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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - पदपङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    मा॑त॒रिश्वा॑ च॒पव॑मानश्च विपथवा॒हौ वातः॒ सार॑थी रे॒ष्मा प्र॑तो॒दः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा॒त॒रिश्वा॑ । च॒ । पव॑मान: । च॒ । वि॒प॒थ॒ऽवा॒हौ । वात॑: । सार॑थि: । रे॒ष्मा । प्र॒ऽतो॒द: ॥२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मातरिश्वा चपवमानश्च विपथवाहौ वातः सारथी रेष्मा प्रतोदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मातरिश्वा । च । पवमान: । च । विपथऽवाहौ । वात: । सारथि: । रेष्मा । प्रऽतोद: ॥२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (मातरिश्वा) आकाश मेंघूमनेवाला सूत्रात्मा [वायु विशेष] (च च) और भी (पवमानः) संशोधक वायु (विपथवाहौ)दो रथ ले चलनेवाले [बैल घोड़े आदि समान], (वातः) वात [सामान्य वायु] (सारथिः)सारथी [रथ हाँकनेवाले के समान] (रेष्मा) आँधी (प्रतोदः) अङ्कुश [कोड़ा, पैनासमान] ॥७॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य योगाभ्यासकरके शुद्ध ज्ञान द्वारा परमाणु से लेकर परमेश्वर तक साक्षात् कर लेता है, वहपूर्णकाम और पूर्ण विज्ञानी होकर संसार में अपने आप कीर्ति और यश पाता है॥४-८॥

    टिप्पणी

    ७−(मातरिश्वा) आकाशेगमनशीलः सूत्रात्मा वायुः (च) (पवमानः) संशोधको वायुः (च) (विपथवाहौ) रथवाहकौवृषभौ यथा (वातः) सामान्यपवनः (सारथिः) सर्तेर्णिच्च। उ० ४।८९। सृ गतौ-घथिन्, णित्। रथचालकः (रेष्मा) रिष हिंसायाम्-मनिन्। प्रचण्डवायुः (प्रतोदः) तुद-घञ्।अश्वादिताडनदण्डः ॥

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    विषय

    श्रद्धा [कीर्ति और यश] मातरिश्वा पवमान

    पदार्थ

    १. प्राची दिशा में आगे बढ़नेवाले इस विद्वान् व्रात्य की (श्रद्धा पुंश्चली) = श्रद्धा प्रेरिका भावना होती है [प्रमोर्स चालयति प्रेरयति]! यह अपने अग्रगति के मार्ग पर श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ता है। इसके लिए (मित्र:) = प्राणशक्ति के संचार द्वारा मृत्यु से रक्षित करनेवाला [प्रमीते त्रायते] सूर्य (मागधः) = स्तुति पाठक होता है। सूर्य इन्हें प्रभु-स्तवन करता प्रतीत होता है। सूर्य प्रभु की अद्भुत विभूति है-यह प्रभु की महिमा का मानो गायन करता है। (विज्ञानं वास:) = विज्ञान इसका वस्त्र होता है। विज्ञान इसके आच्छादन का साधन बनता है। (अहः उष्णीषम्) = दिन इसका उष्णीष स्थानापन्न होता है। दिन को यह शिरोवेष्टन-मुकुट बनाता है। दिन के एक-एक क्षण को यह उपयुक्त करता हुआ उन्नति-शिखर पर पहुँचने के लिए यत्नशील होता है। (रात्री केश:) = रात्रि इसके केश बनते हैं। केश जैसे सिर के रक्षक होते हैं उसीप्रकार रात्रि इसके लिए रमयित्री होती हुई इसे स्वस्थ मस्तिष्क बनाती है। (हरितौ) = अन्धकार का हरण करनेवाले सूर्य और चन्द्र प्रवतौ इसे विराट् पुरुष के कुण्डल प्रतीत होते हैं और (कल्मलि:) = तारों की ज्योति [splendour] (मणि:) = उसे विराट् पुरुष की मणि प्रतीत होती है। ये सूर्य-चन्द्र व तारों में प्रभु की महिमा को देखता है। २. (भूतं च भविष्यत् च) = भूत और भविष्यत् (परिष्कन्दौ) = इसके दास [servent] होते हैं। भूत से यह गलतियों को न करने का पाठ पढ़ता है और भविष्यत् को उज्ज्वल बनाने के स्वप्न लेता है तथा प्रवृद्ध पुरुषार्थवाला होता है। (मन:) = मन इसका (विपथम्) = विविध मार्गों से गति करनेवाला युद्ध का रथ होता है। मन के दृढ़ संकल्प से ही तो इसने जीवन-संग्राम में विजय पानी है। ३. (मातरिश्वा च पवमानश्च) = श्वास तथा उच्चास इसके (विपथवाहौ) = मनरूपी रथ के वाहक घोड़े होते हैं। प्राणापान के द्वारा ही जीवन-रथ आगे बढ़ता है। (वात: सारथी) = क्रियाशीलता [वा गतौ] इस रथ का सारथि है। (रेष्मा प्रतोदः) = वासनाओं का संहार ही चाबुक है। ४. (कीर्तिः च यश: च) = प्रभु-गुणगान [glory, speach] व [कीर्तन तथा दीप्ति splendour] इसके (पुर: सरौ) = आगे चलनेवाले होते हैं। (यः एवं वेदः) = जो इसप्रकार इस सारी बात को समझ लेता है, वह भी इस मार्ग पर चलता है और (कीर्तिः गच्छति) = कीर्ति प्राप्त होती है तथा (यश:) = गच्छति यश प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    विद्वान् व्रात्य जब प्राची दिशा में [अग्न गति की दिशा में] आगे बढ़ता है तब उसे श्रद्धा, कीर्ति व यशादि प्राप्त होते हैं।

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    भाषार्थ

    (मातरिश्वा च) अन्तरिक्ष में चलनेवाली वायु और (पवमानः च) शरीरनिष्ठ प्राणवायु (विपथवाहौ) मनरूपी-विपथरथ के वहन करनेवाले दो अश्व होते हैं, (वातः) वातनामक या वाताधिपति परमेश्वर (सारथी) इन दो अश्वों को प्रेरित करता है, (रेष्मा) अश्वों के नथनों के श्वास-प्रश्वास की आवाज के समान संन्यासी के दो नासारन्ध्रों में होनेवाले श्वास-प्रश्वास की आवाज (प्रतोदः) मानो चाबुक होती है ।

    टिप्पणी

    [मातरिश्वा१ = मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति, मातरि आशु अनिति वा (निरु० ७।७।२६)। श्वसिति = गच्छति। अनिति गतिकर्मा (निघं० २।१४)। पवमानः२ = अन्तरिक्षस्थ-वायु शरीरगत हो कर श्वास-प्रश्वास द्वारा शरीर को पवित्र करती रहती है। मातरिश्वा और पवमान, मन के वाहक दो अश्व हैं। इन दोनों के होते मन कार्यकारी होता है। श्वास-प्रश्वास की समाप्ति में मन निष्क्रिय सा हो जाता है। वातः = "तदेवाग्निस्तवादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः" (यजु० ३२।१) में परमेश्वर को वायु कहा है। वायु = वात। यह परमेश्वर ही मातरिश्वा तथा-पवमान को प्रेरित कर रहा है। और यह ही परमेश्वर शरीर के श्वास-प्रश्वास रूपी अश्वों को भी प्रेरित कर रहा है। श्वास-प्रश्वास रात-दिन परमेश्वर प्रदत्त शक्ति द्वारा स्वतः चलते रहते हैं। रेष्मा = रेषणम् , रेषा = neighing (आप्टे), अर्थात् अश्व की हिनहिनाहट। अश्व के नथनों में हिनहिनाहट होती रहती है। श्वास-प्रश्वास के चलने पर भी शब्द होता है। दौड़ते हुए पुरुष के श्वास-प्रश्वास की आवाज स्पष्ट सुनाई देती है। सामान्यावस्था में भी छाती के यन्त्र द्वारा छाती में श्वास-प्रश्वास की आवाज स्पष्ट सुनाई देती है। यह आवाज चाबुक समान है। इस आवाज के रहते ही श्वास-प्रश्वास की गति रहती है, अन्यथा शरीर निष्क्रिय हो जाता है। भट्टोजी दीक्षित ने "रेषृ" धातु के सम्बन्ध में लिखा है कि यह अव्यक्त शब्द (रेषृ अव्यक्ते शब्दे) भेडिये की घुरघुराहट के लिये प्रयुक्त होता है]। [१. मातरि अन्तरिक्षे श्वयति गच्छति वर्द्धते वा, अथवा मातरि श्वसिति जीवयति शेते वा स मातरिश्वा, वायुर्वा (उणा० १।१५९), म० दया०। २. अन्तरिक्ष की वायु नासिका छिद्रों द्वारा फेफड़ों में जा कर गन्दे रक्त को शुद्ध करती, और फेफड़ों में उत्पन्न गन्दी वायु (CO2) को प्रश्वास द्वारा शरीर से बाहिर निकाल, शरीर को पवित्र करती रहती है। अन्तरिक्ष की बायु ही शरीर में प्रवेश पा कर पवमान संज्ञक हो जाती है। श्वास और प्रश्वास इन की गतिरूप है।]

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    विषय

    व्रत्य प्रजापति का वर्णन।

    भावार्थ

    (मातरिश्वा च पवमानश्च) मातरिश्वा और पवमान दोनों (विपथवाहौ) उसके युद्धरथ के घोड़े हैं। (वातः सारथिः) वात, सारथि है। (रेष्मा प्रतोदः) बबण्डर उसका हण्टर है॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Cosmic wind and pranic energy, his chariot horses, air, his charioteer, breath, his goad,

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    Translation

    The atmosphere wind and the purifying wind (become) his two chariot-horses, the gale his charioteer and the tempest his whip;

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    Translation

    Matarishvan, the Prana, Pavamana, the Apan i.e. ‘inbreath and out breath are like his chariot-drawers Vat, the air like his charioteer and the gust of wind is like his good.

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    Translation

    In-breath and out-breath are the horses of his chariot, air is his charioteer, storm his goad.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(मातरिश्वा) आकाशेगमनशीलः सूत्रात्मा वायुः (च) (पवमानः) संशोधको वायुः (च) (विपथवाहौ) रथवाहकौवृषभौ यथा (वातः) सामान्यपवनः (सारथिः) सर्तेर्णिच्च। उ० ४।८९। सृ गतौ-घथिन्, णित्। रथचालकः (रेष्मा) रिष हिंसायाम्-मनिन्। प्रचण्डवायुः (प्रतोदः) तुद-घञ्।अश्वादिताडनदण्डः ॥

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