ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 3
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒मं रथ॒मधि॒ ये स॒प्त त॒स्थुः स॒प्तच॑क्रं स॒प्त व॑ह॒न्त्यश्वा॑:। स॒प्त स्वसा॑रो अ॒भि सं न॑वन्ते॒ यत्र॒ गवां॒ निहि॑ता स॒प्त नाम॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । रथ॑म् । अधि॑ । ये । स॒प्त । त॒स्थुः । स॒प्तऽच॑क्रम् । स॒प्त । व॒ह॒न्ति॒ । अश्वाः॑ । स॒प्त । स्वसा॑रः । अ॒भि । सम् । न॒व॒न्ते॒ । यत्र॑ । गवा॑म् । निऽहि॑ता । स॒प्त । नाम॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं रथमधि ये सप्त तस्थुः सप्तचक्रं सप्त वहन्त्यश्वा:। सप्त स्वसारो अभि सं नवन्ते यत्र गवां निहिता सप्त नाम ॥
स्वर रहित पद पाठइमम्। रथम्। अधि। ये। सप्त। तस्थुः। सप्तऽचक्रम्। सप्त। वहन्ति। अश्वाः। सप्त। स्वसारः। अभि। सम्। नवन्ते। यत्र। गवाम्। निऽहिता। सप्त। नाम ॥ १.१६४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यत्र गवां सप्त नाम निहिता सन्ति तत्र स्वसार इव सप्ताऽभि संनवन्ते सप्ताश्वाश्च वहन्ति तमिमं सप्तचक्रं रथं ये सप्त जना अधितस्थुस्तेऽत्र सुखिनो भवन्ति ॥ ३ ॥
पदार्थः
(इमम्) (रथम्) (अधि) (ये) (सप्त) (तस्थुः) तिष्ठेयुः (सप्तचक्रम्) सप्त चक्राणि यस्मिँस्तम् (सप्त) (वहन्ति) चालयन्ति (अश्वाः) आशुगामिनोऽग्न्यादयः (सप्त) (स्वसारः) भगिन्य इव वर्त्तमानाः कलाः (अभि) (सम्) (नवन्ते) गच्छन्ति। नवत इति गतिकर्मा०। निघं० २। १४। (यत्र) यस्मिन् (गवाम्) किरणानाम् (निहिता) धृतानि (सप्त) (नाम) नामानि ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये स्वाम्यध्यापकाध्येतृनिर्मातृनियन्तृचालका अनेकचक्रतत्त्वादियुक्तानि यानानि रचयितुं जानन्ति ते प्रशंसिता भवन्ति यस्मिञ्छेदनाकर्षणादिगुणाः किरणा वर्त्तन्ते तत्र प्राणा अपि सन्ति ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यत्र) जिसमें (गवाम्) किरणों के (सप्त) सात (नाम) नाम (निहिता) निरन्तर धरे स्थापित किये हुए हैं और वहाँ (स्वसारः) बहिनों के समान वर्त्तमान (सप्त) सात कला (अभि, सं, नवन्ते) सामने मिलती हैं (सप्त) सात (अश्वाः) शीघ्रगामी अग्नि पदार्थ (वहन्ति) पहुँचाते हैं उस (इमम्) इस (सप्तचक्रम्) सात चक्करवाले (रथम्) रथ को (ये) जो (सप्त) सातजन (अधि, तस्थुः) अधिष्ठित होते हैं वे इस जगत् में सुखी होते हैं ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो स्वामी अध्यापक अध्येता रचनेवाले नियम कर्त्ता और चलानेवाले अनेक चक्कर और तत्त्वादियुक्त विमानादि यानों को रचने को जानते हैं, वे प्रशंसित होते हैं, जिनमें छेदन वा आकर्षण गुणवाले किरण वर्त्तमान हैं, वहाँ प्राण भी हैं ॥ ३ ॥
विषय
सप्तचक्र 'रथ' का वर्णन
पदार्थ
१. (इमं रथं अधि) = इस शरीररूपी रथ पर (ये) = जो (सप्त) = [सप्- to sip] ज्ञान का आचमन करनेवाले सात (अधितस्थुः) = रक्षकों के रूप में खड़े हैं। वेद ने इनका उल्लेख 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' इन शब्दों में किया है। शरीर में ये सात ऋषि ज्ञान-जल का आचमन करते हुए इसकी रक्षा कर रहे हैं । २. (सप्तचक्रम्) = यह शरीर 'सप्तचक्र' है। प्रत्येक चक्र में पृथक्-पृथक् देव बैठे हैं। इनका आदर करना [सेच्- to honour, to worship], इनका उचित विकास व प्रयोग करना मनुष्य का कर्त्तव्य है। (सप्त अश्वाः वहन्ति) = सात इन्द्रियरूपी अश्व इसे स्थान से स्थानान्तर पर ले जा रहे हैं। ये इन्द्रियरूपी अश्व प्राण के साथ जुड़े हुए हैं [सप् = to connect, सप्त = connected] । ३. (सप्त) = सात (स्वसार:) = प्राण (अभि संनवन्ते) = बड़ी सुन्दरता से इन्हें फिरफिर नया बना देते हैं। ये प्राण ही शरीर को सम्यक् गति देनेवाले और विविध कार्यों को करनेवाले हैं। ४. (यत्र) = इस शरीररूप रथ में प्रभु ने (गवां सप्त नाम निहिता) = [गो= diamond] रत्नों का सप्तक स्थापित किया है। 'रस, रुधिर, मांस, अस्थि मज्जा, मेदस् व वीर्य' – ये सात धातुएँ सात रत्न हैं। ये शरीर को रमणीय बनाते हैं, अतः रत्न हैं। इनके विकृत होने पर शरीर रोगी हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ - शरीररूपी रथ पर सात ऋषि बैठे हुए हैं, सात प्राण- इन्द्रियाँ इसका सञ्चालन कर रही हैं, प्रभु ने इसमें सात रत्न स्थापित किये हुए हैं ।
विषय
सप्त चक्र रथवत् आत्माधिष्ठित देह और परमेश्वर के विराट् रूप का वर्णन।
भावार्थ
जिस प्रकार ( सप्त चक्रम् रथम् सप्त अधि तस्थुः ) सात मुख्य चक्रों वाले महायन्त्र के चलाने के लिए उसमें प्रत्येक चक्र पर एक २ पुरुष, इस प्रकार सात पुरुष अध्यक्ष, सञ्चालक नियत हों और उनके अधीन ( सप्त अश्वाः वहन्ति ) सात अश्व या प्रेरक शक्तिमान् पदार्थ उस रथ या वेगवान् यन्त्र को सञ्चालित करें। और उसमें ( सप्त ) सात ( स्वसारः ) अपने ही बल से चलने वाले कला पुञ्ज ( अभि संनवन्ते ) भली प्रकार चलते हों (यत्र) जिन में (गवां) गमन करने वाले यन्त्रों के ( सप्त नाम निहिता) पृथक् २ सात स्वरूप या सात प्रकार के यन्त्र स्थापित हों उसी प्रकार ( इमं ) इस (सप्त चक्रं रथम् ) सात चक्र वाले रथ के समान रमण करने के देह रूप रथ को ( सप्त तस्थुः ) सात मुख्य प्राण सात धातुओं या सात प्राणों वाले अपने वश करते हैं। वे सातों ही ( अश्वाः ) विषयों के भोक्ता इन्द्रिय होकर ( वहन्ति ) धारते हैं। उनमें रहने वाली ( सप्त स्वसारः ) सात बहनों के समान सात शक्तियें सात मात्राएं 'स्व' अर्थात् आत्मा के बल से चलने वाली शक्तियें (सं नवन्ते) गति कर रही हैं। ( यत्र ) जिनमें ( गवां ) इन्द्रियों के (सप्त नाम) सात स्वरूप स्थित हैं। (२) परमेश्वर के विराट् रूप संसार के रथ में पञ्चभूत, महत् और अहंकार ये सात अश्व हैं उनमें विद्यमान शक्तियें सात स्वसाएं हैं। उनका वर्णन करने वाली सप्त छन्दोमय वाणियां स्थित हैं। (२) आदित्य पक्ष में—सात रश्मियें, सात ग्रह, सात ऋतु, (३) संवत्सर पक्ष में—अयन, ऋतु, मास, पक्ष, दिन, रात्रि, मुहूर्त्त ये सात कालावयव हैं। स्वयं गतिमान् होने से, या 'स्वः' नाम तेज-तापमय सूर्य से प्रेरित होने से रश्मि 'स्वसा' हैं।
टिप्पणी
विशेष देखो अथर्व० का० ९।९। ३॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः॥ देवता—१-४१ विश्वदेवाः। ४२ वाक् । ४२ आपः। ४३ शकधूमः। ४३ सोमः॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च। ४५ वाक्। ४६, ४७ सूर्यः। ४८ संवत्सरात्मा कालः। ४९ सरस्वती। ५० साध्या:। ५१ सूर्यः पर्जन्यो वा अग्नयो वा। ५२ सरस्वान् सूर्यो वा॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप्। ८, ११, १८, २६,३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप्। २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२, त्रिष्टुप्। १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२, १५, २३ जगती। २९, ३६ निचृज्जगती। २० भुरिक पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः। ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती। ५१ विराड् नुष्टुप्।। द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे स्वामी, अध्यापक, अध्येता, निर्माणकर्ता, नियमकर्ता व अनेक चक्र आणि तत्त्व इत्यादीनी विमान इत्यादी यानांना तयार करतात ते प्रशंसनीय ठरतात. ज्यात छेदन व आकर्षण गुणयुक्त किरण असतात तेथे प्राणही असतो. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Seven are those who ride this chariot, seven motive powers (horses or rays of light) which draw this chariot of seven wheels, wheel within wheel. They are seven sisters who exult, roar and thunder together in reverence and worship of the father where in are hidden in depth seven names of the rays of light, the seven spheres and seven notes of language. (This is a highly mystical, symbolic, and at the same time scientific mantra. To understand the meaning and implication at different levels of correspondence we need knowledge of astronomy, cosmology, physics and astrophysics, language and grammar, music and mechanics. And still the meaning would remain open ended.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The praise of technology teachers.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Seven machines move in unison like sisters where the names of seven rays of the sun are established at a place full of light. Seven steady horses in the form of rays of the sun draw that chariot. It has seven wheels. Those seven persons who ride over this wonderful vehicle enjoy happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here persons in question are divided into seven categories consisting of the master, teacher, technocrats, student, manufacturer, controller and driver. They know how to make the above mentioned chariots or vehicle. They are admired everywhere.
Foot Notes
(अश्वा:) आशुगामिनः अग्न्यादयः = Quick-going horses in the form of fire and air etc. ( स्वसार: ) भगिन्यः इव वर्तमाना: कलाः = Machines working like sisters. ( गवाम् ) किरणानाम् = Of the rays. Here again the simile has been taken from the chariot in the form of the solar world drawn by the seven coloured rays of the sun. Time is taken as chariot and seven horses 6 ordinary seasons different in their nature and seventh with common characteristic or seven consisting of अयन, ऋतु, मास, पक्ष, दिवस, रात्री and मुहूर्त्त ( moments).
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