Loading...
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 64
    ऋषिः - आत्मा देवता - सोम छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    0

    ब्रह्माप॑रंयु॒ज्यतां॒ ब्रह्म॒ पूर्वं॒ ब्रह्मा॑न्त॒तो म॑ध्य॒तो ब्रह्म॑ स॒र्वतः॑।अ॑नाव्या॒धां दे॑वपु॒रां प्र॒पद्य॑ शि॒वा स्यो॒ना प॑तिलो॒के वि रा॑ज ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्म॑ । अप॑रम् । यु॒ज्यता॑म् । ब्रह्म॑ । पूर्व॑म्‌ । ब्रह्म॑ । अ॒न्त॒त: । म॒ध्य॒त: । ब्रह्म॑ । स॒र्वत॑: । अ॒ना॒व्या॒धाम् । दे॒व॒ऽपु॒राम् । प्र॒ऽपद्ये॑ । शि॒वा । स्यो॒ना । प॒ति॒ऽलो॒के । वि । रा॒ज॒ ॥१.६४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्मापरंयुज्यतां ब्रह्म पूर्वं ब्रह्मान्ततो मध्यतो ब्रह्म सर्वतः।अनाव्याधां देवपुरां प्रपद्य शिवा स्योना पतिलोके वि राज ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्म । अपरम् । युज्यताम् । ब्रह्म । पूर्वम्‌ । ब्रह्म । अन्तत: । मध्यत: । ब्रह्म । सर्वत: । अनाव्याधाम् । देवऽपुराम् । प्रऽपद्ये । शिवा । स्योना । पतिऽलोके । वि । राज ॥१.६४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 64
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (ब्रह्म) ब्रह्म [परब्रह्म परमात्मा] (पूर्वम्) पहिले, (ब्रह्म) ब्रह्म (अपरम्) पीछे, (ब्रह्म)ब्रह्म (अन्ततः) अन्त में और (मध्यतः) मध्य में, और (ब्रह्म) ब्रह्म (सर्वतः)सर्वत्र (युज्यताम्) ध्यान किया जावे। [हे वधू !] (अनाव्याधाम्) छेदनरहित [अटूट, दृढ़] (देवपुराम्) देवताओं [विद्वानों] के गढ़ में (प्रपद्य) पहुँचकर (शिवा) कल्याणकारिणी और (स्योना) सुखदायिनी तू (पतिलोके) पतिलोक [पति के समाज]में (वि राज) विराजमान हो ॥६४॥

    भावार्थ

    वधू तथा वर को योग्यहै कि परमात्मा को सब स्थानों और सबकालों में प्रत्यक्ष जानकर वीरता औरनिर्विघ्नता से गृहाश्रम में अपने कर्तव्यों को प्रसन्न होकर पूरा करें ॥६४॥ इतिप्रथमोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ६४−(ब्रह्म) परमेश्वरः (अपरम्) पश्चात् (युज्यताम्) समाधीयताम् (ब्रह्म) (पूर्वम्) अग्रे (ब्रह्म) (अन्ततः) अन्ते (मध्यतः) मध्ये (ब्रह्म) (सर्वतः) सर्वत्र (अनाव्याधाम्) व्यध ताडने-घञ्। छेदनरहिताम्। सुदृढाम् (देवपुराम्) विदुषां दुर्गम् (प्रपद्य) प्राप्य (शिवा) कल्याणकारिणी (स्योना)सुखदायिनी (पतिलोके) पतिसमाजे (वि राज) विराजमाना भव ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ब्रह्म को जानने वाले की मृत्यु

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    हे गार्गी! ये मत पूछो कि मृत्यु की मृत्यु क्या है? मृत्यु की मृत्यु ब्रह्म है। क्योंकि ब्रह्म को जानने वाले की मृत्यु नही होती।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अनाव्याधा देवपुरा

    पदार्थ

    १. नववधू जिस घर में प्रवेश करे वहाँ (अपारम्) = पीछे की ओर (ब्रह्म युज्यताम्) = ब्रह्म का सम्पर्क हो, (पूर्वम्) = सामने की ओर (ब्रह्म) = प्रभु का सम्पर्क हो, (अन्ततः मध्यता) = दोनों सिरों व मध्य में भी (ब्रह्म) = प्रभु का सम्पर्क हो। (सर्वत: ब्रह्म) = सब ओर ब्रह्म का सम्पर्क हो। इस घर में सभी प्रभु का स्मरण करनेवाले हों। २. हे नववधु! तू (अनाव्याधाम्) = व्याधियों से शून्य (देवपुराम्) = देववृत्ति के लोगों की नगरीरूप इस गृह को (प्रपद्य) = प्राप्त होकर यहाँ (पतिलोके) = पतिलोक में (शिव:) = कल्याणकर कर्मों को करनेवाली व (स्योना) = सुखी जीवनवाली (विराज) = विशिष्टरूप से दीप्त हो।

    भावार्थ

    नववधू को वह घर प्राप्त हो जहाँ सब प्रभु का स्मरण करनेवाले लोग हों, जिस घर में रोग नहीं, जिस घर में लोग देववृत्ति के हैं। यहाँ यह कर्तव्यपरायण सुखी जीवनवाली होवे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (ब्रह्म) वेद (अपरम्) शाला के पश्चिम के पक्ष में (युज्यताम्) प्रयुक्त हो, (ब्रह्म) वेद (पूर्वम्) शाला के पूर्व के पक्ष में, (ब्रह्म) वेद (अन्ततः) शाला के अन्त के पक्ष में, (ब्रह्म) वेद (मध्यतः) शाला के मध्यवर्ती पक्ष में, (ब्रह्म) वेद (सर्वतः) शाला के सब पक्षों में प्रयुक्त हो। (अनाव्याधाम्) सब प्रकार की व्याधियों या रोग क्रिमियों की सब प्रकार की चोटों से रहित (देवपुराम्) इस देवपुरी अर्थात् दिव्यशाला को (प्र पद्य) प्राप्त होकर, (शिवो) हे वधु ! कल्याण रूपा तथा (स्योना) सुखदायिनी, तू (पतिलोके) पति के गृह में (विराज) विराजमान हो, या राज्य कर।

    टिप्पणी

    [मन्त्र ६३ में दिव्यशाला का वर्णन, और अथर्व० ९।३।२३ में शाला के पक्षों अर्थात् कमरों का वर्णन हुआ है। देवपुराम् = अथवा देवों की नगरी में प्रवेश कर के पतिगृह में विराजमान है]। [व्याख्या - घर के बुजुर्ग नववधू के प्रति कहते हैं कि - हे देवी ! तेरी सत्ता से इस देवपुरी या देवगृह के पूर्व के, पश्चिम के, अन्त के, मध्य के कमरों में तथा सर्वत्र वेदमन्त्रों की ध्वनियां गूंजती रहें, तथा उन द्वारा ब्रह्म के स्वरूप का ज्ञान तथा ब्रह्म के साथ योगज सम्बन्ध बना रहे। गृहजीवन का यह सर्वोत्तम आदर्श है। वैदिक ध्वनियां तथा वैदिक सामगान गृहवासियों के श्रोत्रों को पवित्र करते, और उन के मनों में पवित्र भावनाओं का संचार कर, उन के जीवनों को वैदिक मर्यादाओं में ढालते रहते हैं। वर्तमान के रेडियों तथा T. V. के भद्दे, अश्लील तथा गंवारु गीत गृह के वातावरण को दूषित कर रहे हैं। बुजुर्ग वधू को यह आश्वासन भी देते हैं कि यह शाला आधि-व्याधि से शून्य है। तथा यह शाला देवपुरी है। इस के वासी देवकोटि के हैं। तूने भी इस देवपुरी में आ कर सच्ची देवी बनना। और सब का कल्याण करने वाली उथा सुखों की वर्षा करनेवाली बनना। सूक्त में आदर्श-विवाह का वर्णन हुआ है, जिस के नायक आदित्य ब्रह्मचारी और सूर्या ब्रह्मचारिणी हैं, जो कि ब्रह्मचर्य के सुदीर्घ काल में पवित्र जीवन बिता कर देव और देवी बन चुके हैं। ऐसे व्यक्तियों की शाला तो होगी ही,—देवपुरी।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    (अपरम्) पश्चात् भी (ब्रह्म) वेदविहित कर्म (युज्यताम्) हुआ करे। (पूर्वम् ब्रह्म) पहले भी ब्रह्म = वैदिक कर्म या वेदपाठ हो (अन्ततः ब्रह्म) अन्त में भी ब्रह्म = वेदपाठ हो (मध्यतः ब्रह्म, सर्वतः ब्रह्म) बीच में और सब समय में वेदपाठ हो। (अनाव्याधाम्) पीड़ा, हिंसा आदि कष्टों से रहित (देवपुराम्) विद्वान् श्रेष्ठ पुरुषों की नगरी को (प्रपद्य) प्राप्त होकर (पतिलोके) पतिलोक में (शिवा) शुभ कल्याणकारिणी और (स्योना) सबको सुखकारिणी होकर (विराज) पतिगृह में मानपूर्वक निवास कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Let Veda mantras be chanted and resound in the front, at the back, at the end, in the middle, in fact all round the house. O bride, having reached the holy, auspicious divine home free from obstacles and inhibitions, beautiful and blissful, shine as a queen in the house of the husband.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Let the sacred knowledge be applied after as well as before; let the sacred knowledge (be applied) at the end, in the middle and all around. Having arrived at the impenetrable strong-hold of the enlightened ones, may you, propitious and delightful, shine brightly in your husband’s world.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Let Brahma, the vedic prayer with vedic verses be offered before, and after, let the vedic verses be chanted in the middle and let the ved mantras be pronounced all around. O bride ! reaching the portal of magnificent home, without under-going any trouble and shine being gentle and auspicious in the house of your husband.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Let Vedic verses be recited before and after, in the middle, at the end, all around her. Reaching the husband’s house free from disease, being gentle and auspicious shine in thy lord’s family.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६४−(ब्रह्म) परमेश्वरः (अपरम्) पश्चात् (युज्यताम्) समाधीयताम् (ब्रह्म) (पूर्वम्) अग्रे (ब्रह्म) (अन्ततः) अन्ते (मध्यतः) मध्ये (ब्रह्म) (सर्वतः) सर्वत्र (अनाव्याधाम्) व्यध ताडने-घञ्। छेदनरहिताम्। सुदृढाम् (देवपुराम्) विदुषां दुर्गम् (प्रपद्य) प्राप्य (शिवा) कल्याणकारिणी (स्योना)सुखदायिनी (पतिलोके) पतिसमाजे (वि राज) विराजमाना भव ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top