाल में परमेश्वर का प्रकाश अनुभूत नहीं होता। सृष्टि की उत्पत्ति होने पर उस के प्रकाश की अनुभूति होती है। परमेश्वर तो भूमि, समुद्र में निज व्याप्ति से संचार कर रहा है]।[१. "प्रथो वरो व्यचो लोक इति त्वोपास्महे वयम् ॥(अथर्व० १३।४।५३)। लोकः= दर्शनीयः, लोकृ दर्शने।]

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    विषय

    रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।

    भावार्थ

    (रोहितः) रोहित ही (लोकः अभवत्) यह दृश्यमाण जगत् समस्त पदार्थों का दर्शक लोक है अर्थात् यह उसी की शक्ति का विकास है। (रोहितः) वह सर्वोत्पादक ही (दिवम्) सूर्य का (अति अतपत्) अति तीव्रता से तपाता है। (रोहितः) ‘रोहित’ ही सूर्य के समान (रश्मिभिः) अपनी शक्तिमय रश्मियों से (भूमिम् समुद्रम् अनु) भूमि और समुद्र पर भी (अनु संचरत्) विचरता है, नाना प्रकार से प्रकट होता है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘रोहितो भूतो भवत्’ (तृ०) ‘भूम्यम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Rohita is the world in existence as the sun is itself the earthly world, Rohita gives the light and fire to the solar region, and Rohita radiates over earth and the seas with its rays.

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    Translation

    The ascendant Lord has become the world. The ascendant Lord has heated the sky. The ascendant Lord with His rays moves along the earth and the ocean.

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    Translation

    The sun is Loka, the light-house. The sun heats the heaven. The sun through its beams travels the earth and ocean.

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    Translation

    God is the Lord of all worlds. God gave the Sun its intense heat. God, through His manifold forces has set in motion the Earth, Moon, and Planets in space.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४०−(रोहितः) सर्वोत्पादकः (लोकः) लोक-अर्शआद्यच्। लोकवान्। सर्वलोकस्वामी (अभवत्) (रोहितः) (अति) अत्यन्तम् (अतपत्) तापवन्तं कृतवान् (दिवम्) सूर्यम् (रोहितः) (रश्मिभिः) सूर्यकिरणैः (भूमिम्) (समुद्रम्) अन्तरिक्षम्-निघ० १।३। (अनु) आनुकूल्येन (सम्) सम्यक् (चरत्) अडभावः, अन्तर्गतण्यर्थः। अचरत्। अचारयत्। चालितवान् ॥

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