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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - एकपदोष्णिक् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    तंय॑ज्ञाय॒ज्ञियं॑ च॒ वा॑मदे॒व्यं च॑ य॒ज्ञश्च॒ यज॑मानश्चप॒शव॑श्चानु॒व्यचलन्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । य॒ज्ञा॒य॒ज्ञिय॑म् । च॒ । वा॒म॒ऽदे॒व्यम् । च॒ । य॒ज्ञ: । च॒ । यज॑मान: । च॒ । प॒शव॑: । च॒ । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलन् ॥२.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तंयज्ञायज्ञियं च वामदेव्यं च यज्ञश्च यजमानश्चपशवश्चानुव्यचलन्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । यज्ञायज्ञियम् । च । वामऽदेव्यम् । च । यज्ञ: । च । यजमान: । च । पशव: । च । अनुऽव्यचलन् ॥२.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (यज्ञायज्ञियम्) सबयज्ञों का हितकारी [वेदज्ञान] (च च) और (वामदेव्यम्) वामदेव [श्रेष्ठ परमात्मा]से जताया गया [भूतपञ्चक] (च) और (यज्ञः) यज्ञ [पूजनीय व्यवहार] (च) और (यजमानः)यजमान [पूजनीय व्यवहार करनेवाला पुरुष] (च) और (पशवः) सब जीव-जन्तु (तम्) उस [परमात्मा] के (अनुव्यचलन्) पीछे-पीछे विचरे ॥१–०॥

    भावार्थ

    सब ऋग्वेद आदि वेदपृथिवी आदि पञ्चभूत, सद्व्यवहार और सत्कर्मी पुरुष और सब प्राणी परमात्मा केअनुशासनगामी हैं ॥१–०॥

    टिप्पणी

    १–०−(तम्) व्रात्यं परमात्मानम् (यज्ञायज्ञियम्) अ०८।१०(२)।६। यज्ञायज्ञ-घ प्रत्ययः। सर्वेभ्यो यज्ञेभ्यो हितं वेदज्ञानम् (च) (वामदेव्यम्) अ० ४।३४।१। वामदेवाड् ड्यड्ड्यौ। पा० ४।२।९। वामदेव-ड्य। वामदेवेनश्रेष्ठपरमेश्वरेण विज्ञापितं पृथिव्यादिभूतपञ्चकम् (च) (यज्ञः) पूजनीयव्यवहारः (च) (यजमानः) पूजनीयव्यवहारकर्ता (च) (पशवः) जन्तवः-निरु० ११।२९। (अनुव्यचलन्)अनुसृत्य विचरितवन्तः ॥

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    विषय

    दक्षिणा दिक् में 'यज्ञायज्ञिय वामदेव्य यज्ञ यज्ञमान व पशुओं' की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (स:) = वह व्रात्य (उदतिष्ठत्) = उठता है। आलस्य को छोड़कर आगे बढ़ता हुआ (सः) = वह (दक्षिणां दिशम्) = नैपुण्य की दिशा को (अनुव्यचलत्) = अनुक्रमेण प्राप्त होता है, किसी भी क्षेत्र में निरन्तर आगे बढ़ता हुआ वह बड़ा निपुण बन जाता है। २. (तम्) = उस नैपुण्यप्राप्त व्रात्य को (यज्ञायज्ञियं च) = [सर्वेभ्यो यज्ञेभ्यः हितकरं वेदज्ञानम्] सब यज्ञों के लिए हितकर वेदज्ञान, (वामदेव्यं च) = सुन्दर, दिव्यगुणों [वाम lovely] के लिए हितकर प्रभु-स्तवन, (यज्ञ: च) = श्रेष्ठतम कर्म, (यजमाना: च) = यज्ञशील पुरुष (च) = तथा (पशवः) = यज्ञघृत को प्राप्त कराने के लिए आवश्यक गवादि पशु (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त होते हैं। उसके अनुकूल गतिवाले होते हैं। ३. (सः) = वह प्रात्य विद्वान् (वै) = निश्चय से (यज्ञायज्ञियाय च) = यज्ञों के लिए हितकर वेदज्ञान के लिए, (वामदेव्याय च) = सुन्दर, दिव्यगुणों के लिए हितकर प्रभु-स्तवन के लिए, (यज्ञाय च) = यज्ञ के लिए, यजमानाय च यज्ञशील पुरुष की प्राप्ति के लिए, (पशुभ्यः च) = गवादि पशुओं की प्राप्ति के लिए (आवृश्चते) = समन्तात् वासनारूप शत्रुओं का छेदन करता है। वह व्यक्ति भी ऐसा ही करता है, (यः) = जो (एवम्) = इसप्रकार (विद्वांसं व्रात्यं उपवदति) = ज्ञानी व्रतीपुरुष के समीप इसीप्रकार ज्ञानचर्चा करता है। ४. यह वासनारूप शत्रुओं का छेदन करनेवाला पुरुष (वै) = निश्चय से (यज्ञायजिस्य च) = यज्ञों के लिए हितकर वेदज्ञान का (वामदेवस्य च) = सुन्दर, दिव्यगुणों के लिए हितकर प्रभु स्तवन का (यज्ञस्य च) = यज्ञ का, (यजमानस्य च) = यज्ञशील पुरुषों का, (पशूनां च) = यज्ञ का घृत प्राप्त करानेवाले गवादि पशुओं का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय स्थान बनता है-ये सब इसे प्राप्त होते हैं, (तस्य) = उस विद्वान् व्रात्य के जीवन में (दक्षिणां दिशि) = दक्षिण दिशा में 'यज्ञायज्ञीय, वामदेव्य, यज्ञ, यजमान, पशु' जीवन के साथी बनते हैं।

    भावार्थ

    यह विद्वान् व्रात्य आलस्य को छोड़कर आगे बढ़ता हुआ नैपुण्य को प्राप्त करता है तो वह 'यज्ञों के लिए हितकर वेदज्ञान को, दिव्यगुणोत्पादक प्रभु-स्तवन को, यज्ञों को, यज्ञमानों व पशुओं' को प्राप्त करता है।

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    भाषार्थ

    (तम, अनु) उस के साथ-साथ या पीछे-पीछे (यज्ञायज्ञियस् च) यज्ञायज्ञियनामक सामगान, और (वामदेव्यम्, च) वामदेव्य नामक सामगान, (यज्ञः, च) और यज्ञ (यजमानः च) तथा यजमान, (पशवः, च) और पशु (व्यचलन्) चले।

    टिप्पणी

    [यज्ञायज्ञिय तथा वामदेव्य सामगान, दक्षिण दिशा के जलवायु तथा ऋतु के अनुकूल प्रतीत होते हैं। यज्ञ के लिये घृतादि चाहिये, इस-लिये गौ-पशु की भी आवश्यकता है। पृथिवी का दक्षिण भाग समुद्रप्रायः है। अतः वहां की वायु अधिक जलवाली होने के कारण, तथा वहां की संलग्न भूमि में जलाधिक्य के कारण, मलेरिया आदि रोगों, तथा कफ प्रधान रोगों की सम्भावना रहती है। तदर्थ यज्ञों की आवश्यकता है, और यजमानों की भी। यज्ञों द्वारा रोगों का निवारण होता है।]

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    विषय

    व्रत्य प्रजापति का वर्णन।

    भावार्थ

    (तम् यज्ञायज्ञियं च वामदेव्यं च यज्ञः च, यजमानः च पशवः च अनुव्यचलन्) उसके पीछे यज्ञायज्ञिय, वामदेव्य, यज्ञ, यजमान और पशु भी चले॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Him followed yajnayajniyam Samans, Vamadevya Samans, yajna, yajamana, animals, all watchfuls followed simultaneously.

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    Translation

    The yajnayajnia saman and the Vamadevya Saman, the sacrifice, and the sacrificer and the cattle started following him.

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    Translation

    The Yajnayajniya, Vamadevya, Saman, Yajna and the performermer of Yajna and animals follow him.

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    Translation

    The Vedic knowledge, the five elements created by god (vamdeva), noble conduct, the performer of noble deeds, all living beings work under His control.

    Footnote

    Five elements: Earth, Air, Water, Fire, Atmosphere.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १–०−(तम्) व्रात्यं परमात्मानम् (यज्ञायज्ञियम्) अ०८।१०(२)।६। यज्ञायज्ञ-घ प्रत्ययः। सर्वेभ्यो यज्ञेभ्यो हितं वेदज्ञानम् (च) (वामदेव्यम्) अ० ४।३४।१। वामदेवाड् ड्यड्ड्यौ। पा० ४।२।९। वामदेव-ड्य। वामदेवेनश्रेष्ठपरमेश्वरेण विज्ञापितं पृथिव्यादिभूतपञ्चकम् (च) (यज्ञः) पूजनीयव्यवहारः (च) (यजमानः) पूजनीयव्यवहारकर्ता (च) (पशवः) जन्तवः-निरु० ११।२९। (अनुव्यचलन्)अनुसृत्य विचरितवन्तः ॥

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