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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - पदपङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    मा॑त॒रिश्वा॑ च॒पव॑मानश्च विपथवा॒हौ वातः॒ सार॑थी रे॒ष्मा प्र॑तो॒दः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा॒त॒रिश्वा॑ । च॒ । पव॑मान: । च॒ । वि॒प॒थ॒ऽवा॒हौ । वात॑: । सार॑थि: । रे॒ष्मा । प्र॒ऽतो॒द: ॥२.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मातरिश्वा चपवमानश्च विपथवाहौ वातः सारथी रेष्मा प्रतोदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मातरिश्वा । च । पवमान: । च । विपथऽवाहौ । वात: । सारथि: । रेष्मा । प्रऽतोद: ॥२.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (मातरिश्वा) आकाश मेंघूमनेवाला सूत्रात्मा [वायु विशेष] (च च) और भी (पवमानः) संशोधक वायु (विपथवाहौ) दो रथ ले चलनेवाले [बैल घोड़े आदि समान], (वातः) वात [सामान्य वायु] (सारथिः)सारथी [रथ हाँकनेवाले के समान] (रेष्मा) आँधी (प्रतोदः) अंकुश [कोड़ा, पैनासमान] ॥२७॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परमात्मामें लवलीन होता है, वही वेदज्ञान और मोक्षज्ञान से जितेन्द्रिय और सर्वहितैषीहोकर संसार में सब पदार्थों से उपकार लेकर आनन्द पाता है ॥२४-२८॥

    टिप्पणी

    २७−यथा मन्त्रः ७ ॥

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    विषय

    विद्युत, स्तनयित्नु, श्रुतविश्रुत

    पदार्थ

    १. इस उन्नति की दिशा में चलनेवाले व्रात्य की विद्यत (पंश्चली) = बिजली के समान विशिष्ट ज्ञान की दीप्ति पत्नी होती है-प्रेरिका होती है। (स्तनयित्नु) = मेघ गर्जना इसका (मागधः) = स्तुतिपाठ होता है। मेघ गर्जना में भी यह प्रभु की महिमा को देखता है। शेष पञ्चम मन्त्रवत्। २. (श्रुतं च विश्रुतं च) = प्रकृति-विज्ञान व अध्यात्म-विज्ञान इस व्रात्य विद्वान् के (परिष्कन्दौ) = सेवक होते हैं। प्रकृति-विज्ञान से यह अभ्युदय को सिद्ध करता है तो अध्यात्म-विज्ञान से यह निःश्रेयस की साधना करनेवाला होता है। शेष पूर्ववत्।

    भावार्थ

    यह व्रात्य विद्वान् निरन्तर उन्नत होने के लिए, विशिष्ट ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करने के लिए यत्नशील होता है। यह मेघ-गर्जना में भी प्रभु-स्तवन होता हुआ देखता है। प्रकृति विज्ञान इसके अभ्युदय का साधक होता है और आत्मविज्ञान इसे निःश्रेयस का अधिकारी बनाता है।

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    भाषार्थ

    अर्थ पूर्ववत् (१५।२।७)

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    विषय

    व्रत्य प्रजापति का वर्णन।

    भावार्थ

    उसकी उत्तर दिशा में विद्युत् पुंश्चली है, ‘स्तनयित्नु’ = गर्जन स्तुतिपाठक है, विज्ञान वस्त्र है इत्यादि (देखो ऋचा सं० ५) श्रुत और विश्रुत ये दोनों उसके हरकारे हैं मन रथ है। पूर्ववत, देखो व्याख्या (ऋचा सं० ८। ९)

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Cosmic energy and pranic energy, his chariot horses, the wind, his charioteer, the whirlwind, his goad,

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    Translation

    The atmospheric wind and the purifying wind (become) his two chariot-horses, the gale his charioteer and the tempest his whip;

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    Translation

    The Prana and Apaaa like chariot drawers, the air like charioteer and gust of wind like good.

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    Translation

    In-breath and out-breath are the horses of his chariot, air is his charioteer, storm his goad.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २७−यथा मन्त्रः ७ ॥

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