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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 19
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदार्ची जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    इरा पुं॑श्च॒लीहसो॑ माग॒धो वि॒ज्ञानं॒ वासोऽह॑रु॒ष्णीषं॒ रात्री॒ केशा॒ हरि॑तौ प्रव॒र्तौक॑ल्म॒लिर्म॒णिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒रा । पुं॒श्च॒ली । हस॑: । मा॒ग॒ध: । वि॒ऽज्ञान॑म् । वास॑: । अह॑: । उ॒ष्णीष॑म् । रात्री॑ । केशा॑: । हरि॑तौ । प्र॒ऽव॒र्तौ । क॒ल्म॒लि: । म॒णि: ॥२.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इरा पुंश्चलीहसो मागधो विज्ञानं वासोऽहरुष्णीषं रात्री केशा हरितौ प्रवर्तौकल्मलिर्मणिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईरा । पुंश्चली । हस: । मागध: । विऽज्ञानम् । वास: । अह: । उष्णीषम् । रात्री । केशा: । हरितौ । प्रऽवर्तौ । कल्मलि: । मणि: ॥२.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (इरा) मदिरा [मद्यवस्तु] (पुंश्चली) पुंश्चली [पर पुरुषों में जानेवाली व्यभिचारिणी स्त्रीतथा परस्त्रीगामी व्यभिचारी पुरुष के समान घृणित], (हसः) हास्यरस (मागधः) भाट [स्तुतिपाठक के समान], (विज्ञानम्) विज्ञान [विवेक] (वासः) वस्त्र [समान], (अहः)दिन (उष्णीषम्) [धूप रोकनेवाली] पगड़ी [समान], (रात्री) रात्री (केशाः) केश [समान], (हरितौ) दोनों धारण आकर्षण गुण (प्रवर्तौ) दो गोलकुण्डल [कर्णभूषण समान]और (कल्मलिः) [गति देनेवाली] तारों की झलक (मणिः) मणि [मणियों के हार समान]॥१–९॥

    भावार्थ

    मनुष्य वेदज्ञान औरमोक्षज्ञान द्वारा परमात्मा के प्राप्त करके दुष्कर्मों के सर्वथा त्याग औरसत्कर्मों के निरन्तर निष्काम अनुष्ठान से संसार में आनन्द पाता है ॥१˜८, १९, २०॥

    टिप्पणी

    १–९−(इरा)ऋज्रेन्द्राग्रवज्रविप्र०। उ० २।२८। इण् गतौ-रन्, टाप्, गुणाभावः। मद्यं वस्तु।मदिरा। इरा भूवाक्सुराप्सु स्यात्। अमर० २३।१७६। अन्यत् पूर्ववत्-म० ५ ॥

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    विषय

    प्रत्याहार में सफल बनने के लिए

    पदार्थ

    १. इस व्रात्य विद्वान् के प्रत्याहार की दिशा में चलने पर इस (पुंश्चली) = ज्ञानवाणी की अधिष्ठात्री देवता पत्नी के समान होती है-प्रेरणा देनेवाली होती है। (हस: मागधः) = हास्य इसका स्तुतिपाठक होता है, इसे अपने चारों ओर खिलते हुए फूल व चमकते हुए [twinkling] तारे प्रभु-स्तवन करते प्रतीत होते है। शेष पञ्चम मन्त्रवत्। २. (अह च रात्री च) = दिन और रात (परिष्कन्दौ) = सेवक [servant] होते हैं। दिन इसे यज्ञादि उत्तम कर्मों को करने का अवसर देता है और रात्री इसे अपने अन्दर फिर से शक्ति भरने में सहायक होती है। शेष सप्तमाष्टममन्त्रवत्।

    भावार्थ

    यह व्रात्य विद्वान् इस प्रत्याहार में सफलता प्राप्त करने के लिए सरस्वती का प्रिय बनता है, प्रसन्न रहता हुआ प्रभु-स्तवन करता है, दिन को यज्ञादि उत्तम कर्मों में व्यतीत करता है और रात्रि में विश्राम करता हुआ फिर से अपने में शक्ति भरता है।

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    भाषार्थ

    (इरा१) वेदवाणी (पुंश्चली) व्रात्यपुरुष-की-सहचारिणी२ धर्मपत्नी होती है, (हसः) प्रसन्नचित्त (मागधः) गायक होता है, (विज्ञानम्......) विज्ञान आदि, पूर्ववत् मन्त्र ५) ।

    टिप्पणी

    [वैरूप-और-वैराज-साम (मन्त्र १७,१८), वेदमन्त्रों पर गाए जाते हैं। इन के सहचार में इरा अर्थात् वाणी या वाक् का अभिप्राय है, - वेदवाणी। हसः="हस" का अर्थ है, हंसना, प्रसन्नमुखता। प्रसन्नमुखता निर्भर होती है चित्त की प्रसन्नता पर। अतः चित्त की प्रसन्नता को गायक कहा है, क्योंकि चित्त की प्रसन्नता होते ही गाना गाया जा सकता है]। [१. इरा= speech (आप्टे), अर्थात् वाणी। २. मन्त्र १३ में सतत मन्त्रजप का वर्णन हुआ है, जोकि इरारूप है, वेदवाणीरूप है। मन्त्ररूपी वेदवाणी के सततजप के कारण उसे सहचारिणी अर्थात् साथ-साथ विचरनेवाली कहा है।]

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    विषय

    व्रत्य प्रजापति का वर्णन।

    भावार्थ

    उसकी पश्चिम दिशा में इरा=अन्नपुंश्चली हस=आनन्द प्रमोद, उसका मागध = स्तुतिपाठक, विज्ञान वस्त्र, दिन पगड़ी रात्रि केश हैं, इत्यादि पूर्ववत् (ऋचा सं० ५) और रात्रि दो हरकारे मन रथ है, इत्यादि पूर्ववत् ऋचा (सं० ९)

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Ida, Vedic speech, becomes his love, happiness, his admirer, knowledge, his shawl, the day, his turban, the night, his hair, the sun and moon rays, his ear rings, brilliance, his jewel.

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    Translation

    The earth (ira) becomes his sweet heart, the laughter his praise-singer, comprehension his garment, day his turban, night his hair, two rays his two ear-rings, the brightness (of Stars) his jewel;

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    Translation

    The earth is like lady desiring her husband, smile or laughter like his panegyrist, science like his apron, day like his turban, night like hair, the two suns like attendents and the splendor of stars like jewel-

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    Translation

    The earth is his leman, laughter his panegyrist, Knowledge his vesture, day his turban, night his hair, the Sun and Moon his ear-rings, the splendor of the stars his jewel.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १–९−(इरा)ऋज्रेन्द्राग्रवज्रविप्र०। उ० २।२८। इण् गतौ-रन्, टाप्, गुणाभावः। मद्यं वस्तु।मदिरा। इरा भूवाक्सुराप्सु स्यात्। अमर० २३।१७६। अन्यत् पूर्ववत्-म० ५ ॥

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