ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 29
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
अ॒यं स शि॑ङ्क्ते॒ येन॒ गौर॒भीवृ॑ता॒ मिमा॑ति मा॒युं ध्व॒सना॒वधि॑ श्रि॒ता। सा चि॒त्तिभि॒र्नि हि च॒कार॒ मर्त्यं॑ वि॒द्युद्भव॑न्ती॒ प्रति॑ व॒व्रिमौ॑हत ॥
स्वर सहित पद पाठअयम् । सः । शि॒ङ्क्ते॒ । येन॑ । गौः । अ॒भिऽवृ॑ता । मिमा॑ति । मा॒युम् । ध्व॒सनौ॑ । अधि॑ । श्रि॒ता । सा । चि॒त्तिऽभिः॑ । नि । हि । च॒कार॑ । मर्त्य॑म् । वि॒ऽद्युत् । भव॑न्ती । प्रति॑ । व॒व्रिम् । औ॒ह॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं स शिङ्क्ते येन गौरभीवृता मिमाति मायुं ध्वसनावधि श्रिता। सा चित्तिभिर्नि हि चकार मर्त्यं विद्युद्भवन्ती प्रति वव्रिमौहत ॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। सः। शिङ्क्ते। येन। गौः। अभिऽवृता। मिमाति। मायुम्। ध्वसनौ। अधि। श्रिता। सा। चित्तिऽभिः। नि। हि। चकार। मर्त्यम्। विऽद्युत्। भवन्ती। प्रति। वव्रिम्। औहत ॥ १.१६४.२९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 29
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्भूमिविषयमाह ।
अन्वयः
सोऽयं वत्सो मेघो भूमिं शिङ्क्ते येन ध्वसनावधि श्रिताऽभीवृता गौर्भूमिर्मायुं प्रतिमिमाति सा चित्तिभिर्मर्त्यं चकार। तत्र हि भवन्ती विद्युद्वव्रिं च न्यौहत ॥ २९ ॥
पदार्थः
(अयम्) (सः) (शिङ्क्ते) अव्यक्तं शब्दं करोति (येन) (गौः) पृथिवी (अभीवृता) सर्वतो वायुना आवृता (मिमाति) गच्छति (मायुम्) परिमितं मार्गम् (ध्वसनौ) अधऊर्ध्वमध्यपतनार्थे परिधौ (अधि) उपरि (श्रिता) (सा) (चित्तिभिः) चयनैः (नि) (हि) किल (चकार) करोति (मर्त्यम्) मरणधर्माणम् (विद्युत्) तडित् (भवन्ती) वर्त्तमाना (प्रति) (वव्रिम्) स्वकीयं रूपम् (औहत) ऊहते ॥ २९ ॥
भावार्थः
यथा पृथिव्याः सकाशादुत्पद्याऽन्तरिक्षे बहुलो भूत्वा मेघः पृथिव्यां वृक्षादिकं संसिच्य वर्द्धयति तथोर्वी सर्वं वर्द्धयति, तत्रस्था विद्युद्रूपं प्रकाशयति। यथा शिल्पी क्रमेण चित्या विज्ञानेन गृहादिकं निर्मिमीते तथा परमेश्वरेणेयं सृष्टिर्निर्मिता ॥ २९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भूमि के विषय में कहा है ।
पदार्थ
(सः) सो (अयम्) यह बछड़े के समान मेघ भूमि को लख (शिङ्क्ते) गर्जन का अव्यक्त शब्द करता है कौन कि (येन) जिससे (ध्वसनौ) ऊपर, नीचे और बीच में जाने को परकोटा उसमें (अधि, श्रिता) धरी हुई (अभीवृता) सब ओर पवन से आवृत (गौः) पृथिवी (मायुम्) परिमित मार्ग को (प्रति, मिमाति) प्रति जाती है (सा) वह (चित्तिभिः) परमाणुओं के समूहों से (मर्त्यम्) मरणधर्मा मनुष्य को (चकार) करती है उस पृथिवी (हि) ही में (भवन्ती) वर्त्तमान (विद्युत्) बिजुली (वव्रिम्) अपने रूप को (नि, औहत) निरन्तर तर्क-वितर्क से प्राप्त होती है ॥ २९ ॥
भावार्थ
जैसे पृथिवी से उत्पन्न हो उठकर अन्तरिक्ष में बढ़ फैल मेघ पृथिवी में वृक्षादि को अच्छे सींच उनको बढ़ाता है, वैसे पृथिवी सबको बढ़ाती है और पृथिवी में जो बिजुली है वह रूप को प्रकाशित करती। जैसे शिल्पी जन क्रम से किसी पदार्थ के इकट्ठा करने और विज्ञान से घर आदि बनाता है, वैसे परमेश्वर ने यह सृष्टि बनाई है ॥ २९ ॥
विषय
अव्यक्त से व्यक्त की ओर
पदार्थ
१. (अयं सः) = यह वेदाध्येता (शिङ्क्ते) अव्यक्त ध्वनि करता है, अर्थात् वेदार्थ व्यक्त न होने पर भी श्रद्धापूर्वक उसका पाठ करता है। कौन ? (येन) = जिसने (गौ:) = वेदवाणी को (अभीवृता) = अपने ध्यान को चारों ओर से हटाकर वरा है, अर्थात् उसी में अपने मन को केन्द्रित किया है। २. यह वेदाध्येता श्रद्धापूर्वक पढ़ता है और परिणामतः (ध्वसनौ) = अज्ञान के ध्वंस में (अधिश्रिता) = लगी हुई यह वेदवाणी उस पुरुष को (मायुम्) = ज्ञानी (मिमाति) = बनाती है । ३. (सा) = वह वेदवाणी (हि) = निश्चय से (चित्तिभिः) = कर्त्तव्याकर्त्तव्य ज्ञानों के द्वारा (मर्त्यम्) = मनुष्य को निचकार- ऊँचा उठाती है [निकार= lift up] और अन्त में ४. (विद्युत्) = विशेष रूप से द्योतमान (भवन्ती) = होती हुई (वव्रिम्) = अपने रूप को प्रति औहत प्रकट करती है । ५. एवं वेदज्ञान का क्रम यह है - [क] मनुष्य श्रद्धापूर्वक वेदाध्ययन में लगे, अर्थ न भी समझ में आये तो भी उसका पाठ करे, [ख] धीरे-धीरे यह वेदवाणी उसके अज्ञान को नष्ट करती हुई उसे ज्ञानी बनाएगी, [ग] कर्त्तव्याकर्त्तव्य के ज्ञान के द्वारा उसके आचरण व व्यवहार के मापक को ऊँचा करेगी, और अन्त में [घ] यह वेदवाणी उसके समक्ष स्पष्ट हो जाएगी। वह ऋषि बन जाएगा।
भावार्थ
भावार्थ - जो श्रद्धापूर्वक वेद का स्वाध्याय करेगा वह शनैः शनैः ज्ञान से चमकता हुआ- ऋषि बन जाएगा।
विषय
विद्युत् मेघवत् ईश्वर का वेदोपदेश प्रकाश ।
भावार्थ
( सः शिंक्ते ) बछड़ा जिस प्रकार मनोहर ध्वनि करता है (येन गौः अभीवृता) जिसके साथ गौ आकर लिपट जाती है। (ध्वसानौ अघि श्रिता) गौओं के निवास स्थान में खड़ी रहकर (मायुं मिमाति) शब्द करती, हंभारती है। वह ( चित्तिभिः ) अपने पालन आदि कर्मों से ( मर्त्यं हि नि चकार ) मनुष्य मात्र को नीचे करती, स्वयं सर्वोपरि आदर का पात्र होती है। वह (विद्युद् भवन्ती) विद्युत् के समान कान्तिमती और विशेष कामनावाली होकर (वव्रिम्) वरण करने योग्य स्वरूप को ( प्रति औहत ) प्रकट करती है । ( २ ) इसी प्रकार ( सः अयं ) वह यह मेघ ( शिङ्क्ते ) ध्वनि अर्थात् गर्जना करता है । ( येन ) जिसके साथ २ ( गौ ) अति वेग से जाने वाली मध्यमिका वाक्, विद्युत् ( अभीवृता ) सब तरफ चम चमाती हुई ( ध्वंसनौ ) ध्वंस होने अर्थात् क्षीण होने वाले मेघ के आश्रय में (अधिश्रिता) आश्रित हुई (मायुं मिमाति) शब्द किया करती है । (सा) वह (चित्तिभिः) तीव्र क्रियाओं से ( मर्त्यं हि नि चकार ) मनुष्य मात्र को भयभीत करती है । वह ( विद्युद् भवन्ती व्रव्रिम् प्रत्यौहत ) विशेष दीप्तिमती होकर अपने को वरण करने वाले आकर्षक पदार्थ के प्रति बह जाती है । अथवा अपना रूप प्रकट करती है। ( ३ ) (अयं सः शिंक्ते ) वह परमेश्वर ही वेद द्वारा गर्जते मेघ के समान, आचार्यवत् उपदेश करता है जिसके साथ वेद वाणी व्यापक होकर भी सदा उपदेश देती है । और वह नाशवान् वर्ण की ध्वनि पर आश्रित रह कर (चित्तिभिः) ज्ञानों द्वारा (मर्त्यं नि चकार) मनुष्य का बड़ा उपकार करती है (विद्युत्) विशेष २ अर्थ को द्योतक होकर (वव्रिम्) वरणीय परमेश्वर के ही स्वरूप को प्रकाशित करती, उसीका प्रतिपद वर्णन करती है । विशेष देखो ( अथर्व ० ९ । १० । ७ ॥ )
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे पृथ्वीवर उत्पन्न होऊन अंतरिक्षात प्रसृत होऊन मेघ पृथ्वीवर वृक्षांना सिंचित करून त्यांना वाढवितात व पृथ्वीत जी विद्युत आहे ती रूपाला प्रकाशित करते. जसे कारागीर क्रमाने पदार्थांना एकत्र करून व्यवस्थित ज्ञानाने घर बांधतो तशी परमेश्वराने ही सृष्टी निर्माण केलेली आहे. ॥ २९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This is that cloud which roars and by which, covered and surrounded in the vapours, the earth reverberates in response. The earth, with her own feelings of kindness and generosity sustains the mortal children of hers, and her energy, being in the form of lightning, reveals and realises her own form and character.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Something about the earth again.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The calf in the form of the cloud bellows or makes sound towards the earth. The earth surrounded by the air on all sides revolves on its axle and measures the set path. She makes a mortal active by the combination of the groups of various particles. Then the lightning or energy are its manifestations.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The cloud is born in proximity of the earth and multiplies in the firmament by raining down water. It makes the trees to grow. Likewise, earth is a phenomenal cause of growth. The energy in it manifests itself in various forms. As an artisan builds a house and other things only after knowing the pattern and collection of various requisite material, similarly God has created this universe.
Foot Notes
(शिङ्क्ते) अव्यक्तं शब्दं करोति = Makes indistinct sound. (मायुम्) परिमितं मार्गम् = Limited path. ( ध्वसनौ) अध ऊर्ध्वमध्य पतनार्थे परिधौ = In the axle for going below, upwards and middle (वव्रिम्) स्वकीयं रूपम् । वव्रिरिति रूपनाम (NG.3-7) = Its form.
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