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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 22
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - साम्नी त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    तं श्यै॒तं च॑नौध॒सं च॑ सप्त॒र्षय॑श्च॒ सोम॑श्च॒ राजा॑नु॒व्यचलन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । श्यै॒तम् । च॒ । नौ॒ध॒सम् । च॒ । स॒प्त॒ऽऋ॒षय॑: । च॒ । सोम॑:। च॒ । राजा॑ । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलन् ॥२.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं श्यैतं चनौधसं च सप्तर्षयश्च सोमश्च राजानुव्यचलन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । श्यैतम् । च । नौधसम् । च । सप्तऽऋषय: । च । सोम:। च । राजा । अनुऽव्यचलन् ॥२.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 22
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (श्यैतम्) श्यैत [सद्गति बतानेवाले वेदज्ञान] (च च) और (नौधसम्) नौधस [ऋषियों का हितकारीमोक्षज्ञान] (च) और (सप्तर्षयः) सात ऋषि [छह इन्द्रियाँ औरसातवीं बुद्धिअर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] (च) और (राजा) राजा [ऐश्वर्यवान्] (सोमः) प्रेरक मनुष्य (तम्) उस [व्रात्य परमात्मा] के (अनुव्यचलन्) पीछे-पीछे चले ॥२२॥

    भावार्थ

    मनुष्य वेदज्ञान सेपरमात्मा का ज्ञान प्राप्त करके इन्द्रियों और आत्मा की शक्तियों को बढ़ाता हुआपरमेश्वर के आश्रय से बढ़ती करता जावे ॥२२॥

    टिप्पणी

    २२−(तम्) व्रात्यम् (श्यैतम्)हृश्याभ्यामितन्। उ० ३।९३। श्यैङ् गतौ-इतन्, श्येत-अण्। श्येतस्य सद्गतेःप्रतिपादकं वेदज्ञानम् (च) (नौधसम्) नुवो धुट् च। उ० ४।२२६। णु स्तुतौ-असि, धुट्च, यद्वा गमेर्डोः। उ० २।६७। नौतेर्डो प्रत्ययः+डुधाञ्-असि, नोधस्-अण्। नोधाऋषिर्भवति नवनं दधाति-निरु० ४।१६। ऋषीणां हितकरं मोक्षज्ञानम् (च) (सप्तर्षयः)अ० ४।११।९। सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे। यजु० ३४।५५। सप्त ऋषयः षडिन्द्रियाणिविद्या सप्तमी-निरु० १२।३७। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयः (च) (सोमः)प्रेरको मनुष्यः (च) (राजा) ऐश्वर्यवान् (अनुव्यचलन्) अनुसृत्य विचरितवन्तः ॥

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    विषय

    उदीची दिशा में 'श्यैत, नौधस, सप्तर्षि, सोम राजा'

    पदार्थ

    १. (स:) = वह व्रात्य (उदतिष्ठत्) = आलस्य छोड़कर उठ खड़ा हुआ और (स:) = वह इन्द्रियों को विषयों से व्यावृत्त करके (उदीचीं दिशं अनुव्यचलत्) = उत्तर दिशा की ओर-उन्नति की ओर क्रमश: चला। २. (तम्) = उन्नति की दिशा में चलते हुए उसको (श्यैतं च) = [श्यै गतौ] गतिशीलता (नौधसं च) = [नौधा ऋषिर्भवति भवनं दधाति-नि०] प्रभु-स्तवन, (सप्तर्षयः च) = 'दो कान, दो औंखें, दो नासिका-छिद्र व मुख' रूप सप्तर्षयः और राजा (सोमः) = जीवन को दीस बनानेवाला सोम [वीर्यशक्ति]-ये सब (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुए। ३. (स:) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से (श्यैताय च) = गतिशीलता के लिए (नौधसाय च) = प्रभु-स्तवन के लिए, (सप्तर्षभ्यः च) = कान आदि सप्तर्षियों के लिए (च) = और (राज्ञे सोमाय) = जीवन को दीप्स बनानेवाले सोम [वीर्य] के लिए (आवृश्चते) = समन्तात् वासनाओं का विनाश करता है। वह भी वासनाओं का विनाश करता है (यः) = जो (एवम्) = इसप्रकार (व्रात्यम्) = व्रती (विद्वांसम्) = विद्वान् को (उपवदति) = समीपता से प्रास होकर इस उन्नति के मार्ग की चर्चा करता है। ४. (स:) = वह व्रात्य विद्वान् (वै) = निश्चय से (श्यैतस्य च) = क्रियाशीलता का (नौधसस्य च) = प्रभु-स्तवन की वृत्ति का (सप्तर्षीणां च) = कान आदि समर्षियों का (च) = और (राज्ञः सोमस्य) = जीवन को दीस बनानेवाले सोम का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय स्थान बनता है। (तस्य) = उस व्रात्य विद्वान् के (उदीच्यां दिशि) = उत्तर दिशा में-उन्नति की दिशा में "श्यैत, नवधस, सप्तर्षि व सोम राजा' साथी होते हैं।

    भावार्थ

    यह व्रात्य विद्वान् उन्नति की दिशा में आगे बढ़ता हुआ 'गतिशीलता, प्रभु-स्तवन, सप्तर्षियों द्वारा ज्ञानप्राप्ति तथा सोमरक्षण द्वारा दीस जीवन' को प्राप्त करता है।

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    भाषार्थ

    (तम्, अनु) उस व्रात्य-संन्यासी के अनुकूल होकर, (श्यैतम्, च) श्यैतनामक सामगान (नौधसम्, च) और नौधसनामक सामगान, (सप्तर्षयः, च) सप्तर्षि१ या सप्तर्षिनक्षत्रमण्डल, (सोमः च) तथा जगदुत्पादक परमेश्वर (व्यचलन्) चले।

    टिप्पणी

    [श्यैत और नौधस सामगान उत्तरदिशा की जलवायु तथा ऋतु के अनुकूल प्रतीत होते हैं। सप्तर्षिमण्डल उत्तरदिशा का मण्डल है, जोकि उत्तर के ध्रुवतारा के समीपवर्ती है। उत्तरदिशा के अन्य तारामण्डलों का उपलक्षक है, - सप्तर्षिमण्डल। शत० ब्रा० २।१।१।४ में कहा है कि "ऋक्षा इति ह स्म वै पुरा सप्त ऋषीन् आचक्षत" अर्थात् सप्तर्षियों को पहले "ऋक्षाः" कहते थे। इस सम्बन्ध में "अमी ये ऋक्षा निहितास उच्चाः" (ऋ० १।२४।१०) का प्रमाण प्रायः दिया जाता है। इन्हें "ursa major" कहते हैं। इस का अर्थ है "great bear" अर्थात् बड़ा रीछ (ऋक्ष)। परोपकारी महात्मा की सुरक्षा जगदुत्पादक परमेश्वर तथा उस की कृतियां करती हैं] । [१. "सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे" (यजु० ३४।५५), तथा "सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी" (निरु० १२।४।३७) द्वारा शरीरस्थ इन्द्रियों का व्रात्य के अनुकूल होकर चलने का अभिप्राय यह है कि मानसिक दिग्-विचरण द्वारा परमेश्वरीय विभूतियों का साक्षात्कार करके जब व्रात्य उत्तरदिशा में पहुंचा तब अपनी इन्द्रियों पर उसने पूर्णतया वशीकार अनुभव किया। इस वशीकार के कारण वह परमेश्वर की कृपा का पात्र बन गया।]

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    विषय

    व्रत्य प्रजापति का वर्णन।

    भावार्थ

    उसके पीछे श्येत और नौघस सप्तर्षिगण और सोम राजा चले॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Him followed Shyaitam Sama and Naudhasam Sama, the Vedic knowledge that speaks of the right path to the ultimate joy of freedom. The Seven Sages and Ruling Soma too followed him.

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    Translation

    The syaita Saman and the naudhasa Saman, the seven seers and the sparkling Soma (the cure juice) started following him,

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    Translation

    The Shyeta, Naudhasa, Saptarshis and Raja Soma, the shining substance of herbs and plants follow him.

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    Translation

    Vedic knowledge, the exhibition of the right path, the knowledge of Salvation, the well-wisher of the sages, the seven Rishis, the dignified influential persons, all work under the control of God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २२−(तम्) व्रात्यम् (श्यैतम्)हृश्याभ्यामितन्। उ० ३।९३। श्यैङ् गतौ-इतन्, श्येत-अण्। श्येतस्य सद्गतेःप्रतिपादकं वेदज्ञानम् (च) (नौधसम्) नुवो धुट् च। उ० ४।२२६। णु स्तुतौ-असि, धुट्च, यद्वा गमेर्डोः। उ० २।६७। नौतेर्डो प्रत्ययः+डुधाञ्-असि, नोधस्-अण्। नोधाऋषिर्भवति नवनं दधाति-निरु० ४।१६। ऋषीणां हितकरं मोक्षज्ञानम् (च) (सप्तर्षयः)अ० ४।११।९। सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे। यजु० ३४।५५। सप्त ऋषयः षडिन्द्रियाणिविद्या सप्तमी-निरु० १२।३७। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयः (च) (सोमः)प्रेरको मनुष्यः (च) (राजा) ऐश्वर्यवान् (अनुव्यचलन्) अनुसृत्य विचरितवन्तः ॥

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