अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 26
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - साम्नी अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
1
श्रु॒तं च॒विश्रु॑तं च परिष्क॒न्दौ मनो॑ विप॒थम् ॥
स्वर सहित पद पाठश्रु॒तम् । च॒ । विऽश्रु॑तम् । च॒ । प॒रि॒ऽस्क॒न्दौ । मन॑: । वि॒ऽप॒थम् ॥२.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रुतं चविश्रुतं च परिष्कन्दौ मनो विपथम् ॥
स्वर रहित पद पाठश्रुतम् । च । विऽश्रुतम् । च । परिऽस्कन्दौ । मन: । विऽपथम् ॥२.२६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।
पदार्थ
(श्रुतम्) ख्याति [प्रशंसा] (च च) और (विश्रुतम्) विख्याति [प्रसिद्धि] (परिष्कन्दौ) [सब ओरचलनेवाले] दो सेवक [समान] (मनः) मन (विपथम्) विविध मार्गगामी रथ [यान आदि समान]॥२६॥
भावार्थ
जो मनुष्य परमात्मामें लवलीन होता है, वही वेदज्ञान और मोक्षज्ञान से जितेन्द्रिय और सर्वहितैषीहोकर संसार में सब पदार्थों से उपकार लेकर आनन्द पाता है ॥२४-२८॥
टिप्पणी
२६−(श्रुतम्)ख्यातिः)। प्रशंसा (विश्रुतम्) विख्यातिः। प्रसिद्धिः। अन्यद् गतम्-म० ६ ॥
विषय
विद्युत, स्तनयित्नु, श्रुतविश्रुत
पदार्थ
१. इस उन्नति की दिशा में चलनेवाले व्रात्य की विद्यत (पंश्चली) = बिजली के समान विशिष्ट ज्ञान की दीप्ति पत्नी होती है-प्रेरिका होती है। (स्तनयित्नु) = मेघ गर्जना इसका (मागधः) = स्तुतिपाठ होता है। मेघ गर्जना में भी यह प्रभु की महिमा को देखता है। शेष पञ्चम मन्त्रवत्। २. (श्रुतं च विश्रुतं च) = प्रकृति-विज्ञान व अध्यात्म-विज्ञान इस व्रात्य विद्वान् के (परिष्कन्दौ) = सेवक होते हैं। प्रकृति-विज्ञान से यह अभ्युदय को सिद्ध करता है तो अध्यात्म-विज्ञान से यह निःश्रेयस की साधना करनेवाला होता है। शेष पूर्ववत्।
भावार्थ
यह व्रात्य विद्वान् निरन्तर उन्नत होने के लिए, विशिष्ट ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करने के लिए यत्नशील होता है। यह मेघ-गर्जना में भी प्रभु-स्तवन होता हुआ देखता है। प्रकृति विज्ञान इसके अभ्युदय का साधक होता है और आत्मविज्ञान इसे निःश्रेयस का अधिकारी बनाता है।
भाषार्थ
(श्रुतम्, च) वेद का स्वाध्याय, (विश्रुतम्, च) और विविध प्रकार के प्रतिभ१ श्रवण (परिष्कन्दौ) व्रात्य-संन्यासी के चारों ओर से रक्षक होते हैं। (मनः....) मन इत्यादि पूर्ववत् (१५।२।६)।
टिप्पणी
[श्रुतम् = वेद। यथा "मय्येवास्तु मयि श्रुतम्" (अथर्व का० १। सूक्त १। मं० २,३), तथा "सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन वि राधिषि" (अथर्व० १।१।४), कि "मुझ में स्थित वेद मुझ में अवश्य स्थित रहे;" श्रुत अर्थात् वेदश्रुति के संग में हम रहें, वेदश्रुति से विमुख मैं न होऊं]। [१. तथा "ततः प्रतिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते (योग ३।३६) में प्रातिभश्रावण, प्रातिभ दिव्यस्पर्शज्ञान, प्रातिभदिव्यरूपों का दर्शन [जैसे कि श्वेता० उप० २।११ में दर्शाया है, प्रातिभ दिव्यरस का आस्वादन, तथा वार्ता अर्थात् प्रातिभगन्धग्रहण। तथा "श्रोत्राकाशयोः सम्बन्धसंयमाद् दिव्यं श्रोत्रम्" (योग ३।४१) में दिव्यशब्दों के श्रवण की योग्यता का वर्णन हुआ है]।
विषय
व्रत्य प्रजापति का वर्णन।
भावार्थ
उसकी उत्तर दिशा में विद्युत् पुंश्चली है, ‘स्तनयित्नु’ = गर्जन स्तुतिपाठक है, विज्ञान वस्त्र है इत्यादि (देखो ऋचा सं० ५) श्रुत और विश्रुत ये दोनों उसके हरकारे हैं मन रथ है। पूर्ववत, देखो व्याख्या (ऋचा सं० ८। ९)॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
Shruti and Smrti, his guards, mind, his chariot,
Translation
What is heard and what is listened (become) his two footmen, the mind his war-chariot,
Translation
The knowledge attained and experience gained are attendents, mind like chariot.
Translation
Fame and Celebrity are his running footmen, mind is his chariot.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२६−(श्रुतम्)ख्यातिः)। प्रशंसा (विश्रुतम्) विख्यातिः। प्रसिद्धिः। अन्यद् गतम्-म० ६ ॥
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