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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदार्ची जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    श्र॒द्धापुं॑श्च॒ली मि॒त्रो मा॑ग॒धो वि॒ज्ञानं॒ वासोऽह॑रु॒ष्णीषं॒ रात्री॒ केशा॒ हरि॑तौप्रव॒र्तौ क॑ल्म॒लिर्म॒णिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्र॒ध्दा । पुं॒श्च॒ली । मि॒त्र: । मा॒ग॒ध: । वि॒ऽज्ञान॑म् । वास॑: । अह॑: । उ॒ष्णीष॑म् । रात्री॑ । केशा॑: । हरि॑तौ । प्र॒ऽव॒र्तौ । क॒ल्म॒लि: । म॒णि: ॥२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रद्धापुंश्चली मित्रो मागधो विज्ञानं वासोऽहरुष्णीषं रात्री केशा हरितौप्रवर्तौ कल्मलिर्मणिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रध्दा । पुंश्चली । मित्र: । मागध: । विऽज्ञानम् । वास: । अह: । उष्णीषम् । रात्री । केशा: । हरितौ । प्रऽवर्तौ । कल्मलि: । मणि: ॥२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (श्रद्धा) इच्छा (पुंश्चली) पुंश्चली [पर पुरुषों में जानेवाली व्यभिचारिणी स्त्री, तथापरस्त्रीगामी व्यभिचारी पुरुष के समान घृणित] (मित्रः) स्नेह (मागधः) भाट [स्तुतिपाठक के समान], (विज्ञानम्) विज्ञान [विवेक] (वासः) वस्त्र [समान], (अहः)दिन (उष्णीषम्) [धूप रोकनेवाली] पगड़ी [समान], (रात्री) रात्री (केशाः) केश [समान], (हरितौ) दोनों धारण आकर्षण गुण (प्रवर्तौ) दो गोलकुण्डल [कर्णभूषण समान]और (कल्मलिः) [गति देनेवाली] तारा गुणों की झलक (मणिः) मणि [मणियों के हार समान]॥५॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य योगाभ्यासकरके शुद्ध ज्ञान द्वारा परमाणु से लेकर परमेश्वर तक साक्षात् कर लेता है, वहपूर्णकाम और पूर्ण विज्ञानी होकर संसार में अपने आप कीर्ति और यश पाता है॥४-८॥

    टिप्पणी

    ५−(श्रद्धा) श्रिञ्सेवायाम्, श्रिय दाहे, श्री पाके वा-डति+डुधाञ् धारणपोषणयोः-अङ्, टाप्। इच्छा।श्रद्धा संप्रत्ययः स्पृहा-अमर० २३।१०२। (पुंश्चली) पुंस्सु अन्यपुरुषेषुचलतीति। पुंस्+चल गतौ-अच्, ङीष्। व्यभिचारिणी कुलटेव घृणिता (मित्रः) स्नेहः (मागधः) मगि गतौ-घञ्+धा-क, पृषोदरादिरूपम्। स्तुतिपाठको यथा (विज्ञानम्) विवेकः (वासः) वस्त्रं यथा (अहः) दिनम् (उष्णीषम्) उष्ण+ईष हिंसायाम्-क, शकन्ध्वादिरूपम् तापनिवारकं शिरोवेष्टनवस्त्रं यथा (रात्री) (केशाः) (हरितौ)धारणाकर्षणगुणौ (प्रवर्तौ) वृतु वर्तने-अच्। द्वे वर्तुले कुण्डले। कर्णभूषणे (कल्मलिः) अर्तिस्तुसुहु०। उ० १।१४०। कल गतौ-मन्+ला दाने-कि। गतिदात्रीतारादीप्तिः (मणिः) मणिभूषणं यथा ॥

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    विषय

    श्रद्धा [कीर्ति और यश] मातरिश्वा पवमान

    पदार्थ

    १. प्राची दिशा में आगे बढ़नेवाले इस विद्वान् व्रात्य की (श्रद्धा पुंश्चली) = श्रद्धा प्रेरिका भावना होती है [प्रमोर्स चालयति प्रेरयति]! यह अपने अग्रगति के मार्ग पर श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ता है। इसके लिए (मित्र:) = प्राणशक्ति के संचार द्वारा मृत्यु से रक्षित करनेवाला [प्रमीते त्रायते] सूर्य (मागधः) = स्तुति पाठक होता है। सूर्य इन्हें प्रभु-स्तवन करता प्रतीत होता है। सूर्य प्रभु की अद्भुत विभूति है-यह प्रभु की महिमा का मानो गायन करता है। (विज्ञानं वास:) = विज्ञान इसका वस्त्र होता है। विज्ञान इसके आच्छादन का साधन बनता है। (अहः उष्णीषम्) = दिन इसका उष्णीष स्थानापन्न होता है। दिन को यह शिरोवेष्टन-मुकुट बनाता है। दिन के एक-एक क्षण को यह उपयुक्त करता हुआ उन्नति-शिखर पर पहुँचने के लिए यत्नशील होता है। (रात्री केश:) = रात्रि इसके केश बनते हैं। केश जैसे सिर के रक्षक होते हैं उसीप्रकार रात्रि इसके लिए रमयित्री होती हुई इसे स्वस्थ मस्तिष्क बनाती है। (हरितौ) = अन्धकार का हरण करनेवाले सूर्य और चन्द्र प्रवतौ इसे विराट् पुरुष के कुण्डल प्रतीत होते हैं और (कल्मलि:) = तारों की ज्योति [splendour] (मणि:) = उसे विराट् पुरुष की मणि प्रतीत होती है। ये सूर्य-चन्द्र व तारों में प्रभु की महिमा को देखता है। २. (भूतं च भविष्यत् च) = भूत और भविष्यत् (परिष्कन्दौ) = इसके दास [servent] होते हैं। भूत से यह गलतियों को न करने का पाठ पढ़ता है और भविष्यत् को उज्ज्वल बनाने के स्वप्न लेता है तथा प्रवृद्ध पुरुषार्थवाला होता है। (मन:) = मन इसका (विपथम्) = विविध मार्गों से गति करनेवाला युद्ध का रथ होता है। मन के दृढ़ संकल्प से ही तो इसने जीवन-संग्राम में विजय पानी है। ३. (मातरिश्वा च पवमानश्च) = श्वास तथा उच्चास इसके (विपथवाहौ) = मनरूपी रथ के वाहक घोड़े होते हैं। प्राणापान के द्वारा ही जीवन-रथ आगे बढ़ता है। (वात: सारथी) = क्रियाशीलता [वा गतौ] इस रथ का सारथि है। (रेष्मा प्रतोदः) = वासनाओं का संहार ही चाबुक है। ४. (कीर्तिः च यश: च) = प्रभु-गुणगान [glory, speach] व [कीर्तन तथा दीप्ति splendour] इसके (पुर: सरौ) = आगे चलनेवाले होते हैं। (यः एवं वेदः) = जो इसप्रकार इस सारी बात को समझ लेता है, वह भी इस मार्ग पर चलता है और (कीर्तिः गच्छति) = कीर्ति प्राप्त होती है तथा (यश:) = गच्छति यश प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    विद्वान् व्रात्य जब प्राची दिशा में [अग्न गति की दिशा में] आगे बढ़ता है तब उसे श्रद्धा, कीर्ति व यशादि प्राप्त होते हैं।

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    भाषार्थ

    (श्रद्धा) श्रद्धा (पुंश्चली) पुरुष की सहचारिणी धर्मपत्नी के समान होती है, (मित्रः) मैत्रीभावना वाला व्यक्ति (मागधः) सामगायक होता है, (विज्ञानम्) ज्ञान-विज्ञान (व सः) वस्त्र होता है, (अहः) दिन (उष्णीषम्) पगड़ी, और (रात्री) रात्री (वेशाः) सिर के केश, (हरितौ) मनोहारी सूर्य-चांद (प्रवर्तौ) दो वृत्ताकार कर्ण-कुण्डल, तथा (कल्मलिः) कुड्मल अर्थात् फूलों की कलियां (मणि) मणियां होती हैं।

    टिप्पणी

    [प्रवर्तै = प्र + वृत् + अच् = प्रकर्षेण वर्तुलौ वृत्ताकारौ। पुंश्चली= भाष्यकारों ने इस का अर्थ किया है, - व्यभिचारिणी स्त्री। श्रद्धा को व्यभिचारिणी स्त्री से रूपित या उपमित करना हास्यास्पद है। योगदर्शन व्यासभाष्य में श्रद्धा को माता कहा है जोकि योगी का कल्याण करनेवाली और उस की रक्षिका होती है, और उसे विपथगमन से बचाती रहती है। यथा "श्रद्धा जननीव कल्याणी योगिनं पाति"। तथा "श्रद्धावीर्य-स्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्" (योग १।१०) में श्रद्धा को योगनिष्ठ होने का मुख्य साधन दर्शाया है]। वासः = वस्त्र होता है शरीर की रक्षा तथा लाज रखनेवाला। संन्यासी के ज्ञान और विज्ञान उस की रक्षा करते, तथा उस की लाज रखते हैं। महर्षि दयानन्द, लंगोट-धारी वस्त्रहीन संन्यासी बन कर, प्रथम प्रचार करते रहे। वैदिक-प्रथा का अनुकरण जैनी दिगम्बर संन्यासी भी करते हैं। नागा साधु इस प्रथा के भ्रष्टरूप के उदाहरण हैं। उष्णीषम् = पगड़ी। संन्यासी की पगड़ी नहीं होती। उस के व्युप्त-केश-सिर पर चमकते दिन को उस की पगड़ी कहा है। शुक्लवर्ण की पगड़ी श्रेष्ठ होती है। दिन शुक्लवर्ण वाला होता है। अतः वह पगड़ीरूप है। व्युप्तकेशी संन्यासी के केश नहीं होते। केशों के कृष्णवर्ण के कारण रात्री को केशरूप कहा है। कृष्णकेश के वर्णन से यहां युवावस्था१ के संन्यास का वर्णन प्रतीत होता है। उष्णीषम्२ = उष्णता का अपनयन करने वाली [कुड्मल = Blossom of a flower; buds (आप्टे)। कुड्मल किंचिद् विकसित पुष्प (उणा० १।१०९, म० दयानन्द)] [१. संन्यास सर्वोत्तम मार्ग है। वैराग्य हो जाने पर किसी भी आयु में संन्यास ग्रहण किया जा सकता है। यथा “यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत् गृहाद्वा वनाद्वा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत् (जाबालोपनिषद्, खण्ड ४ के अनुसार), तथा सत्यार्थप्रकाश, (समुल्लास ५)। मन्त्र में युवावस्था में संन्यास को श्रेष्ठ माना है। क्योंकि युवावस्था में ही वैराग्यभावना के उदित हो जाने से कैवल्यावस्था आसन्न हो जाती है। २. उष्णीषम् = उष् (उष्णता) + नी (अपनयते) + सः (उणादि "सः", कित् च ३।६६ ; बाहुलकात्)।]

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    विषय

    व्रत्य प्रजापति का वर्णन।

    भावार्थ

    उस व्रात्य का स्वरूप क्या है ? (तस्य) उसके (प्राच्यां दिशि) प्राची दिशा में (श्रद्धा पुंश्चली) श्रद्धा नारी के समान है, (मित्रः मागधः) मित्र सूर्य उसका मागध, स्तुतिपाठक के समान हैं, (विज्ञानं वासः) विज्ञान उसका वस्त्र के समान है। (अहः उष्णीषम्) अहः = दिन उसकी पगड़ी के समान है। (रात्री केशाः) रात्री उसके केश हैं। (हरितौ) दोनों पीत वर्ण के उज्ज्वल सूर्य और चन्द्र (प्रवर्त्तौ) दो कुण्डल हैं। (कल्मलिः) तारे उसके (मणिः) देह पर मणियें हैं। (भूतं च भविष्यत् च) भूत और भविष्यत् उसके (परिस्कन्दौ) आगे पीछे चलने वाले दो पैदल सिपाही हैं। (मनः) मन उसका (विपथम्) नाना मागौं में चलने वाला युद्ध का रथ है॥ ६॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Shraddha, faith and trust, becomes his favourite love, Sama sweetness and joy, his friend, knowledge, his shawl, day, his turban, night, his hair, sun and moon rays, his ear pendants, the stars, his jewels...

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    Translation

    The faith becomes his sweet hear, the sun his praise-singer, comprehension his garment, day his turban, night his hair, two rays his two ear-rings, the brightness (of stars) his jewel;

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    Translation

    The faith is like a lady desiring her husband ; the sun is like His panygrist, the science is like his apron, day like turban, night like hair, the two suns (rising and setting) like two ornaments of ear and the splendor of stars is like his jewel.

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    Translation

    Faith is his leman, the Sun his panegyrist, knowledge his vesture, day his turban, night his hair, the Sun and Moon his ear-ornaments, the splendor of the stars his jewel.

    Footnote

    Leman: Lover, sweetheart.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(श्रद्धा) श्रिञ्सेवायाम्, श्रिय दाहे, श्री पाके वा-डति+डुधाञ् धारणपोषणयोः-अङ्, टाप्। इच्छा।श्रद्धा संप्रत्ययः स्पृहा-अमर० २३।१०२। (पुंश्चली) पुंस्सु अन्यपुरुषेषुचलतीति। पुंस्+चल गतौ-अच्, ङीष्। व्यभिचारिणी कुलटेव घृणिता (मित्रः) स्नेहः (मागधः) मगि गतौ-घञ्+धा-क, पृषोदरादिरूपम्। स्तुतिपाठको यथा (विज्ञानम्) विवेकः (वासः) वस्त्रं यथा (अहः) दिनम् (उष्णीषम्) उष्ण+ईष हिंसायाम्-क, शकन्ध्वादिरूपम् तापनिवारकं शिरोवेष्टनवस्त्रं यथा (रात्री) (केशाः) (हरितौ)धारणाकर्षणगुणौ (प्रवर्तौ) वृतु वर्तने-अच्। द्वे वर्तुले कुण्डले। कर्णभूषणे (कल्मलिः) अर्तिस्तुसुहु०। उ० १।१४०। कल गतौ-मन्+ला दाने-कि। गतिदात्रीतारादीप्तिः (मणिः) मणिभूषणं यथा ॥

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