ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 10
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ति॒स्रो मा॒तॄस्त्रीन्पि॒तॄन्बिभ्र॒देक॑ ऊ॒र्ध्वस्त॑स्थौ॒ नेमव॑ ग्लापयन्ति। म॒न्त्रय॑न्ते दि॒वो अ॒मुष्य॑ पृ॒ष्ठे वि॑श्व॒विदं॒ वाच॒मवि॑श्वमिन्वाम् ॥
स्वर सहित पद पाठति॒स्रः । मा॒तॄः । त्रीन् । पि॒तॄन् । बिभ्र॑त् । एकः॑ । ऊ॒र्ध्वः । त॒स्थौ॒ । न । ई॒म् । अव॑ । ग्ल॒प॒य॒न्ति॒ । म॒न्त्रय॑न्ते । दि॒वः । अ॒मुष्य॑ । पृ॒ष्ठे । वि॒श्व॒ऽविद॑म् । वाच॑म् । अवि॑श्वऽमिन्वाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तिस्रो मातॄस्त्रीन्पितॄन्बिभ्रदेक ऊर्ध्वस्तस्थौ नेमव ग्लापयन्ति। मन्त्रयन्ते दिवो अमुष्य पृष्ठे विश्वविदं वाचमविश्वमिन्वाम् ॥
स्वर रहित पद पाठतिस्रः। मातॄः। त्रीन्। पितॄन्। बिभ्रत्। एकः। ऊर्ध्वः। तस्थौ। न। ईम्। अव। ग्लापयन्ति। मन्त्रयन्ते। दिवः। अमुष्य। पृष्ठे। विश्वऽविदम्। वाचम्। अविश्वऽमिन्वाम् ॥ १.१६४.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यस्तिस्रो मातॄस्त्रीन् पितॄनीं बिभ्रत्सन्नूर्द्ध्व एकस्तस्थौ विद्वांस ये एतमव ग्लापयन्ति। अविश्वमिन्वां विश्वविदं वाचं मन्त्रयन्ते तेऽमुष्य दिवः पृष्ठे विराजन्ते न ते दुःखमश्नुवते ॥ १० ॥
पदार्थः
(तिस्रः) (मातॄः) उत्तमध्यमनिकृष्टरूपा भूमिः (त्रीन्) विद्युत्प्रसिद्धसूर्यस्वरूपानग्नीन् (पितॄन्) पालकान् (बिभ्रत्) धरन् सन् (एकः) सूत्रात्मा वायुः (ऊर्ध्वः) (तस्थौ) तिष्ठति (न) (ईम्) सर्वतः (अव) (ग्लापयन्ति) (मन्त्रयन्ते) गुप्तं भाषन्ते (दिवः) प्रकाशमानस्य (अमुष्य) दूरे स्थितस्थ सूर्यस्य (पृष्ठे) परभागे (विश्वविदम्) विश्वे विदन्ति ताम् (वाचम्) वाणीम् (अविश्वमिन्वाम्) असर्वसेविताम् ॥ १० ॥
भावार्थः
यस्सूत्रात्मा वायुरग्निं जलं पृथिवीं च धरति तमभ्यासेन विदित्वा सत्यां वाचमन्येभ्य उपदिशेत् ॥ १० ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (तिस्रः) तीन (मातॄः) उत्तम, मध्यम, अधम, भूमियों तथा (त्रीन्) बिजुली और सूर्यरूप तीन (पितॄन्) पालक अग्नियों को (ईम्) सब ओर से (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (ऊर्ध्वः) ऊपर ऊँचा (एकः) एक सूत्रात्मा वायु (तस्थौ) स्थिर होता है जो विद्वान् जन उसको (अव, ग्लापयन्ति) कहते-सुनते अर्थात् उसके विषय में वार्त्तालाप करते हैं तथा (अविश्वमिन्वाम्) जो सबसे न सेवन की गई (विश्वविदम्) सब लोग उसको प्राप्त होते उस (वाचम्) वाणी को (मन्त्रयन्ते) सब ओर से विचारपूर्वक गुप्त कहते हैं वे (अमुष्य) उस दूरस्थ (दिवः) प्रकाशमान सूर्य के (पृष्ठे) परभाग में विराजमान होते हैं, वे (न) नहीं दुःख को प्राप्त होते हैं ॥ १० ॥
भावार्थ
जो सूत्रात्मा वायु, अग्नि, जल और पृथिवी को धारण करता है उसको अभ्यास से जानके सत्य वाणी का औरों के लिये उपदेश करे ॥ १० ॥
विषय
तीन माताएँ, तीन पिता
पदार्थ
१. (तिस्त्रः) = तीन (मातृ:) = माताओं को और (त्रीन्) = तीन (पितॄन्) = पितरों को (बिभृतः) = धारण करता हुआ (एकः) = अद्वितीय प्रभु (ऊर्ध्वः) = सृष्टि की समाप्ति पर भी (तस्थौ) = अपने चैतन्यरूप में ठहरता है। अपनी सृष्टि के आरम्भ में वह पुनः ज्ञान प्राप्त कराता है, फिर गुरु-शिष्य परम्परा का उपक्रम चल पड़ता है। विद्यार्थी पूर्ण यत्न से ज्ञान प्राप्त करता है और आचार्य पुत्रवत् स्नेह रखते हुए उसे ज्ञान से भरने के लिए यत्नशील होते हैं। इस ज्ञान की प्राप्ति करने और कराने में ये दो ईम् - निश्चय से न अव ग्लापयन्ति ग्लानि को प्राप्त नहीं होते। इस कार्य में कभी ऊबते नहीं। चौबीस, चवालीस और अड़तालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले वसु, रुद्र एवं आदित्य ही तीन माताओं-जीवन-निर्माताओं के रूप में स्मरण किये गये हैं। विज्ञानकाण्ड का उपदेश देनेवाले आचार्य 'अग्नि' हैं, कर्मकाण्ड का ज्ञान देनेवाले आचार्य 'वायु' हैं और उपासना-तत्त्व को समझानेवाले आचार्य 'सूर्य' हैं। ये ही तीन पितर हैं । २. ये आचार्य और शिष्य (अमुष्य दिवः पृष्ठे) = उत्कृष्ट ज्ञान के स्तर पर स्थित हुए हुए (विश्वविदम्) = सब विषयों का ज्ञान देने में समर्थ (वाचम्) = वेदवाणी का (मन्त्रयन्ते) = परस्पर विचार करते हैं। इस वेदवाणी की ओर विरले ही चलते हैं, क्योंकि (अविश्वमिन्वाम्) = यह असर्वव्यापिनी है। इसका प्रवेश सब जगह नहीं हो पाता। कोई विरला ही इस आत्मज्ञान की ओर प्रवृत्त होता है ।
भावार्थ
भावार्थ – अद्वितीय प्रभु सृष्टि के आरम्भ में वेदवाणी का ज्ञान प्रदान करते हैं, परन्तु विरले व्यक्ति ही इस ओर चलकर आत्म-परमात्म-सम्बन्धी विषय में रुचि लेते हैं ।
विषय
सूर्यवत् तीन माता तीन पिताओं के पालक प्रभु का वर्णन।
भावार्थ
( एकः ) अकेला सूर्य जिस प्रकार ( तिस्रः मातॄः ) अन्न, जल और तेज को उत्पन्न करने वाली पृथिवी, अन्तरिक्ष और वायु तीन भूमियों को और ( त्रीन् पितॄन् ) पालन करने वाले तीन अग्नि, वायु और सूर्य इनको ( बिभ्रद् ) धारण करता हुआ ( ऊर्ध्वः ) सब से ऊपर अध्यक्ष, सबका धारक होकर (तस्थौ) विराजता है (ईम्) इसको कोई पदार्थ (न अवग्लापयन्ति ) मन्द तेज नहीं कर सकते । उस पर पर्दा नहीं डाल सकते, उसकी शक्ति का तिरस्कार नहीं कर सकते उसी प्रकार ( एकः ) एक अद्वितीय परमेश्वर ही ( तिस्रः मातॄः ) सत्व, रजस, तमस तीन गुणों से युक्त तीन प्रकार की प्रकृति या उत्तम, मध्यम, निकृष्ट, भूमि, अन्तरिक्ष और द्यौ तीनों को और ( त्रीन् पितॄन् ) अग्नि, वायु, और जल इन तीन जीवों के पालकों को ( बिभ्रद् ) धारण करता हुआ ( ऊर्ध्वः ) सबके ऊपर अध्यक्ष रूप में, सबको धारण करने में समर्थ होकर ( तस्थौ ) विराजता है ( ईम् ) इसके सामर्थ्य और तेज को सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि कोई भी ( न अव ग्लापयन्ति ) तिरस्कृत नहीं कर सकते । विद्वान् लोग (अमुष्य) उस परोक्ष ( दिवः ) सबके कामना करने योग्य, तेजोमय, सब के रक्षक परमेश्वर कें ( पृष्ठे ) पालन, सबके वर्धन, सेचन के सामर्थ्य के वर्णन में (अविश्वमिन्वां ) समस्त साधारण अज्ञ जनों से न सेवन करने योग्य ( विश्वविदं ) समस्त संसार का ज्ञान कराने वाली ( वाचं ) वेद वाणी को ( मन्त्रयन्ते ) गूढ़ रूप से, भाव पूर्ण रूप से वर्णन करते हैं । इति पञ्चदशो वर्गः॥
टिप्पणी
सर्वे वेदाः यत्पदमामनन्ति ०। ऋचोऽक्षरे परमे व्योमन्० इत्यादि ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः॥ देवता—१-४१ विश्वदेवाः। ४२ वाक् । ४२ आपः। ४३ शकधूमः। ४३ सोमः॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च। ४५ वाक्। ४६, ४७ सूर्यः। ४८ संवत्सरात्मा कालः। ४९ सरस्वती। ५० साध्या:। ५१ सूर्यः पर्जन्यो वा अग्नयो वा। ५२ सरस्वान् सूर्यो वा॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप्। ८, ११, १८, २६,३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप्। २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२, त्रिष्टुप्। १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२, १५, २३ जगती। २९, ३६ निचृज्जगती। २० भुरिक पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः। ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती। ५१ विराड् नुष्टुप्।। द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो सूत्रात्मा वायू आहे तो अग्नी जल व पृथ्वीला धारण करतो. त्याला अभ्यासाने जाणून या सत्याचा इतरांसाठी उपदेश करावा. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The one Supreme lord of the universe who abides over all sustains the three mothers, earth, sky and the heavens of light, and He sustains the three fathers, Agni, Vayu and Aditya, fire, wind and sun. These three couples tire Him not, they smear Him not. On the heights of the heaven of that lord Prajapati, they meditate on this voice of omniscience and recreate and replenish the life sustaining energy and the creative vitality and fertility of motherhood.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
A learned person should invigorate others.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
God who is the illuminator of the sun and other luminaries is supreme of all limitations and He is the most High Supreme Being. He upholds earth of three kinds--the best (fertile), middle, low (inferior) and three father-like protectors in the shape are (i) electricity (ii) fire and (iii) the sun. None can put down His glory. The learned wise men through study get the Vedic knowledge. It is the repository of all knowledge. It is to be studied by all. Seekers of truth attain emancipation by moving freely everywhere. They think about it in solitude and consult among themselves. Such people then do not suffer.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should try to know God who is the upholder of the fire, water and earth etc. and should tell about Him and Sutrttma Vayu, etc. (the root cause of air - God) in all truthful language.
Foot Notes
(तिस्र: मातृ :) उत्तममध्यमनिकृष्टरूपाः भूमी: = The earth of three kinds—the best, middle and low. ( त्नीन् पितृन् ) पालकान् विद्युतप्रसिद्धसूर्यस्वरूपान् अग्नीन् = Three sustainers in the form of electricity, fire and sun.
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