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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 164 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 23
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    यद्गा॑य॒त्रे अधि॑ गाय॒त्रमाहि॑तं॒ त्रैष्टु॑भाद्वा॒ त्रैष्टु॑भं नि॒रत॑क्षत। यद्वा॒ जग॒ज्जग॒त्याहि॑तं प॒दं य इत्तद्वि॒दुस्ते अ॑मृत॒त्वमा॑नशुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । गा॒य॒त्रे । अधि॑ । गा॒य॒त्रम् । आऽहि॑त॑म् । त्रैस्तु॑भात् । वा॒ । त्रैस्तु॑भम् । निः॒ऽअत॑क्षत । यत् । वा॒ । जग॑त् । जग॑ति । आऽहि॑तम् । प॒दम् । ये । इत् । तत् । वि॒दुः । ते । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । आ॒न॒शुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं त्रैष्टुभाद्वा त्रैष्टुभं निरतक्षत। यद्वा जगज्जगत्याहितं पदं य इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानशुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। गायत्रे। अधि। गायत्रम्। आऽहितम्। त्रैस्तुभात्। वा। त्रैस्तुभम्। निःऽअतक्षत। यत्। वा। जगत्। जगति। आऽहितम्। पदम्। ये। इत्। तत्। विदुः। ते। अमृतऽत्वम्। आनशुः ॥ १.१६४.२३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 23
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    ये यद्गायत्रे गायत्रमध्याहितं त्रैष्टुभाद्वा त्रैष्टुभं निरतक्षत वा यज्जगति जगत्पदमाहितं तद्विदुस्ते इदमृतत्वमानशुः ॥ २३ ॥

    पदार्थः

    (यत्) (गायत्रे) गायत्री छन्दोवाच्ये (अधि) (गायत्रम्) गायतां रक्षकम् (आहितम्) स्थितम् (त्रैष्टुभात्) त्रिष्टुप्छन्दोवाच्यात् (वा) (त्रैष्टुभम्) त्रिष्टुभि भवम् (निरतक्षत) नितरां तनू कुर्वन्ति विस्तृणन्ति (यत्) (वा) (जगत्) (जगति) (आहितम्) स्थितम् (पदम्) वेदितव्यम् (ये) (इत्) एव (तत्) (विदुः) जानन्ति (ते) (अमृतत्वम्) मोक्षस्य भावम् (आनशुः) अश्नुवते ॥ २३ ॥

    भावार्थः

    ये सृष्टिपदार्थान् तत्रस्थामीश्वररचनां च विज्ञाय परमात्मानमभिध्याय विद्याधर्मोन्नतिं कुर्वन्ति ते मोक्षमाप्नुवन्ति ॥ २३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (ये) जो लोग (यत्) जो (गायत्रे) गायत्रीछन्दोवाच्य वृत्ति में (गायत्रम्) गानेवालों की रक्षा करनेवाला (अधि, आहितम्) स्थित है (त्रैष्टुभात्, वा) अथवा त्रिष्टुप् छन्दोवाच्य वृत्त से (त्रैष्टुभम्) त्रिष्टुप् में प्रसिद्ध हुए अर्थ को (निरतक्षत) निरन्तर विस्तारते हैं (वा) वा (यत्) जो (जगति) संसार में (जगत्) प्राणि आदि जगत् (पदम्) जानने योग्य (आहितम्) स्थित है (तत्) उसको (विदुः) जानते हैं (ते) वे (इत्) ही (अमृतत्वम्) मोक्षभाव को (आनशुः) प्राप्त होते हैं ॥ २३ ॥

    भावार्थ

    जो सृष्टि के पदार्थ और तत्रस्थ ईश्वरकृत रचना को जानकर परमात्मा का सब ओर से ध्यान कर विद्या और धर्म की उन्नति करते हैं, वे मोक्ष पाते हैं ॥ २३ ॥

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    विषय

    तीन बातों को समझना

    पदार्थ

    १. यत् = सचमुच गायत्रे - यज्ञ में (गायत्रो यज्ञः - गो० पू० ४।२४) गायत्रम् = पुरुष ( गायत्री वै पुरुषः - ऐ० ४।३) अधिआहितम्-अधीन करके रखा गया है, अर्थात् पुरुष का जीवन यज्ञ के अधीन है। उसके जीवन से यज्ञ को हटा दिया जाए तो वह नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा। यह यज्ञ केन्द्र है, यही स्वर्ग प्राप्त करानेवाला है। (वा) = और (त्रैष्टुभात्) = त्रिवेदविद्या के स्तवन के द्वारा अपने में कर्म, उपासना और ज्ञान- इन तीनों को स्थिर करने के द्वारा (त्रैष्टुभम्) = अपने जीवन को तीन सुखों से सम्बद्ध निरतक्षत किया करते हैं। मानव जीवन को सुखी बनने के लिए ज्ञान, कर्म और उपासना तीनों का समन्वय करना होगा। प्रभु की उपासना पवित्र कर्मों से होती है। इस प्रभु-आराधना का परिणाम आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक - तीनों दुःखों की समाप्ति के रूप में होता है। तीनों दुःखों की निवृत्ति होकर मनुष्य का जीवन तीन सुखों से सम्बद्ध होता है। उसके शरीर, मन व बुद्धि स्वस्थ रहते हैं। सब भूतों के प्रति निर्देषता के कारण निर्भयता रहती है और सब देवों की अनुकूलता होने से उसे सब आवश्यक वस्तुएँ सुलभ रहती हैं । ३. वा और तीसरी बात यह है यत् कि जगत् पदम् - अन्त में सबसे शरण में जाने योग्य वह प्रभु जगति = इस ब्रह्माण्ड के कण-कण में (आहितम्) = स्थित है, व्याप्त है । ४. (ये) = जो मनुष्य (इत्) = निश्चय से (तत्) = उपर्युक्त तीन बातों को (विदुः) = जान लेते हैं, वे (अमृतम्) = मोक्ष को (आनशुः) = प्राप्त करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - (क) पुरुष यज्ञमय है, (ख) ज्ञान, कर्म, उपासना के समन्वय से ही त्रिविध सुख उपलब्ध हो सकते हैं, (ग) वह प्रभु संसार के कण-कण में व्याप्त है - इन तीन बातों को जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता है।

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    विषय

    विद्वानों की अमृत पद प्राप्ति । छन्दस्रयी ईश्वर स्तुति ।

    भावार्थ

    ( यत् ) जो (गायत्रम्) गायत्र (गायत्रे) गायत्र में (अधि आहितम्) स्थित है और (त्रैष्टुभात् वा) त्रैष्टुभ से (त्रैष्टुभं निर् अतक्षत) जिस त्रैष्टुभ को प्राप्त करते हैं ( यद्वा ) और जो ( जगत् जगती आहितं ) जगत् जगती में स्थापित है ( ये इद् ) जो विद्वान् पुरुष ये ( तत् पदम् ) उस परम ज्ञातव्य तत्त्व को जान लेते हैं वे अमृतत्व को भोग करते हैं । ( १ ) गानकरने वाले का त्राण करने वाला परमेश्वर ही गायत्री छन्द में वेद में स्तुति किया है। तीनों वेदों से स्तुति करने योग्य परमेश्वर ही त्रिष्टुप् छन्दों से वर्णन किया है । जगती छन्दों में भी वही ( जगत् ) सर्व व्यापक प्रभु वर्णन किया गया है। उस परम सर्वप्रेरक, प्राप्तव्य और ज्ञेय परमेश्वर को जो जानते हैं वे अमृतत्व को भोगते हैं। शेष अन्य सब पक्षों के अर्थों का सप्रमाण स्पष्टी करण देखो ( अथर्व भाष्य का० ९ सू० १० । १ )

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सृष्टीचे पदार्थ व ईश्वरनिर्मिती जाणून परमेश्वराचे पूर्णपणे ध्यान करून विद्या व धर्माची वाढ करतात ते मोक्ष प्राप्त करतात. ॥ २३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    They attain to that immortal state of bliss who know and experience the Spirit which is the lord protector of the celebrants of Divinity immanent in the gayatri verses in their recitations, who rejoice in the divine presence above the trishbubh verses and actualise that presence in life without break, who rise to the height of Divinity and share the dynamic presence vibrating in the universe and revealed in jagati verses, and commune with that presence.$(In scientific terms, the earth is gayatri. The fire of yajna is lit on the earth. Traishtubh is the sky. The wind is vibrant and operative there. Dyu is jagati, most dynamic. There aditya, the sun, reigns. Agni, fire is the vitality of the earth, wind is the energy of the sky, and the sun is the life of the heavens. Those who know these regions, their life and vitality and realise their vitality and the spirit of Divinity which informs them and their vitality attain to the state of immortal bliss.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The achievements of God-seekers.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    God is the Protector. A devotee who recited and studied the Gayatri, and glorified Him through it, and likewise who glorified Him through the Trishtup and Jagati-meters of mantras—all these achieve the Eternal Bliss. In fact, He is the sustainer of the three worlds (the whole universe is divided into three) and is praised in the Vedic mantras of Gayatri Trishtup and Jagati.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons attain immortality who know the nature and attributes of the objects of the universe and pray to God, who is their creator. Such people always advance their knowledge and Dharma (righteousness).

    Foot Notes

    (गायत्रम् ) गायतां रक्षकम् = God who is the Protector of true devotees. ( पदम् ) वेदितव्यम् = Worth-knowing. The Gayatri, Trishtup and Jagati are symbolic of earth, air and sun also, according to Shatapatha and Tandya Brahman's quotations,

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