ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 28
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
गौर॑मीमे॒दनु॑ व॒त्सं मि॒षन्तं॑ मू॒र्धानं॒ हिङ्ङ॑कृणो॒न्मात॒वा उ॑। सृक्वा॑णं घ॒र्मम॒भि वा॑वशा॒ना मिमा॑ति मा॒युं पय॑ते॒ पयो॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठगौः । अ॒मी॒मे॒त् । अनु॑ । व॒त्सम् । मि॒षन्त॑म् । मू॒र्धान॑म् । हिङ् । अ॒कृ॒णो॒त् । मात॒वै । ऊँ॒ इति॑ । सृक्वा॑णम् । घ॒र्मम् । अ॒भि । वा॒व॒शा॒ना । मिमा॑ति । मा॒युम् । पय॑ते । पयः॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
गौरमीमेदनु वत्सं मिषन्तं मूर्धानं हिङ्ङकृणोन्मातवा उ। सृक्वाणं घर्ममभि वावशाना मिमाति मायुं पयते पयोभिः ॥
स्वर रहित पद पाठगौः। अमीमेत्। अनु। वत्सम्। मिषन्तम्। मूर्धानम्। हिङ्। अकृणोत्। मातवै। ऊँ इति। सृक्वाणम्। घर्मम्। अभि। वावशाना। मिमाति। मायुम्। पयते। पयःऽभिः ॥ १.१६४.२८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 28
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यथा वावशाना गौर्मिषन्तं वत्सं मूर्द्धानमनु हिङ्ङकृणोत् मातवा उ वत्सस्य दुःखममीमेत् तथा पयोभिस्सह वर्त्तमाना गौः पृथिवी घर्मं सृक्वाणं दिनं मायुं च कुर्वती पयते सुखमभिमिमाति ॥ २८ ॥
पदार्थः
(गौः) पृथिवी धेनुर्वा (अमीमेत्) मिनाति (अनु) (वत्सम्) (मिषन्तम्) शब्दयन्तम् (मूर्द्धानम्) मस्तकम् (हिङ्) हिंकारम् (अकृणोत्) करोति (मातवै) मानाय (उ) वितर्के (सृक्वाणम्) सृजन्तं दिनम् (घर्मम्) आतपम् (अभि) (वावशाना) भृशं कामयमाना (मिमाति) मिमीते। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (मायुम्) वाणीम्। मायुरिति वाङ्ना०। निघं० १। ११। (पयते) गच्छति (पयोभिः) जलैस्सह ॥ २८ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा गा अनुवत्सा वत्साननु गावो गच्छन्ति तथा पृथिवीरनुपदार्थाः पदार्थाननु पृथिव्यो गच्छन्ति ॥ २८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (वावशाना) निरन्तर कामना करती हुई (गौः) गौ (मिषन्तम्) मिमयाते हुए (वत्सम्) बछड़े को तथा (मूर्द्धानम्) मूड़ को (अनु, हिङ्, अकृणोत्) लखकर हिंकारती अर्थात् मूंड़ चाटती हुई हिंकारती है और (मातवै) मान करते (उ) ही के लिये उस बछड़े के दुःख को (अमीमेत्) नष्ट करती वैसे (पयोभिः) जलों के साथ वर्त्तमान पृथिवी (घर्मम्) आतप को (सृक्वाणम्) रचते हुए दिन को और (मायुम्) वाणी को प्रसिद्ध करती हुई (पयते) अपने भचक्र में जाती है और सुख का (अभि, मिमाति) सब ओर से मान करती अर्थात् तौल करती है ॥ २८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे गौओं के पीछे बछड़े और बछड़ों के पीछे गौएँ जातीं वैसे पृथिवियों के पीछे पदार्थ और पदार्थों के पीछे पृथिवी जाती है ॥ २८ ॥
विषय
वेदरूपी गौ बोलती है [निर्माण न कि ध्वंस]
पदार्थ
१. (गौ) = यह वेदवाणीरूप गौ (अमीमेत्) = शब्द करती है, बोलती है। लोग कहते हैं वेद क्या पढ़ें, समझ में तो आते ही नहीं। ऐसी बात नहीं है; वेदरूपी गौ बोलती है, परन्तु (अनु) = पीछे । किसके पीछे ? [क] (वत्सम्) = उच्चारण करनेवाले के और [ख] (मिषन्तम्) = जो इसे ध्यान से देखता है [मिष्=to look at] । अभिप्राय यह है कि वेदवाणी उसके लिए मूक है जो इसे न तो पढ़े और न इसे ध्यान से देखे और विचारे । जो भी मनुष्य श्रद्धापूर्वक पढ़ेगा, उसे यह वेदवाणी अवश्य समझ में आएगी। २. यह वेदवाणी ध्यानपूर्वक पढ़नेवाले के (मूर्धानम्) = मस्तिष्क को (हिङ् अकृणोत्) = ज्ञानरश्मियों से जगमगा देती है, क्यों ? (मातवा उ) = इसलिए कि वह उत्तम ज्ञानी बनकर निर्माण का कार्य कर सके । वेदज्ञान मनुष्य को निर्माण का ही उपदेश देता है, ध्वंस का नहीं। ३. (सृक्वाणम्) = [सृज् - उत्पन्न करना] उत्पादक (घर्मम्) = तेज को (अभिवावशाना) = पाठक के लिए चाहती हुई यह वेदवाणी अपने पाठक को (मायुम्) = [माया - ज्ञान] ज्ञानवाला मिमाति बनाती है। इस प्रकार यह वेदवाणी (पयोभिः) = अपने ज्ञानरूपी दुग्ध से पयते अपने पाठक को आप्यायित करती है, बढ़ाती है ।
भावार्थ
भावार्थ – श्रद्धापूर्वक वेद का स्वाध्याय करने से मनुष्य का मस्तिष्क ज्ञानरश्मियों से जगमगा उठता है, वह निर्माणात्मक कर्म ही करता है, ध्वंसात्मक नहीं ।
विषय
परमेश्वर के माता एवं गौ वत् ज्ञान रसदान, और मातृवत् प्राणि मात्र से प्रेम ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( मिषन्तं वत्सं अनु ) शब्द करते हुए या, उत्सुकता से, छटपटाते या आंख झपकते बछड़े को देख कर प्रेम से ( गौः अमीमेत् ) गौ शब्द करती है और ( मातवा उ ) उसको प्रेम पूर्वक अपनाने के लिये (हिंङ् अकृणोत् ) चाहती, सूंघती और पुचकारती है । वह ( धर्मं सृक्वाणं ) रस उत्पन्न करते हुए बछड़े को लक्ष्य करके (अभि वावशाना) अति कामना करती हुई, या उसको बुलाती हुई (मायुं मिमाति) शब्द करती है, हंभारती है उसी प्रकार मेघस्थ वाणी विद्युत् और मेघ रूप रस से भरी गौ और पृथिवी रूप कामधेनु, (मिषन्तं) जल वृष्टि के लिये उत्सुक एवं ( वत्सं ) बसे हुए स्थावर जंगम संसार के प्रति (अमीमेत्) गर्जना करती है उसी प्रकार (मिषन्तं) एक टक से देखने वाले या दया और अन्न को पुकारने वाले प्रजाजन के प्रति ( अमीमेत् ) ध्वनि करती है वह (मातवै) माता के समान प्रजामात्र के पालन पोषण के लिये ( मूर्धानं ) शिर पर गर्जती मानो उसको चूमती हुई ( अमीमेत् ) विशेष ध्वनि करती है। वह (सृक्वाणं धर्मम् अभि वावशाना) जल उत्पन्न करते हुए प्रतप्त सूर्य को लक्ष्य करके मानो उस जलादि को चाहती हुई शब्द करती (पयोभिः पयते) जलों से बरसती है । (२) अध्यात्म में—व्यापक और ज्ञानमय होने से परमेश्वर और आत्मा दोनों ही ‘गौ’ हैं । प्रजाजन वत्स है वह मानो सब को दया से अपनाने या सब को (मातवै उ) ज्ञान कराने के लिये (अमीमेत्) आचार्य के समान उपदेश करती और (हिंङ् अकृणोत्) सामगान आदि करती है। वह (धर्मम् सृक्वाणं अभिवावशाना) तप करते हुए शिष्य के प्रति उपदेश करने वाले आचार्य के समान संतप्त ताप, प्रकाश या क्षरणशील जल का सर्जन करते हुए ‘मेघया’ आदित्य के समान भीतरी अन्तःकरण में तेज और आनन्द रस का सर्जन करते हुए आत्मा को ( अभिवावशाना ) अपने ! अधीन करती हुई, उसके प्रति अन्तर्नाद करती हुई (मायुं मिमाति) ज्ञानपूर्ण उपदेश करती है और ( पयोभिः ) पुष्टि कारक पदार्थों या ऐश्वर्यों से ( पयते ) उन्हें पुष्ट करती है । अन्य पक्षों की योजना देखो अथर्व० अ० १०।९।७॥ (३) इसी प्रकार वाणी रूप गौ ( वत्सं ) अर्थात् बोलने में मुख्य कारण के ही अधीन होकर ( मूर्धानं मिषन्तं अनु अमीमेत् ) शिरोभाग की तरफ़ आते हुए के अधीन रहकर ध्वनि करती ( मातवै ) ज्ञान कराने के लिये ध्वनि करती है ( धर्मम् ) नाद रस को रचने वाले आत्मा के अधीन ही शब्द करती हुई नाद उत्पन्न करती और आत्मा के तृप्तिकारक रसों से ज्ञान उत्पन्न करती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी गाईच्या मागे वासरं व वासरांच्या मागे गाई जातात तसे पृथ्वीच्या मागे पदार्थ व पदार्थाच्या मागे पृथ्वी जाते. ॥ २८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The cow goes to the calf winking its eyes in loving expectation, lowing with love, and licks its head with caress. And lowing and loving more and more in response to the yearning affection of the calf, she overflows with milk. (The same is the response of mother earth and mother Sarasvati to the children yearning for love, nourishment and knowledge.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of cow folk are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The cow bellows for the calf who stands with winking eyes, and lows as she proceeds to lick his forehead; she utters cry in anxiousness and licks the moisture of all the parts of his body. It also nourishes him with her milk. (2) As the cow loves her calf and tries to alleviate his sufferings, in the same way the earth with her waters, making days and producing heat and sounds adds happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the cows go after the calves and the calves after their mothers, the same way the articles go along the earth and the earth goes round the sun.
Foot Notes
(गौः) पृथिवो धेनुर्वा = The earth or the cow. (सृक्वाणम्) सृजन्तं दिनम् = Making day. ( मायुम् ) वाणीम् मायुरिति वाङ्नाम् (NG.1-11) = Speech or sound. ( पयते) गच्छति । पय गतौ । भ्वादि० = Goes.
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