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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदार्षी भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    य॑ज्ञाय॒ज्ञिया॑यच॒ वै स वा॑मदे॒व्याय॑ च य॒ज्ञाय॑ च॒ यज॑मानाय च प॒शुभ्य॒श्चा वृ॑श्चते॒ य ए॒वंवि॒द्वांसं॒ व्रात्य॑मुप॒वद॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञा॒य॒ज्ञिया॑य । च॒ । वै । स: । वा॒म॒ऽदे॒व्याय॑ । च॒ । य॒ज्ञाय॑ । च॒ । यज॑मानाय । च॒ । प॒शुऽभ्य॑: । च॒ । आ । वृ॒श्च॒ते॒ । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । व्रात्य॑म् । उ॒प॒ऽवद॑ति ॥२.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञायज्ञियायच वै स वामदेव्याय च यज्ञाय च यजमानाय च पशुभ्यश्चा वृश्चते य एवंविद्वांसं व्रात्यमुपवदति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञायज्ञियाय । च । वै । स: । वामऽदेव्याय । च । यज्ञाय । च । यजमानाय । च । पशुऽभ्य: । च । आ । वृश्चते । य: । एवम् । विद्वांसम् । व्रात्यम् । उपऽवदति ॥२.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [मूर्ख] (वै)निश्चय करके (यज्ञायज्ञियाय) सब यज्ञों के हितकारी [वेदज्ञान] के लिये (च च) औरभी (वामदेव्याय) वामदेव [श्रेष्ठ परमात्मा] से जताये गये [भूतपञ्चक] के लिये (च) और (यज्ञाय) पूजनीय व्यवहार के लिये (च) और (यजमानाय) यजमान [पूजनीय व्यवहारकरनेवाले] के लिये (च) और (पशुभ्यः) सब जीव-जन्तुओं के लिये (आ) सब प्रकार (वृश्चते) दोष होता है, (यः) जो [मूर्ख] (एवम्) ऐसे वा व्यापक (विद्वांसम्)ज्ञानवान् (व्रात्यम्) व्रात्य [सब समूहों के हितकारी परमात्मा] को (उपवदति)बुरा कहता है ॥१–१॥

    भावार्थ

    मन्त्र ३ देखो−अर्थात्अज्ञानी अनीश्वरवादी पापात्मा मनुष्य अपने शुभ कर्तव्यों में सर्वथा असमर्थ होताहै ॥१–१॥

    टिप्पणी

    १–१−(यज्ञायज्ञियाय) म० १–०। सर्वयज्ञहितकराय वेदज्ञानाय (वामदेव्याय)श्रेष्ठपरमात्मना विज्ञापिताय भूतपञ्चकाय (यज्ञाय) श्रेष्ठव्यवहाराय (यजमानाय)श्रेष्ठव्यवहारकारकाय पुरुषाय (पशुभ्यः) सर्वप्राणिभ्यः। अन्यत् पूर्ववत्-म० ३॥

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    विषय

    दक्षिणा दिक् में 'यज्ञायज्ञिय वामदेव्य यज्ञ यज्ञमान व पशुओं' की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (स:) = वह व्रात्य (उदतिष्ठत्) = उठता है। आलस्य को छोड़कर आगे बढ़ता हुआ (सः) = वह (दक्षिणां दिशम्) = नैपुण्य की दिशा को (अनुव्यचलत्) = अनुक्रमेण प्राप्त होता है, किसी भी क्षेत्र में निरन्तर आगे बढ़ता हुआ वह बड़ा निपुण बन जाता है। २. (तम्) = उस नैपुण्यप्राप्त व्रात्य को (यज्ञायज्ञियं च) = [सर्वेभ्यो यज्ञेभ्यः हितकरं वेदज्ञानम्] सब यज्ञों के लिए हितकर वेदज्ञान, (वामदेव्यं च) = सुन्दर, दिव्यगुणों [वाम lovely] के लिए हितकर प्रभु-स्तवन, (यज्ञ: च) = श्रेष्ठतम कर्म, (यजमाना: च) = यज्ञशील पुरुष (च) = तथा (पशवः) = यज्ञघृत को प्राप्त कराने के लिए आवश्यक गवादि पशु (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त होते हैं। उसके अनुकूल गतिवाले होते हैं। ३. (सः) = वह प्रात्य विद्वान् (वै) = निश्चय से (यज्ञायज्ञियाय च) = यज्ञों के लिए हितकर वेदज्ञान के लिए, (वामदेव्याय च) = सुन्दर, दिव्यगुणों के लिए हितकर प्रभु-स्तवन के लिए, (यज्ञाय च) = यज्ञ के लिए, यजमानाय च यज्ञशील पुरुष की प्राप्ति के लिए, (पशुभ्यः च) = गवादि पशुओं की प्राप्ति के लिए (आवृश्चते) = समन्तात् वासनारूप शत्रुओं का छेदन करता है। वह व्यक्ति भी ऐसा ही करता है, (यः) = जो (एवम्) = इसप्रकार (विद्वांसं व्रात्यं उपवदति) = ज्ञानी व्रतीपुरुष के समीप इसीप्रकार ज्ञानचर्चा करता है। ४. यह वासनारूप शत्रुओं का छेदन करनेवाला पुरुष (वै) = निश्चय से (यज्ञायजिस्य च) = यज्ञों के लिए हितकर वेदज्ञान का (वामदेवस्य च) = सुन्दर, दिव्यगुणों के लिए हितकर प्रभु स्तवन का (यज्ञस्य च) = यज्ञ का, (यजमानस्य च) = यज्ञशील पुरुषों का, (पशूनां च) = यज्ञ का घृत प्राप्त करानेवाले गवादि पशुओं का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय स्थान बनता है-ये सब इसे प्राप्त होते हैं, (तस्य) = उस विद्वान् व्रात्य के जीवन में (दक्षिणां दिशि) = दक्षिण दिशा में 'यज्ञायज्ञीय, वामदेव्य, यज्ञ, यजमान, पशु' जीवन के साथी बनते हैं।

    भावार्थ

    यह विद्वान् व्रात्य आलस्य को छोड़कर आगे बढ़ता हुआ नैपुण्य को प्राप्त करता है तो वह 'यज्ञों के लिए हितकर वेदज्ञान को, दिव्यगुणोत्पादक प्रभु-स्तवन को, यज्ञों को, यज्ञमानों व पशुओं' को प्राप्त करता है।

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    भाषार्थ

    (वै) निश्चय से (सः) वह व्यक्ति, (यज्ञायज्ञियाय च) यज्ञायज्ञिय सामगानों से और (वामदेव्याय च) वामदेव्य सामगानों से, (यज्ञाय च) यज्ञों से (यजमानाय च) तथा यजमानों की सत्संगति से (पशुभ्यः च) गौ आदि पशुओं के दूध आदि से (आवृश्चते) अपने आप को पूर्णतया वञ्चित कर लेता है, (यः) जोकि (एवम्, विद्वांसम्, व्रात्यम्) इस प्रकार के विद्वान् व्रात्य के (उप) समीप अर्थात् संगति में रह कर (वदति) उस के साथ वाद-विवाद करता है। [“च" का बार-बार प्रयोग समुच्चय के लिये होता है। यथा "चेति समुच्ययार्थ उभाभ्यां प्रयुज्यते- अहं च त्वं च वृत्रहन् संपुज्याव (ऋ. ८।६२।११); (निरु. १।२।४)]।

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    विषय

    व्रत्य प्रजापति का वर्णन।

    भावार्थ

    (यः एवं विद्वासं व्रात्यम् उपददति) जो ऐसे विद्वान् ब्रात्य की निन्दा करता है (यज्ञायज्ञियाय, च, वै सः वामदेव्याय च यज्ञाय च, यजमानाय च पशुभ्यः च प्रावृश्चते) वह यज्ञायज्ञिय, वामदेव्य, यज्ञ, यजमान, और पशुओं के प्रति अपराधी होता है। और (य एवं वेद) जो उस प्रकार व्रात्य प्रजापति का स्वरूप जान लेता है वह (यज्ञायज्ञियस्य च चै सः वामदेव्यस्य च यज्ञस्य च पशूनां च प्रियं धाम भवति) यज्ञायज्ञिय, वामदेव्य, यज्ञ, यजमान, और पशुओं का भी प्रियाश्रय हो जाता है। (दक्षिणायाम् दिशि तस्य) दक्षिण दिशा में उसकी (पुंश्चली उपाः) उषा, पुंश्चली, नारी के समान है। (मन्त्रः मागधः) वेद मन्त्र समूह उसके स्तुति पाठक के समान, (विज्ञानं वासः) विज्ञान उसके वस्त्र के समान, (श्रहः उष्णीपम् रात्री केशाः हरितौ प्रवत्तौ कल्मलिः मणिः) दिन पगड़ी, रात्रि केश, सूर्य चन्द्र दोनों कुण्डल और तारे गले में पड़ी मणियां हैं। १॥ १३॥ (श्रमवास्या च पौर्णमासी च परिष्कन्दौ मनो विपथम्) अमावस्या और पौर्णमासी दोनों हरकारे हैं। मन उसका रथ है। (मातरिश्वा च० इत्यादि) पूर्ववत् ऋचा सं० ७८ की व्याख्या देखो॥ १४॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    For the gifts of yajnayajniya, Vamadevya, yajna, yajamana and the animals and all watchfuls, that person writes himself off who reviles Vratya and the learned who know this.

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    Translation

    From the yajnayjniya Sáman and from the Vamadevya Saman, from the sacrifice and the sacrificer and from the cattle is he cut off, whose reviles such a knowledgeable, wandering saint.

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    Translation

    He who reviles this Vratya who possesses this knowledge is alienated from Yajnayajniya, Vamadevya, Yajna, Yajmana and animals.

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    Translation

    He offends against Vedic knowledge, elements of Nature, noble conduct, the performer of noble deeds, and all living beings, who reviles God, the Possessor of Knowledge.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १–१−(यज्ञायज्ञियाय) म० १–०। सर्वयज्ञहितकराय वेदज्ञानाय (वामदेव्याय)श्रेष्ठपरमात्मना विज्ञापिताय भूतपञ्चकाय (यज्ञाय) श्रेष्ठव्यवहाराय (यजमानाय)श्रेष्ठव्यवहारकारकाय पुरुषाय (पशुभ्यः) सर्वप्राणिभ्यः। अन्यत् पूर्ववत्-म० ३॥

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