ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 42
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - वाक्; , आपः
छन्दः - भुरिग्बृहती
स्वरः - मध्यमः
तस्या॑: समु॒द्रा अधि॒ वि क्ष॑रन्ति॒ तेन॑ जीवन्ति प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः। तत॑: क्षरत्य॒क्षरं॒ तद्विश्व॒मुप॑ जीवति ॥
स्वर सहित पद पाठतस्याः॑ । स॒मु॒द्राः । अधि॑ । वि । क्ष॒र॒न्ति॒ । तेन॑ । जी॒व॒न्ति॒ । प्र॒ऽदिशः॑ । चत॑स्रः । ततः॑ । क्ष॒र॒ति॒ । अ॒क्षर॑म् । तत् । विश्व॑म् । उप॑ । जी॒व॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्या: समुद्रा अधि वि क्षरन्ति तेन जीवन्ति प्रदिशश्चतस्रः। तत: क्षरत्यक्षरं तद्विश्वमुप जीवति ॥
स्वर रहित पद पाठतस्याः। समुद्राः। अधि। वि। क्षरन्ति। तेन। जीवन्ति। प्रऽदिशः। चतस्रः। ततः। क्षरति। अक्षरम्। तत्। विश्वम्। उप। जीवति ॥ १.१६४.४२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 42
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ वाणीविषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्यास्तस्याः समुद्रा अधि वि क्षरन्ति तेन चतस्रः प्रदिशो जीवन्ति ततो यदक्षरं क्षरति तद्विश्वमुप जीवति ॥ ४२ ॥
पदार्थः
(तस्याः) वाण्याः (समुद्राः) शब्दाऽर्णवाः (अधि) (वि) (क्षरन्ति) अक्षराणि वर्षन्ति (तेन) कार्येण (जीवन्ति) (प्रदिशः) दिशोपदिशः (चतस्रः) चतुःसंख्योपेताः (ततः) (क्षरति) (अक्षरम्) अक्षयस्वभावम् (तत्) तस्मात् (विश्वम्) सर्वं जगत् (उप) (जीवति) अयं मन्त्रो निरुक्ते व्याख्यातः । निरु० ११। ४१। ॥ ४२ ॥
भावार्थः
समुद्रवदाकाशस्तत्र रत्नवच्छब्दाः प्रयोक्तारो ग्रहीतारस्तदुपदेशश्रवणेन सर्वेषामुपजीवनं भवति ॥ ४२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब वाणी के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (तस्याः) उस वाणी के (समुद्राः, अधि, वि, क्षरन्ति) शब्दरूपी अर्णव समुद्र अक्षरों की वर्षा करते हैं (तेन) उस काम से (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) दिशा और चारों उपदिशा (जीवन्ति) जीवती हैं और (ततः) उससे जो (अक्षरम्) न नष्ट होनेवाला अक्षरमात्र (क्षरति) वर्षता है (तत्) उससे (विश्वम्) समस्त जगत् (उप, जीवति) उपजीविका को प्राप्त होता है ॥ ४२ ॥
भावार्थ
समुद्र के समान आकाश है उसके बीच रत्नों के समान शब्द शब्दों के प्रयोग करनेवाले रत्नों का ग्रहण करनेवाले हैं, उन शब्दों के उपदेश सुनने से सबकी जीविका और सबका आश्रय होता है ॥ ४२ ॥
विषय
अपरा विद्या व परा विद्या
पदार्थ
१. (तस्याः) = गतमन्त्र में वर्णित उस वेदवाणी से (समुद्राः) = ज्ञान के सब समुद्र (अधिविक्षरन्ति) = इस पृथिवी पर विविध रूपों में बहते हैं। यह वेदवाणी ही सब सत्य- विद्याओं का आदिस्रोत है। ऋग्वेद का दूसरा नाम विज्ञानवेद है, (तेन) = उस विज्ञान से (चतस्त्रः प्रदिश:) = चारों विस्तृत दिशाएँ (जीवन्ति) = जीती हैं। चारों दिशाओं में रहनेवाले प्राणियों का जीवन विज्ञान पर ही निर्भर है। २. (ततः) = इस सृष्टि-विद्या-अपराविद्या से (अक्षरम्) = अविनाशी प्रभु का अमृतज्ञान क्षरति टपकता है। सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ अपनी रचना में उस प्रभु की महिमा को दृष्टिगोचर कराता है। अपने शरीर की बनावट को देखकर किसका सिर झूम नहीं जाता ! प्रभु की विचित्र कारीगरी को देखकर प्रभु-भक्त कह उठता है कि तत् पराविद्या से ज्ञात उस प्रभु को ही आश्रय करके (विश्वम्) = यह सारा संसार (उपजीवति) = जी रहा है। प्रभु ने ही देवों में उस उस शक्ति को रक्खा है। पृथिवी में उत्पादक शक्ति, सूर्य में बादलों को जन्म देने की शक्ति उसी की दी हुई है। इस प्रकार सोचने पर मनुष्य प्रभु के प्रति नतमस्तक होता है, उसमें विनीतता आती है।
भावार्थ
भावार्थ - अपरा और परा विद्या दोनों ही वेदवाणी से उत्पन्न होती हैं। अपरा विद्या मृत्यु से बचाती है और पराविद्या हमें विनीत बनाकर मोक्ष प्राप्ति के योग्य बनाती है।
विषय
विद्युत्वत् सर्व जीवनधार प्रभुशक्ति ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( तस्याः ) उस विद्युत् से आघात खाकर ( समुद्राः ) जलों को बहाने वाले सेव ( अधि वि क्षरन्ति ) बहुत अधिक मात्रा में और विशेष रूप से बरसते हैं। ( तेन ) उस वर्षा से ( प्रदिशः चतस्रः ) चारों दिशाओं में बसने वाले जीव गण (जीवन्ति) अन्न द्वारा जीवन धारण करते हैं । ( ततः ) उस मध्यम वाणी, मेघमयी विद्युत् से ही ( अक्षरं क्षरति ) जल बरसता है और ( तत् ) उसी के आश्रय ( विश्वम् ) समस्त संसार ( उप जीवति ) अपना जीवन धारण करता है। उसी प्रकार ( तस्याः ) उस परमेश्वरी शक्ति से ( समुद्राः ) समुद्र के समान अथाह ऐश्वर्यो को बहाने वाले ( विक्षरन्ति ) विविध ऐश्वर्य बहाते हैं उससे ( चतस्रः प्रदिशः जीवन्ति ) चारों दिशाओं में स्थित लोक जीते हैं, ( ततः ) उसी से ‘अक्षर’ अक्षय जीवन शक्ति प्राप्त होती है जिसको समस्त संसार या ( विश्वम् ) उसमें प्रविष्ट जीव संसार जीवन प्राप्त करता है । एष सर्वाणि भूतानि पञ्चभिर्व्याप्य मूर्तिभिः। जन्मवृद्धिक्षयैर्नित्यं संसारयति चक्रवत्॥ मनु० १२ । १४ । पंच भूतों से उत्पन्न एवं पञ्चेन्द्रियों से ग्राह्य भोग्य ऐश्वर्य ही समुद्र हैं। उन्हीं का जीवगण अनादि काल से भोग कर रहे हैं ( २ ) वाणी से समुद्र रूप शब्दों के सागर उत्पन्न होते हैं, सब प्राणी गण उसी वाणी पर जीते हैं । अथवा ( चतस्रः प्रदिशः ) उत्तम उपदेश देने वाली चार वेद वाणियाँ उसी वाणी पर आश्रित हैं। उसी वाणी से (अक्षरं) अक्षर अविनाशी ब्रह्म ज्ञान प्राप्त होता है जिसका (विश्वम्) उसमें प्रविष्ट अभ्यासी जीव, गुरु की उपासना और गुरुशुश्रूषा द्वारा भृत्य के समान ज्ञान प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
आकाश समुद्राप्रमाणे असते. त्यात शब्द रत्नाप्रमाणे असतात. शब्दांचा प्रयोग करणारे हे रत्न ग्रहण करणारे असतात. त्या शब्दांचा उपदेश ऐकून सर्वांना उपजीविका मिळते व आश्रय मिळतो. ॥ ४२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The oceanic showers of that voice of eternal omniscience rain in torrents. With these showers the directions, all the four and their sub-directions, vibrate with life. Then from there the actual words reveal themselves to human vision and perception, and the entire world of humanity lives by that revelation with light, support and guidance.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Selective words used in the speech create wonders.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, from the speech of learned and enlightened flow out the bunches of words and sentences. And because of their forcefulness, sincerity and effectiveness the people from all walks of life and of all races, faiths and nationalities abide by them. Out of this emerges, Indestructible Syllable Om The universe exists on that base.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The sky is like the ocean and the spoken words are like the jewels, which create a wavelength in the universe. Those who use selective and effective words, people from all directions flock to them. By hearing their sermons all beings are benefitted-get a boost in their life.
Foot Notes
(तस्याः) वाण्या: = From that speech. (समुद्रा:) शब्दार्णवा: = The seas of words.
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