अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदार्ची जगती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
1
उषाः पुं॑श्च॒लीमन्त्रो॑ माग॒धो वि॒ज्ञानं॒ वासोऽह॑रु॒ष्णीषं॒ रात्री॒ केशा॒ हरि॑तौ प्रव॒र्तौक॑ल्म॒लिर्म॒णिः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒षा: । पुं॒श्च॒ली । मन्त्र॑: । मा॒ग॒ध: । वि॒ऽज्ञान॑म् । वास॑: । अह॑: । उ॒ष्णीष॑म् । रात्री॑ । केशा॑: । हरि॑तौ । प्र॒ऽव॒र्तौ । क॒ल्म॒लि: । म॒णि: ॥२.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
उषाः पुंश्चलीमन्त्रो मागधो विज्ञानं वासोऽहरुष्णीषं रात्री केशा हरितौ प्रवर्तौकल्मलिर्मणिः ॥
स्वर रहित पद पाठउषा: । पुंश्चली । मन्त्र: । मागध: । विऽज्ञानम् । वास: । अह: । उष्णीषम् । रात्री । केशा: । हरितौ । प्रऽवर्तौ । कल्मलि: । मणि: ॥२.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।
पदार्थ
(उषाः) हिंसा (पुंश्चली) पुंश्चली [पर पुरुषों में जानेवाली व्यभिचारिणी स्त्री, तथापरस्त्रीगामी व्यभिचारी पुरुष के समान घृणित], (मन्त्रः) मननगुण (मागधः) भाट [स्तुतिपाठक के समान], (विज्ञानम्) विज्ञान [विवेक] (वासः) वस्त्र [समान], (अहः)दिन (उष्णीषम्) [धूप रोकनेवाली] पगड़ी [समान], (रात्री) रात्री (केशाः) केश [समान], (हरितौ) दोनों धारण आकर्षण गुण (प्रवर्तौ) दो गोल कुण्डल [कर्णभूषणसमान] और (कल्मलिः) [गति देनेवाली] तारों की झलक (मणिः) मणि [मणियों के हारसमान] ॥१३॥
भावार्थ
जो मनुष्य परमात्मा केज्ञान के साथ अविद्या के त्याग और विद्या की प्राप्ति से योग्य पदार्थों केउपकार और अयोग्यों के अपकार को जानकर अपना कर्तव्य करता है, वह संसार मेंकीर्तिमान् और यशस्वी होता है ॥१२-१४॥
टिप्पणी
१३−(उषाः) उषः किच्च।उ० ४।२३४। उष दाहे वधे च-असि। हिंसा (मन्त्रः) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९।मन ज्ञाने-ष्ट्रन्। मननगुणः। अन्यत् पूर्ववत्-म० ५ ॥
विषय
उषा, अमावास्या, पौर्णमासी
पदार्थ
१. दक्षिण दिशा में-नैपुण्य की दिशा में गतिवाले इस विद्वान् व्रात्य की (उषा:) = उषा (पुंश्चली) = नारी के समान होती है, इसे कर्मों में प्रेरित करती है। यह उषा में ही उठकर कर्तव्य कर्मों का प्रारम्भ करता है। (मन्त्र: मागध:) = वेदमन्त्र इसके स्तुति-पाठक होते हैं। यह मन्त्रों द्वारा प्रभु-स्तवन करता है। शेष मन्त्र पञ्चमवत्। २. (अमावास्या च पौर्णमासी च परिष्कन्दौ) = अमावास्या और पौर्णमासी इसके सेवक होते हैं। अमावास्या से यह अपने जीवन में सूर्य-चन्द्र के समन्वय का पाठ पढ़ता है। मस्तिष्क में ज्ञानसूर्य को तथा हृदय में मन:प्रसादरूप चन्द्र को उदित करने का प्रयत्न करता है तथा पौर्णमासी से जीवन को पूर्ण चन्द्र की भाँति सोलह कला सम्पूर्ण बनाने के लिए यत्नशील होता है। शेष मन्त्र षष्टवत्।
भावार्थ
यह विद्वान् व्रात्य आगे बढ़ता हुआ, नैपुण्य को प्राप्त करता हुआ, ऐश्वर्यसम्पन्न होकर भी उषाकाल में प्रबुद्ध होकर मन्त्रों द्वारा प्रभु-स्तवन करता है। अपने जीवन में ज्ञान व मन:प्रसाद का समन्वय करता है और जीवन को पूर्ण व चन्द्र की भाँति सोलह कला सम्पन्न बनाता है।
भाषार्थ
(उषाः) अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाली नवोत्पन्ना ज्ञानप्रकाशमयी योगजन्याप्रज्ञा (पुंश्चली) व्रात्यपुरुष की सहचारिणी धर्मपत्नी होती है, (मन्त्रः) [सतत मन्त्रजप द्वारा] मन्त्रमय हुआ व्रात्य (मागधः) स्वयं मानो सामगायक होता है। शेषपूर्ववत् (मन्त्र ५)।
टिप्पणी
[उषाः = "उषाः कस्मादुच्छतीति सत्याः" (निरू० २।३।१९), अर्थात् "उषाः" विवासार्थक "उच्छी" धातु से निष्पन्न है। विवास का अर्थ है स्थान-से-च्युत करना। ज्ञानप्रकाशमयी योगजन्याप्रज्ञा चित्तस्थ प्रज्ञान को दूर करती है, जैसे कि प्रातःकाल की उषा रात्री के अन्धकार को स्थान-च्युत कर देती है। शेष व्याख्या पूर्ववत् (मन्त्र ५)।]
विषय
व्रत्य प्रजापति का वर्णन।
भावार्थ
(यः एवं विद्वासं व्रात्यम् उपददति) जो ऐसे विद्वान् ब्रात्य की निन्दा करता है (यज्ञायज्ञियाय, च, वै सः वामदेव्याय च यज्ञाय च, यजमानाय च पशुभ्यः च प्रावृश्चते) वह यज्ञायज्ञिय, वामदेव्य, यज्ञ, यजमान, और पशुओं के प्रति अपराधी होता है। और (य एवं वेद) जो उस प्रकार व्रात्य प्रजापति का स्वरूप जान लेता है वह (यज्ञायज्ञियस्य च चै सः वामदेव्यस्य च यज्ञस्य च पशूनां च प्रियं धाम भवति) यज्ञायज्ञिय, वामदेव्य, यज्ञ, यजमान, और पशुओं का भी प्रियाश्रय हो जाता है। (दक्षिणायाम् दिशि तस्य) दक्षिण दिशा में उसकी (पुंश्चली उपाः) उषा, पुंश्चली, नारी के समान है। (मन्त्रः मागधः) वेद मन्त्र समूह उसके स्तुति पाठक के समान, (विज्ञानं वासः) विज्ञान उसके वस्त्र के समान, (श्रहः उष्णीपम् रात्री केशाः हरितौ प्रवत्तौ कल्मलिः मणिः) दिन पगड़ी, रात्रि केश, सूर्य चन्द्र दोनों कुण्डल और तारे गले में पड़ी मणियां हैं। १॥ १३॥ (श्रमवास्या च पौर्णमासी च परिष्कन्दौ मनो विपथम्) अमावस्या और पौर्णमासी दोनों हरकारे हैं। मन उसका रथ है। (मातरिश्वा च० इत्यादि) पूर्ववत् ऋचा सं० ७८ की व्याख्या देखो॥ १४॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
The dawn becomes his favourite friend and love, mantra, his admirer, knowledge, his shawl, day, his turban, night, his hair, sun and moon rays, his ear pendants, splendour, his jewel.
Translation
The dawn becomes his sweet heart, the hymn his praisesinger, comprehension his garment, day his turban, night his hair, two rays his two ear-rings, the brightness (of stars) his jewel;
Translation
Dawn like lady desiring her husdand, vedic hymn like penegyrist, science like his apron, day like turban, night like hair, the suns (rising and setting) like two ornament of ear and splendor of stars like his jewel.
Translation
Dawn is his leman, Vedic hymns his panegyrist, knowledge his vesture, day his turban, night his hair, the Sun and Moon his ear-ornaments, the splendor of the stars his jewel.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(उषाः) उषः किच्च।उ० ४।२३४। उष दाहे वधे च-असि। हिंसा (मन्त्रः) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९।मन ज्ञाने-ष्ट्रन्। मननगुणः। अन्यत् पूर्ववत्-म० ५ ॥
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