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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 21
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - साम्नी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    स उद॑तिष्ठ॒त्सउदी॑चीं॒ दिश॒मनु॒ व्यचलत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । उत् । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । स: । उदी॑चीम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि । अ॒च॒ल॒त् ॥२.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स उदतिष्ठत्सउदीचीं दिशमनु व्यचलत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । उत् । अतिष्ठत् । स: । उदीचीम् । दिशम् । अनु । वि । अचलत् ॥२.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 21
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [व्रात्यपरमात्मा] (उत् अतिष्ठत्) खड़ा हुआ, (सः) वह (उदीचीम्) बायीं [अथवा उत्तर] (दिशम् अनु) दिशा की ओर (वि अचलत्) विचरा ॥२१॥

    भावार्थ

    मनुष्य जगदीश्वर कोबायीं ओर वा उत्तर दिशा में वर्तमान जानकर आत्मोन्नति करे ॥२१॥

    टिप्पणी

    २१−(उदीचीम्)वामभागवर्तमानाम्। उत्तरभागस्थाम्। अन्यत् पूर्ववत्-म० १ ॥

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    विषय

    उदीची दिशा में 'श्यैत, नौधस, सप्तर्षि, सोम राजा'

    पदार्थ

    १. (स:) = वह व्रात्य (उदतिष्ठत्) = आलस्य छोड़कर उठ खड़ा हुआ और (स:) = वह इन्द्रियों को विषयों से व्यावृत्त करके (उदीचीं दिशं अनुव्यचलत्) = उत्तर दिशा की ओर-उन्नति की ओर क्रमश: चला। २. (तम्) = उन्नति की दिशा में चलते हुए उसको (श्यैतं च) = [श्यै गतौ] गतिशीलता (नौधसं च) = [नौधा ऋषिर्भवति भवनं दधाति-नि०] प्रभु-स्तवन, (सप्तर्षयः च) = 'दो कान, दो औंखें, दो नासिका-छिद्र व मुख' रूप सप्तर्षयः और राजा (सोमः) = जीवन को दीस बनानेवाला सोम [वीर्यशक्ति]-ये सब (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुए। ३. (स:) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से (श्यैताय च) = गतिशीलता के लिए (नौधसाय च) = प्रभु-स्तवन के लिए, (सप्तर्षभ्यः च) = कान आदि सप्तर्षियों के लिए (च) = और (राज्ञे सोमाय) = जीवन को दीप्स बनानेवाले सोम [वीर्य] के लिए (आवृश्चते) = समन्तात् वासनाओं का विनाश करता है। वह भी वासनाओं का विनाश करता है (यः) = जो (एवम्) = इसप्रकार (व्रात्यम्) = व्रती (विद्वांसम्) = विद्वान् को (उपवदति) = समीपता से प्रास होकर इस उन्नति के मार्ग की चर्चा करता है। ४. (स:) = वह व्रात्य विद्वान् (वै) = निश्चय से (श्यैतस्य च) = क्रियाशीलता का (नौधसस्य च) = प्रभु-स्तवन की वृत्ति का (सप्तर्षीणां च) = कान आदि समर्षियों का (च) = और (राज्ञः सोमस्य) = जीवन को दीस बनानेवाले सोम का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय स्थान बनता है। (तस्य) = उस व्रात्य विद्वान् के (उदीच्यां दिशि) = उत्तर दिशा में-उन्नति की दिशा में "श्यैत, नवधस, सप्तर्षि व सोम राजा' साथी होते हैं।

    भावार्थ

    यह व्रात्य विद्वान् उन्नति की दिशा में आगे बढ़ता हुआ 'गतिशीलता, प्रभु-स्तवन, सप्तर्षियों द्वारा ज्ञानप्राप्ति तथा सोमरक्षण द्वारा दीस जीवन' को प्राप्त करता है।

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    भाषार्थ

    (सः) वह व्रती तथा परहितकारी संन्यासी (उदतिष्ठत्) उठा, प्रयत्नवान् हुआ, (सः) वह (उदीचीम्, दिशम्, अनु) उत्तर दिशा के साथ साथ, या उसे लक्ष्य करके (व्यचलत्) विशेषतया चला या विचरा।

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    विषय

    व्रत्य प्रजापति का वर्णन।

    भावार्थ

    वह व्रात्य प्रजापति उठा। वह उदीची=उत्तर दिशा में चला।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    He arose, moved into the northern quarter.

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    Translation

    He rose up. He started moving towards the northern quarter.

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    Translation

    He (the Vratya) stands up and he walks to the northern region.

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    Translation

    God appeared and manifested Himself in the northern region.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २१−(उदीचीम्)वामभागवर्तमानाम्। उत्तरभागस्थाम्। अन्यत् पूर्ववत्-म० १ ॥

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