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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    की॒र्तिश्च॒यश॑श्च पुरःस॒रावैनं॑ की॒र्तिर्ग॑च्छ॒त्या यशो॑ गच्छति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    की॒र्ति: । च॒ । यश॑: । च॒ । पु॒र॒:ऽस॒रौ । आ । ए॒न॒म् । की॒र्ति: । ग॒च्छ॒ति॒ । आ । यश॑: । ग॒च्छ॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥२.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कीर्तिश्चयशश्च पुरःसरावैनं कीर्तिर्गच्छत्या यशो गच्छति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कीर्ति: । च । यश: । च । पुर:ऽसरौ । आ । एनम् । कीर्ति: । गच्छति । आ । यश: । गच्छति । य: । एवम् । वेद ॥२.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
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    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (कीर्तिः) कीर्ति [दानआदि से बड़ाई] (च च) और (यशः) यश [शूरता आदि से बड़ाई] (पुरः सरौ) दो अग्रधावक [पावक समान] हैं, (एनम्) उस [विद्वान्] को (कीर्तिः) कीर्ति [दान आदि से बड़ाई] (आ) आकर (गच्छति) मिलती है, (यशः) यश [शूरता आदि से बड़ा नाम] (आ) आकर, (गच्छति)मिलता है, (यः) जो [विद्वान्] (एवम्) ऐसे वा व्यापक [व्रात्य परमात्मा] को (वेद)जानता है ॥८॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य योगाभ्यासकरके शुद्ध ज्ञान द्वारा परमाणु से लेकर परमेश्वर तक साक्षात् करलेता है, वहपूर्णकाम और पूर्णविज्ञानी होकर संसार में अपने आप कीर्ति और यश पाता है॥४-८॥

    टिप्पणी

    ८−(कीर्तिः) दानादिप्रभवा ख्यातिः (च) (यशः) दानादिप्रभवं नाम (च) (पुरःसरौ) अग्रधावकौ (आ) आगत्य (एनम्) विद्वांसम् (कीर्तिः) (गच्छति) प्राप्नोति (आ) (यशः) (गच्छति) (यः) विद्वान् पुरुषः (एवम्) म० ३। ईदृशं व्यापकं वापरमात्मानम् (वेद) जानाति ॥

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    विषय

    श्रद्धा [कीर्ति और यश] मातरिश्वा पवमान

    पदार्थ

    १. प्राची दिशा में आगे बढ़नेवाले इस विद्वान् व्रात्य की (श्रद्धा पुंश्चली) = श्रद्धा प्रेरिका भावना होती है [प्रमोर्स चालयति प्रेरयति]! यह अपने अग्रगति के मार्ग पर श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ता है। इसके लिए (मित्र:) = प्राणशक्ति के संचार द्वारा मृत्यु से रक्षित करनेवाला [प्रमीते त्रायते] सूर्य (मागधः) = स्तुति पाठक होता है। सूर्य इन्हें प्रभु-स्तवन करता प्रतीत होता है। सूर्य प्रभु की अद्भुत विभूति है-यह प्रभु की महिमा का मानो गायन करता है। (विज्ञानं वास:) = विज्ञान इसका वस्त्र होता है। विज्ञान इसके आच्छादन का साधन बनता है। (अहः उष्णीषम्) = दिन इसका उष्णीष स्थानापन्न होता है। दिन को यह शिरोवेष्टन-मुकुट बनाता है। दिन के एक-एक क्षण को यह उपयुक्त करता हुआ उन्नति-शिखर पर पहुँचने के लिए यत्नशील होता है। (रात्री केश:) = रात्रि इसके केश बनते हैं। केश जैसे सिर के रक्षक होते हैं उसीप्रकार रात्रि इसके लिए रमयित्री होती हुई इसे स्वस्थ मस्तिष्क बनाती है। (हरितौ) = अन्धकार का हरण करनेवाले सूर्य और चन्द्र प्रवतौ इसे विराट् पुरुष के कुण्डल प्रतीत होते हैं और (कल्मलि:) = तारों की ज्योति [splendour] (मणि:) = उसे विराट् पुरुष की मणि प्रतीत होती है। ये सूर्य-चन्द्र व तारों में प्रभु की महिमा को देखता है। २. (भूतं च भविष्यत् च) = भूत और भविष्यत् (परिष्कन्दौ) = इसके दास [servent] होते हैं। भूत से यह गलतियों को न करने का पाठ पढ़ता है और भविष्यत् को उज्ज्वल बनाने के स्वप्न लेता है तथा प्रवृद्ध पुरुषार्थवाला होता है। (मन:) = मन इसका (विपथम्) = विविध मार्गों से गति करनेवाला युद्ध का रथ होता है। मन के दृढ़ संकल्प से ही तो इसने जीवन-संग्राम में विजय पानी है। ३. (मातरिश्वा च पवमानश्च) = श्वास तथा उच्चास इसके (विपथवाहौ) = मनरूपी रथ के वाहक घोड़े होते हैं। प्राणापान के द्वारा ही जीवन-रथ आगे बढ़ता है। (वात: सारथी) = क्रियाशीलता [वा गतौ] इस रथ का सारथि है। (रेष्मा प्रतोदः) = वासनाओं का संहार ही चाबुक है। ४. (कीर्तिः च यश: च) = प्रभु-गुणगान [glory, speach] व [कीर्तन तथा दीप्ति splendour] इसके (पुर: सरौ) = आगे चलनेवाले होते हैं। (यः एवं वेदः) = जो इसप्रकार इस सारी बात को समझ लेता है, वह भी इस मार्ग पर चलता है और (कीर्तिः गच्छति) = कीर्ति प्राप्त होती है तथा (यश:) = गच्छति यश प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    विद्वान् व्रात्य जब प्राची दिशा में [अग्न गति की दिशा में] आगे बढ़ता है तब उसे श्रद्धा, कीर्ति व यशादि प्राप्त होते हैं।

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    भाषार्थ

    (कीर्त्तिः च) व्रती तथा परोपकारी संन्यासी के सद्गुणों और सत्कर्मों का संकीर्तन१, (यशः च) और यश (पुरः२ सरौ) इस के आगे-आगे चलते हैं। (एनम्) इस व्यक्ति को भी (कीर्त्तिः) संकीर्तन (आ गच्छति) प्राप्त होता है, (यशः) तथा यश (आ गच्छति) प्राप्त होता है, (यः) जोकि (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता, तथा तदनुसार कर्म या आचरण करता है ।

    टिप्पणी

    [कीर्त्ति = यशोगान; "कीर्त्यते संशब्द्यते सा कीर्त्तिः" (उणा० ४।१२०, म० दया०)। वेद = जानता है। वैदिक दृष्टि में वेदन अर्थात् ज्ञान "क्रियार्थ" होता है। केवल ज्ञानमात्र से वस्तु की प्राप्ति नहीं होती, जब तक विचारपूर्वक तदनुसार आचरण न किये जांय] यथा " आम्नायस्य क्रियार्थत्वात् आनर्थक्यमतदर्थानाम्" (पूर्वमीमांसा)।][१. कीर्तन = संकीर्तन = यशोगान। २. संन्यासी की कीर्त्ति-और यश, संन्यासी के अभिप्रेत स्थान में पहुंचने से पहिले ही मानो पहुंचे हुए होते हैं, और प्रजाजन उस के स्वागत के लिये तैयार रहते हैं।]

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    विषय

    व्रत्य प्रजापति का वर्णन।

    भावार्थ

    (कीर्त्तिः च) कीर्त्ति और (यशः च) यश उसके (पुरःसरौ) आगे चलने वाले हरकारे हैं। (यः एवं वेद) जो प्रजापति के इस प्रकार के स्वरूप का साक्षात् कर लेता है (एनं) उसको (कीर्त्तिः गच्छति) कीर्ति प्राप्त होती है और (यशः आ गच्छति) यश प्राप्त होता है। महादेव के त्रिपुर विजयी रथ के पौराणिक अलंकार की इससे तुलना करनी चाहिये।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Honour and fame his fore-running pilots. Honour and fame indeed receive and welcome him who knows this for truth and follows Vratya, lord creator and benefactor of his children.

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    Translation

    Glory and fame (become) his two fore-runners; to him comes the glory, (to him) comes the fame, who knows it thus.

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    Translation

    The fame and glory are his harbingers, the prominence and glory come to him who knows this.

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    Translation

    Fame and glory are his harbingers. Fame and glory come to him who hath this knowledge of god.

    Footnote

    The learned visualize God in the northern and southern regions, in fact in all the four directions, East, South, West, North.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(कीर्तिः) दानादिप्रभवा ख्यातिः (च) (यशः) दानादिप्रभवं नाम (च) (पुरःसरौ) अग्रधावकौ (आ) आगत्य (एनम्) विद्वांसम् (कीर्तिः) (गच्छति) प्राप्नोति (आ) (यशः) (गच्छति) (यः) विद्वान् पुरुषः (एवम्) म० ३। ईदृशं व्यापकं वापरमात्मानम् (वेद) जानाति ॥

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