अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - साम्नी अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
1
भू॒तं च॑भवि॒ष्यच्च॑ परिष्क॒न्दौ मनो॑ विप॒थम् ॥
स्वर सहित पद पाठभू॒तम् । च॒ । भ॒वि॒ष्यत् । च॒ । प॒रि॒ऽस्क॒न्दौ । मन॑: । वि॒ऽप॒थम् ॥२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
भूतं चभविष्यच्च परिष्कन्दौ मनो विपथम् ॥
स्वर रहित पद पाठभूतम् । च । भविष्यत् । च । परिऽस्कन्दौ । मन: । विऽपथम् ॥२.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।
पदार्थ
(भूतम्) भूत [बीताहुआ] (च च) और भी (भविष्यत्) भविष्यत् [आनेवाला] (परिष्कन्दौ) [सब ओर चलनेवाले]दो सेवक [समान], (मनः) मन (विपथम्) विविध मार्गगामी रथ [यान आदि समान] ॥६॥
भावार्थ
जब मनुष्य योगाभ्यासकरके शुद्ध ज्ञान द्वारा परमाणु से लेकर परमेश्वर तक साक्षात् कर लेता है, वहपूर्णकाम और पूर्ण विज्ञानी होकर संसार में अपने आप कीर्ति और यश पाता है॥४-८॥
टिप्पणी
६−(भूतम्) अतीतम् (च) (भविष्यत्) अनागतम् (च) (परिष्कन्दौ) स्कन्दिर् गतिशोषणयोः-घञ्। परितो गन्तारौपरपुष्टौ। सेवकौ यथा (मनः) चित्तम् (विपथम्) विविधगमनं यानम् ॥
विषय
श्रद्धा [कीर्ति और यश] मातरिश्वा पवमान
पदार्थ
१. प्राची दिशा में आगे बढ़नेवाले इस विद्वान् व्रात्य की (श्रद्धा पुंश्चली) = श्रद्धा प्रेरिका भावना होती है [प्रमोर्स चालयति प्रेरयति]! यह अपने अग्रगति के मार्ग पर श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ता है। इसके लिए (मित्र:) = प्राणशक्ति के संचार द्वारा मृत्यु से रक्षित करनेवाला [प्रमीते त्रायते] सूर्य (मागधः) = स्तुति पाठक होता है। सूर्य इन्हें प्रभु-स्तवन करता प्रतीत होता है। सूर्य प्रभु की अद्भुत विभूति है-यह प्रभु की महिमा का मानो गायन करता है। (विज्ञानं वास:) = विज्ञान इसका वस्त्र होता है। विज्ञान इसके आच्छादन का साधन बनता है। (अहः उष्णीषम्) = दिन इसका उष्णीष स्थानापन्न होता है। दिन को यह शिरोवेष्टन-मुकुट बनाता है। दिन के एक-एक क्षण को यह उपयुक्त करता हुआ उन्नति-शिखर पर पहुँचने के लिए यत्नशील होता है। (रात्री केश:) = रात्रि इसके केश बनते हैं। केश जैसे सिर के रक्षक होते हैं उसीप्रकार रात्रि इसके लिए रमयित्री होती हुई इसे स्वस्थ मस्तिष्क बनाती है। (हरितौ) = अन्धकार का हरण करनेवाले सूर्य और चन्द्र प्रवतौ इसे विराट् पुरुष के कुण्डल प्रतीत होते हैं और (कल्मलि:) = तारों की ज्योति [splendour] (मणि:) = उसे विराट् पुरुष की मणि प्रतीत होती है। ये सूर्य-चन्द्र व तारों में प्रभु की महिमा को देखता है। २. (भूतं च भविष्यत् च) = भूत और भविष्यत् (परिष्कन्दौ) = इसके दास [servent] होते हैं। भूत से यह गलतियों को न करने का पाठ पढ़ता है और भविष्यत् को उज्ज्वल बनाने के स्वप्न लेता है तथा प्रवृद्ध पुरुषार्थवाला होता है। (मन:) = मन इसका (विपथम्) = विविध मार्गों से गति करनेवाला युद्ध का रथ होता है। मन के दृढ़ संकल्प से ही तो इसने जीवन-संग्राम में विजय पानी है। ३. (मातरिश्वा च पवमानश्च) = श्वास तथा उच्चास इसके (विपथवाहौ) = मनरूपी रथ के वाहक घोड़े होते हैं। प्राणापान के द्वारा ही जीवन-रथ आगे बढ़ता है। (वात: सारथी) = क्रियाशीलता [वा गतौ] इस रथ का सारथि है। (रेष्मा प्रतोदः) = वासनाओं का संहार ही चाबुक है। ४. (कीर्तिः च यश: च) = प्रभु-गुणगान [glory, speach] व [कीर्तन तथा दीप्ति splendour] इसके (पुर: सरौ) = आगे चलनेवाले होते हैं। (यः एवं वेदः) = जो इसप्रकार इस सारी बात को समझ लेता है, वह भी इस मार्ग पर चलता है और (कीर्तिः गच्छति) = कीर्ति प्राप्त होती है तथा (यश:) = गच्छति यश प्राप्त होता है।
भावार्थ
विद्वान् व्रात्य जब प्राची दिशा में [अग्न गति की दिशा में] आगे बढ़ता है तब उसे श्रद्धा, कीर्ति व यशादि प्राप्त होते हैं।
भाषार्थ
संन्यासी का (भूतम् च) भूतकाल में हुआ (भविष्यत् च) और भविष्य में होनेवाला व्रतमय और परोपकारी जीवन (परिष्कन्दौ) इस के चारों ओर से रक्षक होते हैं, (मनः) मन (विपथम्) विविध पथगामीरथ होता है, विविध प्रकार के कठिन-मार्गो में भी ले चलनेवाला रथ होता है।
टिप्पणी
[संन्यासी के व्रतमय तथा परहितकारी जीवन ही इस के लिये दो रक्षक-पुरुष हैं। इस का मनोबल इस की कठिन से कठिन जीवन यात्रा में रथ होता है, जो क्लिष्ट पथों पर भी चल सकता है]।
विषय
व्रत्य प्रजापति का वर्णन।
भावार्थ
उस व्रात्य का स्वरूप क्या है ? (तस्य) उसके (प्राच्यां दिशि) प्राची दिशा में (श्रद्धा पुंश्चली) श्रद्धा नारी के समान है, (मित्रः मागधः) मित्र सूर्य उसका मागध, स्तुतिपाठक के समान हैं, (विज्ञानं वासः) विज्ञान उसका वस्त्र के समान है। (अहः उष्णीषम्) अहः = दिन उसकी पगड़ी के समान है। (रात्री केशाः) रात्री उसके केश हैं। (हरितौ) दोनों पीत वर्ण के उज्ज्वल सूर्य और चन्द्र (प्रवर्त्तौ) दो कुण्डल हैं। (कल्मलिः) तारे उसके (मणिः) देह पर मणियें हैं। (भूतं च भविष्यत् च) भूत और भविष्यत् उसके (परिस्कन्दौ) आगे पीछे चलने वाले दो पैदल सिपाही हैं। (मनः) मन उसका (विपथम्) नाना मागौं में चलने वाला युद्ध का रथ है॥ ६॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
Past and future, his guards, mind, his chariot,
Translation
Both, what has been and what is to be, become his two foot men, the mind his war-chariot;
Translation
The past and future are like his two servants and mind is like his chariot covering distances of various ways.
Translation
Past and Future are his running footmen, mind is his war chariot.
Footnote
Past and Future are the sentinels which guard him from behind and front.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(भूतम्) अतीतम् (च) (भविष्यत्) अनागतम् (च) (परिष्कन्दौ) स्कन्दिर् गतिशोषणयोः-घञ्। परितो गन्तारौपरपुष्टौ। सेवकौ यथा (मनः) चित्तम् (विपथम्) विविधगमनं यानम् ॥
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