अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - निचृत आर्षी पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
1
श्यै॒ताय॑ च॒ वैस नौ॑ध॒साय॑ च सप्त॒र्षिभ्य॑श्च॒ सोमा॑य च॒ राज्ञ॒ आ वृ॑श्चते॒ य ए॒वंवि॒द्वांसं॒ व्रात्य॑मुप॒वद॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठश्यै॒ताय॑ । च॒ । वै । स: । नौ॒ध॒साय॑ । च॒ । स॒प्त॒र्षिऽभ्य॑:। च॒ । सोमा॑य । च॒ । राज्ञे॑ । आ । वृ॒श्च॒ते॒ । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । व्रात्य॑म् । उ॒प॒ऽवद॑ति ॥२.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
श्यैताय च वैस नौधसाय च सप्तर्षिभ्यश्च सोमाय च राज्ञ आ वृश्चते य एवंविद्वांसं व्रात्यमुपवदति ॥
स्वर रहित पद पाठश्यैताय । च । वै । स: । नौधसाय । च । सप्तर्षिऽभ्य:। च । सोमाय । च । राज्ञे । आ । वृश्चते । य: । एवम् । विद्वांसम् । व्रात्यम् । उपऽवदति ॥२.२३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।
पदार्थ
(सः) वह [मूर्ख] (वै)निश्चय करके (श्यैताय) श्यैत [सद्गति बतानेवाले वेदज्ञान] के लिये (च च) और भी (नौधसाय) नौधस [ऋषियों के हितकारी मोक्षज्ञान] के लिये (च) और (सप्तर्षिभ्यः)सात ऋषियों [छह इन्द्रियों और सातवीं बुद्धि-म० २२] के लिये (च) और (राज्ञे)ऐश्वर्यवान् (सोमाय) प्रेरक जीव [मनुष्य] के लिये (आ) सब प्रकार (वृश्चते) दोषीहोता है, (यः) जो [मूर्ख] (एवम्) व्यापक (विद्वांसम्) ज्ञानवान् (व्रात्यम्)व्रात्य [सब समूहों के हितकारी परमात्मा] को (उपवदति) बुरा कहता है ॥२३॥
भावार्थ
कृतघ्न अज्ञानी पुरुषवेदज्ञान और मोक्षज्ञान को नहीं प्राप्त कर सकता और न वह जितेन्द्रिय और हितैषीहो सकता, इसी से वह सदा दुःख में पड़ा रहता है ॥२३॥
टिप्पणी
२३−(श्यैताय) म० २२।सद्गतिप्रापकाय वेदज्ञानाय (नौधसाय) म० २२। ऋषीणां हितकराय मोक्षज्ञानाय (सप्तर्षिभ्यः) सबुद्धिषडिन्द्रियेभ्यः (सोमाय) प्रेरकाय मनुष्याय (राज्ञे)ऐश्वर्यवते। अन्यत् पूर्ववत्-म० ३ ॥
विषय
उदीची दिशा में 'श्यैत, नौधस, सप्तर्षि, सोम राजा'
पदार्थ
१. (स:) = वह व्रात्य (उदतिष्ठत्) = आलस्य छोड़कर उठ खड़ा हुआ और (स:) = वह इन्द्रियों को विषयों से व्यावृत्त करके (उदीचीं दिशं अनुव्यचलत्) = उत्तर दिशा की ओर-उन्नति की ओर क्रमश: चला। २. (तम्) = उन्नति की दिशा में चलते हुए उसको (श्यैतं च) = [श्यै गतौ] गतिशीलता (नौधसं च) = [नौधा ऋषिर्भवति भवनं दधाति-नि०] प्रभु-स्तवन, (सप्तर्षयः च) = 'दो कान, दो औंखें, दो नासिका-छिद्र व मुख' रूप सप्तर्षयः और राजा (सोमः) = जीवन को दीस बनानेवाला सोम [वीर्यशक्ति]-ये सब (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुए। ३. (स:) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से (श्यैताय च) = गतिशीलता के लिए (नौधसाय च) = प्रभु-स्तवन के लिए, (सप्तर्षभ्यः च) = कान आदि सप्तर्षियों के लिए (च) = और (राज्ञे सोमाय) = जीवन को दीप्स बनानेवाले सोम [वीर्य] के लिए (आवृश्चते) = समन्तात् वासनाओं का विनाश करता है। वह भी वासनाओं का विनाश करता है (यः) = जो (एवम्) = इसप्रकार (व्रात्यम्) = व्रती (विद्वांसम्) = विद्वान् को (उपवदति) = समीपता से प्रास होकर इस उन्नति के मार्ग की चर्चा करता है। ४. (स:) = वह व्रात्य विद्वान् (वै) = निश्चय से (श्यैतस्य च) = क्रियाशीलता का (नौधसस्य च) = प्रभु-स्तवन की वृत्ति का (सप्तर्षीणां च) = कान आदि समर्षियों का (च) = और (राज्ञः सोमस्य) = जीवन को दीस बनानेवाले सोम का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय स्थान बनता है। (तस्य) = उस व्रात्य विद्वान् के (उदीच्यां दिशि) = उत्तर दिशा में-उन्नति की दिशा में "श्यैत, नवधस, सप्तर्षि व सोम राजा' साथी होते हैं।
भावार्थ
यह व्रात्य विद्वान् उन्नति की दिशा में आगे बढ़ता हुआ 'गतिशीलता, प्रभु-स्तवन, सप्तर्षियों द्वारा ज्ञानप्राप्ति तथा सोमरक्षण द्वारा दीस जीवन' को प्राप्त करता है।
भाषार्थ
(वै) निश्चय से (सः) वह व्यक्ति, (श्यैताय च) श्यैतनामक सामगानों से, (नौधसाय च) और नौधसनामक सामगानों से, (सप्तर्षिभ्यः च) सप्तर्षियों अर्थात् पृथिवी के उत्तरध्रुव के समीप तक की यात्रा से या इन्द्रियों पर वशीकार से, (सोमाय च) और जगदुत्पादक परमेश्वर की कृपा से (आवृश्चते) अपने आप को वञ्चित कर लेता है, (यः) जो कि (एवम्, विद्वांसम्, व्रात्यम्) इस प्रकार के विद्वान् व्रती तथा परोपकारी के (उप) समीप अर्थात् सत्संगति में रहकर (वदति) उस के साथ वाद-विवाद करता है, तर्क-बाजी करता है।
टिप्पणी
[वेदनिर्दिष्ट विधि के अनुसार आदित्य-ब्रह्मचारी स्नातक हो कर, लोक संग्रह की दृष्टि से बार-बार सदुपदेशों को देते हुआ पूर्वसमुद्र से उत्तरसमुद्र तक यात्रा करता है। उत्तरसमूद्र का अभिप्राय है, - पृथिवी के उत्तरध्रुव का समुद्र, जिस के ऊपर सप्तर्षिमण्डल चमकता है। यथाः- "स सद्य एति पूर्वस्मादुत्तरं समुद्रं लोकान्त्संगृभ्य मुहुराचरिक्रत्" (अथर्व० ११।५।६) । उत्तरं समुद्रम्= Northern ocean (whitney, अथर्ववेद अंग्रेजी अनुवाद)। तथा "पूर्वस्माद्धंस्युत्तरस्मिन्समुद्रे" (अथर्व० ११।२।२५), अर्थात् हे भव ! पूर्वसमुद्र से उत्तरसमुद्र तक गति करता है, हंसि = हन् गतौ। Whitney लिखता है कि "We are surprised to find a "northern" ocean spoken of, and set over against the "eastern" one, but uttara can not well mean anything else" अर्थात् हम हैरान है यह जान कर कि मन्त्र में उत्तरसमुद्र का वर्णन हुआ है, जिस का कि पूर्वसमुद्र के साथ सम्बन्ध दर्शाया है। वस्तुतः "उत्तर" का और कोई अर्थ नहीं है"। इस प्रकार वैदिक दृष्टि में उत्तरध्रुव की पदयात्रा का विधान है। उपर्युक्त मन्त्र २१-२३ में भी उत्तरध्रुव तक व्रात्य की पदयात्रा का निर्देश हुआ है। महात्माओं और नेताओं के साथ यात्रा करना गौरव समझा जाता है। वाद-विवाद करनेवालों को इस गौरव से वञ्चित कर दिया जाता है]।
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
So far as benefits of Shaitya, Naudhasa, Seven Sages and Ruling Soma are concerned, that man uproots and alienates himself who reviles Vratya and the person who knows Vratya.
Translation
From the Syaita Saman and the naudhasa Saman, from the Seven-seers and from the sparkling Soma is he cut off, whoso reviles such ? knowledgeable wandering saint.
Translation
He who veriles or depreciate vratya who is the possessor of this knowledge is alienated from Shyeta, Naudhasa, Saptrshi (seven limbs or group of seven constellations) and shining soma.
Translation
He offends against Vedic knowledge, knowledge of salvation, the seven Rishis, and dignified noble persons, who reviles God, the Master of knowledge.
Footnote
Seven Rishis: Eye, Ear, Nostril, Tongue, Skin, Mind, Intellect सप्तऽऋषयः प्रतिहिताः शरीरे Yajurved 34-55
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२३−(श्यैताय) म० २२।सद्गतिप्रापकाय वेदज्ञानाय (नौधसाय) म० २२। ऋषीणां हितकराय मोक्षज्ञानाय (सप्तर्षिभ्यः) सबुद्धिषडिन्द्रियेभ्यः (सोमाय) प्रेरकाय मनुष्याय (राज्ञे)ऐश्वर्यवते। अन्यत् पूर्ववत्-म० ३ ॥
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