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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदा ब्राह्मी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    बृ॑ह॒तश्च॒ वै सर॑थन्त॒रस्य॑ चादि॒त्यानां॑ च॒ विश्वे॑षां च दे॒वानां॑ प्रि॒यं धाम॑ भवति॒ तस्य॒ प्राच्यां॑ दि॒शि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒ह॒त: । च॒ । वै । स: । र॒थ॒म्ऽत॒रस्य॑ । च॒ । आ॒दि॒त्याना॑म् । च॒ । विश्वे॑षाम् । च॒ । दे॒वाना॑म् । प्रि॒यम् । धाम॑ । भ॒व॒ति॒ । तस्य॑ । प्राच्या॑म् । दि॒शि ॥२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहतश्च वै सरथन्तरस्य चादित्यानां च विश्वेषां च देवानां प्रियं धाम भवति तस्य प्राच्यां दिशि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहत: । च । वै । स: । रथम्ऽतरस्य । च । आदित्यानाम् । च । विश्वेषाम् । च । देवानाम् । प्रियम् । धाम । भवति । तस्य । प्राच्याम् । दिशि ॥२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [विद्वान्] (वै) निश्चय करके (बृहतः) बृहत् [बड़े आकाश] का (च च) और भी (रथन्तरस्य) रथन्तर [रमणीय गुणों द्वारा पार होने योग्य जगत्] का (च) और (आदित्यानाम्) चमकनेवालेसूर्यों का (च) और (विश्वेषाम्) सब (देवानाम्) गतिवाले लोकों [अर्थात् उनकेज्ञान] का (प्रियम्) प्रिय (धाम) धाम [घर] (भवति) होता है और (तस्य) उस [विद्वान्] के लिये (प्राच्यां दिशि) सामनेवाली [वा पूर्व] दिशा में ॥४॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य योगाभ्यासकरके शुद्ध ज्ञान द्वारा परमाणु से लेकर परमेश्वर तक साक्षात् कर लेता है, वहपूर्णकाम और पूर्ण विज्ञानी होकर संसार में अपने आप कीर्ति और यश पाता है॥४-८॥

    टिप्पणी

    ४−(बृहतः)प्रवृद्धस्याकाशस्य (च) (वै) (सः) विद्वान् (रथन्तरस्य) रमणीयैर्गुणैस्तरणीयस्यजगतः (च) (आदित्यानाम्) आदीप्यमानानां सूर्याणाम् (च) (विश्वेषाम्) (च) (देवानाम्) गतिमतां लोकानाम् (प्रियम्) (धाम) गृहम् (भवति) (तस्य) चतुर्थ्यांषष्ठी। विदुषे जनाय (प्राच्याम्) अभिमुखीभूतायाम्। पूर्वस्याम् (दिशि) दिशायाम्॥

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    विषय

    प्राची दिशा में 'बृहत्-रथन्तर, आदित्य व विश्वेदेवों' की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (स:) = वह व्रात्य (उदतिष्ठत्) = उठा, आलस्य को छोड़कर उद्यत हो गया और (स:) = वह (प्राचीं दिशम्) = [प्र अञ्च] आगे बढ़ने की दिशा को (अनुव्यचलत्) = लक्ष्य करके चला। व्रतमय जीवनवाला पुरुष क्यों न आगे बढ़ेगा? २. (तम्) = उस व्रतमय जीवनवाले, अग्रगति के लिए निरन्तर उद्यत व्रात्य को (बृहत् च) = हदय की विशालता, (रथन्तरं च) = शरीररूप रथ से जीवनमार्ग को पार करने की वृत्ति (आदित्याः च) = सूर्यसम ज्ञानदीसिया तथा (विश्वेदेवा:) = सब दिव्यगुण (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुए। ३. (स:) = वह व्रात्य वै-निश्चय से (बृहते च) = हृदय की विशालता के लिए (रथन्तराय) = शरीररूप रथ के द्वारा जीवनमार्ग को पार करने की वृत्ति के लिए (आदित्येभ्यः च) = ज्ञानदीतियों को प्राप्त करने के लिए (च) = और (विश्वेभ्यः देवेभ्यः) = सब दिव्यगुणों के ग्रहण के लिए (आवृश्चते) = समन्तात् वासनारूप शत्रुओं का छेदन करता है। यह भी शत्रुओं का छेदन करने में प्रवृत्त होता है।(यः) = जो (एवम्) = इसप्रकार (विद्वांसं वात्यम् उपवदति) = ज्ञानी व्रतीपुरुष के समीप उपस्थित होकर इन ज्ञानों व व्रतों की चर्चा करता है-इन ज्ञान व व्रत की बातों को ही पूछता है, ४. (स:) = वह (वै) = निश्चय से (बृहत् च) = विशाल हृदय का (रथन्तरस्य च) = शरीर-रथ से जीवन-यात्रा के मार्ग को पार करने की वृत्ति का, (आदित्यनांच) = विज्ञानों के आदानों का (च) = और (विश्वेषां देवानाम्) = सब दिव्यगुणों का प्(रियं धाम भवति) = प्रियधाम बनता है। इन सब बातों का वह निवासस्थान होता है। (तस्य) = उस विद्वान् व्रात्य के जीवन में (प्राच्यां दिशि) = प्रगति की दिशा में 'बृहत, रथन्तर, आदित्य और विश्वेदेव' जीवन के साथी बनते हैं।

    भावार्थ

    जिस समय यह व्रतमय जीवनवाला पुरुष आलस्य को छोड़कर प्रगति की दिशा में आगे बढ़ता है तब इस दिशा में वह 'विशालहृदयता, शरीर-रथ से जीवनमार्ग को पार करने को वृत्ति, विज्ञानों का आदान व दिव्यगुणों के धारण' से अलंकृत जीवनवाला होता है।

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    भाषार्थ

    (सः) वह श्रद्धालु व्यक्ति, (वै) निश्चय से, (बृहतः च) बृहत् सामगानों का (रथन्तरस्य च) और रथन्तर सामगानों का, (आदित्यानाम् च) आदित्य कोटि के विद्वानों का (विश्वेषाम् च देवानाम्) और अन्य सब विद्वानों का (प्रियं धाम) प्यारा (भवति) हो जाता है। (तस्य) उस व्रात्य संन्यासी की (प्राच्याम् दिशि) पूर्व दिशा में:-

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    विषय

    व्रत्य प्रजापति का वर्णन।

    भावार्थ

    उस व्रात्य का स्वरूप क्या है ? (तस्य) उसके (प्राच्यां दिशि) प्राची दिशा में (श्रद्धा पुंश्चली) श्रद्धा नारी के समान है, (मित्रः मागधः) मित्र सूर्य उसका मागध, स्तुतिपाठक के समान हैं, (विज्ञानं वासः) विज्ञान उसका वस्त्र के समान है। (अहः उष्णीषम्) अहः = दिन उसकी पगड़ी के समान है। (रात्री केशाः) रात्री उसके केश हैं। (हरितौ) दोनों पीत वर्ण के उज्ज्वल सूर्य और चन्द्र (प्रवर्त्तौ) दो कुण्डल हैं। (कल्मलिः) तारे उसके (मणिः) देह पर मणियें हैं। (भूतं च भविष्यत् च) भूत और भविष्यत् उसके (परिस्कन्दौ) आगे पीछे चलने वाले दो पैदल सिपाही हैं। (मनः) मन उसका (विपथम्) नाना मागौं में चलने वाला युद्ध का रथ है॥ ६॥

    टिप्पणी

    ‘प्रियं धा भवति य एवं वेद’ इति ह्विटनिकामितः। ४

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Of Brhat, Rathantara, Adityas and all Vishvedevas, he becomes the favourite centre of love, and in his eastern quarter upfront:

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    Translation

    Surely he becomes a favourite of the brhat Saman and the rathántara Sáman, of the old sages and of all the enlightened ones. In the eastern quarter, he has a pleasing abode.

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    Translation

    He who knows this, becomes favorable resert of Brihat, Rathantara, Adityas and Vishvedevas in his eastern region.

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    Translation

    He who hath the knowledge of God becomes the beloved home of the atmosphere, the Earth, the lustrous Suns and revolving worlds, and for such a learned person, in the eastern region.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(बृहतः)प्रवृद्धस्याकाशस्य (च) (वै) (सः) विद्वान् (रथन्तरस्य) रमणीयैर्गुणैस्तरणीयस्यजगतः (च) (आदित्यानाम्) आदीप्यमानानां सूर्याणाम् (च) (विश्वेषाम्) (च) (देवानाम्) गतिमतां लोकानाम् (प्रियम्) (धाम) गृहम् (भवति) (तस्य) चतुर्थ्यांषष्ठी। विदुषे जनाय (प्राच्याम्) अभिमुखीभूतायाम्। पूर्वस्याम् (दिशि) दिशायाम्॥

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