अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 17
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदा विराट् आर्षी पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
1
वै॑रू॒पाय॑ च॒ वैस वै॑रा॒जाय॑ चा॒द्भ्यश्च॒ वरु॑णाय च॒ राज्ञ॒ आ वृ॑श्चते॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॒व्रात्य॑मुप॒वद॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒रू॒पाय॑ । च॒ । वै । स: । वै॒रा॒जाय॑ । च॒ । अ॒त्ऽभ्य: । च॒ । वरु॑णाय । च॒ । राज्ञे॑ । आ । वृ॒श्च॒ते॒ । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । व्रात्य॑म् । उ॒प॒ऽवद॑ति ॥२.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
वैरूपाय च वैस वैराजाय चाद्भ्यश्च वरुणाय च राज्ञ आ वृश्चते य एवं विद्वांसंव्रात्यमुपवदति ॥
स्वर रहित पद पाठवैरूपाय । च । वै । स: । वैराजाय । च । अत्ऽभ्य: । च । वरुणाय । च । राज्ञे । आ । वृश्चते । य: । एवम् । विद्वांसम् । व्रात्यम् । उपऽवदति ॥२.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।
पदार्थ
(सः) वह [मूर्ख] (वै)निश्चय करके (वैरूपाय) वैरूप [विविध पदार्थों के जतानेवाले वेदज्ञान] के लिये (चच) और भी (वैराजाय) वैराज [विराट् रूप, बड़े ऐश्वर्यवान् वा प्रकाशमान परमात्माके स्वरूप के प्राप्त करानेवाले मोक्षज्ञान] के लिये (च) और (अद्भ्यः) प्रजाओंके लिये (च) और (राज्ञे) राजा [ऐश्वर्यवान्] (वरुणाय) श्रेष्ठ जीव [मनुष्य] केलिये (आ) सब प्रकार (वृश्चते) दोषी होता है, (यः) जो मूर्ख (एवम्) व्यापक (विद्वांसम्) ज्ञानवान् (व्रात्यम्) व्रात्य [सब समूहों के हितकारी परमात्मा] को (उपवदति) बुरा कहता है ॥१७॥
भावार्थ
परमात्मा के ज्ञान सेविमुख पुरुष सब संसार की हानि करके पापी होता है ॥१७॥
टिप्पणी
१७−(वैरूपाय) म० १६।विविधपदार्थानां निरूपकाय वेदज्ञानाय (वैराजाय) विराड्रूपस्य परमात्मनःस्वरूपस्य प्रापकाय मोक्षज्ञानाय (अद्भ्यः) प्रजाभ्यः (वरुणाय) श्रेष्ठजीवायमनुष्याय (राज्ञे) ऐश्वर्यवते। अन्यत् पूर्ववत्-म० ३ ॥
विषय
प्रतीची दिशा में 'वैरूप, वैराज, आपः, वरुण राजा'
पदार्थ
१.(सः) = वह व्रात्य विद्वान (उदतिष्ठत) = उठा और आलस्य को दूर भगाकर (प्रतीचीं दिशं अनुव्यचलत्) = प्रतीची दिशा की ओर प्रति अञ्च' प्रत्याहार की दिशा में चला। इन्द्रियों को इसने विषय-व्यावृत्त करने का प्रयत्न किया। २. इस प्रत्याहार के होने पर (तम्) = उस व्रात्य विद्वान् को (वैरूपं च) = विशिष्ट तेजस्वीरूप (वैराजं च) = विशिष्ट ज्ञानदीप्ति, (आप: च) = रेत:कण [आप: रेतो भूत्वा०], (वरुणः च राजा) = और जीवन को दीप्त करनेवाला [राजा], नि?षता का भाव (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुए। ३. (सः) = वह व्रात्य विद्वान् (वै) = निश्चय से (वैरूपाय च) = विशिष्ट तेजस्वीरूप के लिए, (वैराजाय च) = विशिष्ट ज्ञानदीप्ति के लिए, (अजय: च) = शरीर में रेत:कणों के रक्षण के लिए (च) = तथा (वरुणाय राज्ञः) = जीवन को दीप्त बनानेवाले निडेषता के भाव के लिए (आवश्चते) = समन्तात् वासनाओं का छेदन करता है। यह पुरुष भी वासनाओं का छेदन करता है, (यः) = जो (एवम्) = इसप्रकार (व्रात्यम्) = वती (विद्वांसम्) = विद्वान् के (उपवदति) = समीप होकर इन बातों की चर्चा करता है ४. (स:) = वह (वैरूपस्य च) = विशिष्ट तेजस्वीरूप का, (वैराजाय च) = विशिष्ट ज्ञानदीति का, (अपां च) = रेत:कणों का (च) = और (राज्ञः वरुणस्य) = जीवन को दीप्त बनानेवाले निद्वेषता के भाव का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय स्थान बनता है। (तस्य) = उस विद्वान् व्रात्य के (प्रतीच्यां दिशि) = इस प्रत्याहार की दिशा में 'वैरूप, वैराज्ञ, आपः और वरुण राजा' साथी बनते हैं।
भावार्थ
यह व्रात्य विद्वान् प्रत्याहार के द्वारा 'विशिष्ट तेजस्वीरूप को, विशिष्ट ज्ञानदीप्ति को, रेत:कणों को तथा जीवन को दीप्स बनानेवाली निढेषता' को प्राप्त करता है।
भाषार्थ
(वै) निश्चय से (सः) वह व्यक्ति, (वैरूपाय च) वैरूप सामगानों से, (वैराजाय च) और वैराज सामगानों से, (अद्भ्यः च) सामुद्रिक जलीय दृश्यों से, (वरुणाय च राज्ञः) और वरुण राजा की कृपा से, (आ वृश्चते) अपने-आप को पूर्णतया वञ्चित कर लेता है (यः) जो कि (एवम्) इस प्रकार के (विद्वांसम्) विद्वान् (व्रात्यम्) व्रती तथा परहितकारी संन्यासी के (उप) समीप अर्थात् संगति में रहकर (वदति) उस के साथ वाद-विवाद करता है।
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
The person who reviles Vratya and the scholar of Vratya knowledge alienates himself so far as benefits of Vairupa, Vairaja, waters and Varuna are concerned.
Translation
From the Vairüpa Saman and from the Vairaja Saman, from the waters and from the venerable king is he cut off, whoso reviles such a knowledgeable wandering saint;
Translation
He who veriles vratya who is possessor of this knowledge is alienated from yairupya, vairajya, waters and the resplendent air.
Translation
He offends against Vedic knowledge, the knowledge of salvation, material objects, and all dignified noble persons, who reviles God the Master of knowledge.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−(वैरूपाय) म० १६।विविधपदार्थानां निरूपकाय वेदज्ञानाय (वैराजाय) विराड्रूपस्य परमात्मनःस्वरूपस्य प्रापकाय मोक्षज्ञानाय (अद्भ्यः) प्रजाभ्यः (वरुणाय) श्रेष्ठजीवायमनुष्याय (राज्ञे) ऐश्वर्यवते। अन्यत् पूर्ववत्-म० ३ ॥
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