ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 25
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
जग॑ता॒ सिन्धुं॑ दि॒व्य॑स्तभायद्रथंत॒रे सूर्यं॒ पर्य॑पश्यत्। गा॒य॒त्रस्य॑ स॒मिध॑स्ति॒स्र आ॑हु॒स्ततो॑ म॒ह्ना प्र रि॑रिचे महि॒त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठजग॑ता । सिन्धु॑म् । दि॒वि । अ॒स्त॒भा॒य॒त् । र॒थ॒म्ऽत॒रे । सूर्य॑म् । परि॑ । अ॒प॒श्य॒त् । गा॒य॒त्रस्य॑ । स॒म्ऽइधः॑ । ति॒स्रः । आ॒हुः॒ । ततः॑ । म॒ह्रा । प्र । रि॒रि॒चे॒ । म॒हि॒ऽत्वा ॥
स्वर रहित मन्त्र
जगता सिन्धुं दिव्यस्तभायद्रथंतरे सूर्यं पर्यपश्यत्। गायत्रस्य समिधस्तिस्र आहुस्ततो मह्ना प्र रिरिचे महित्वा ॥
स्वर रहित पद पाठजगता। सिन्धुम्। दिवि। अस्तभायत्। रथम्ऽतरे। सूर्यम्। परि। अपश्यत्। गायत्रस्य। सम्ऽइधः। तिस्रः। आहुः। ततः। मह्रा। प्र। रिरिचे। महिऽत्वा ॥ १.१६४.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 25
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यो जगदीश्वरो जगता सिन्धु दिवि रथन्तरे सूर्यमस्तभायत् सर्वं पर्यपश्यत् या गायत्रस्य सकाशात्तिस्रः समिध आहुस्ततो मह्ना महित्वा प्ररिरिचे स सर्वैः पूज्योऽस्ति ॥ २५ ॥
पदार्थः
(जगता) संसारेण सह (सिन्धुम्) नद्यादिकम् (दिवि) प्रकाशे (अस्तभायत्) स्तभ्नाति (रथन्तरे) अन्तरिक्षे (सूर्यम्) सवितृलोकम् (परि) सर्वतः (अपश्यत्) पश्यति (गायत्रस्य) गायत्र्या संसाधितस्य (समिधः) सम्यक् प्रदीप्ताः पदार्थाः (तिस्रः) त्रित्वसंख्यायुक्ताः (आहुः) कथयन्ति (ततः) (मह्ना) महता (प्र) (रिरिचे) प्ररिणक्ति (महित्वा) महित्वेन पूज्येन ॥ २५ ॥
भावार्थः
यदा ईश्वरेण जगन्निर्मितं तदैव नदीसमुद्रादीनि निर्मितानि। यथा सूर्य आकर्षणेन भूगोलान् धरति तथा सूर्यादिकं जगदीश्वरो धरति। यस्सर्वेषां जीवानां सर्वाणि पापपुण्यात्मकानि कर्माणि विज्ञाय फलानि प्रयच्छति स सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यो महानस्ति ॥ २५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो जगदीश्वर (जगता) संसार के साथ (सिन्धुम्) नदी आदि को (दिवि) प्रकाश (रथन्तरे) और अन्तरिक्ष में (सूर्यम्) सवितृलोक को (अस्तभायत्) रोकता व सबको (पर्य्यपश्यत्) सब ओर से देखता है वा जिन (गायत्रस्य) गायत्री छन्द से अच्छे प्रकार से साधे हुए ऋग्वेद की उत्तेजना से (तिस्रः, समिधः) अच्छे प्रकार प्रज्वलित तीन पदार्थों को अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान तीनों काल के सुखों को (आहुः) कहते हैं (ततः) उनसे (मह्ना) बड़े (महित्वा) प्रशंसनीय भाव से (प्र, रिरिचे) अलग होता है अर्थात् अलग गिना जाता है वह सबको पूजने योग्य है ॥ २५ ॥
भावार्थ
जब ईश्वर ने जगत् बनाया तभी नदी और समुद्र आदि बनाये। जैसे सूर्य आकर्षण से भूगोलों को धारण करता है, वैसे सूर्य आदि जगत् को ईश्वर धारण करता है। जो सब जीवों के समस्त पाप पुण्यरूपी कर्म्मों को जानके फलों को देता है, वह ईश्वर सब पदार्थों से बड़ा है ॥ २५ ॥
विषय
पृथिवी पर ही स्वर्ग
पदार्थ
१. प्रातिभ ज्ञान की प्राप्ति ही ज्ञान की चरम सीमा है। इस बात को मन्त्र में इस रूप में कहा गया है कि – २. (जगता) = सर्वगत, सर्वभूतान्तरात्मा [सर्वं वा इदमात्मा जगत्] प्रभु के द्वारा उपासक (सिन्धुम्) = अपने ज्ञान- समुद्र को [वाग्वै समुद्रो मनः समुद्रस्य चक्षुः - तां० ब्रा० ६।४।७] (दिवि) = द्युलोक में, अर्थात् सर्वोच्च शिखर पर अस्तभायत् थामता है, अर्थात् इस प्रातिभ ज्ञान के द्वारा जीव का ज्ञान उच्चतम शिखर पर पहुँच जाता है। इसका परिणाम 'संज्ञानम्' परस्पर मेल होता है। सब प्रकार के द्वेष व मल समाप्त होकर हम सचमुच ही स्वर्ग में अवस्थित होते हैं । ३. इस ज्ञान को प्राप्त करके मनुष्य (रथन्तरे) = इस पृथिवी पर ही [रथन्तरं हीयं पृथिवी – श० १।७।२।१७] (सूर्यम्) = स्वर्ग को [स्वर्गो वै लोकः, सूर्यो ज्योतिरुत्तमम् - श० १२।९।२।८] (परि अपश्यत्) = चारों ओर देखता है। मनुष्य के ज्ञान प्रधान बनने पर वह आनन्दमयी स्थिति में पहुँचता है। ज्ञान से निष्कामता आती है और निष्कामता से स्वर्ग की प्राप्ति । ज्ञान से द्वेष और कलह समाप्त होकर मृत्यु भी समाप्त हो जाती है। पारस्परिक द्वेष से शून्य होने पर मनुष्य भूमण्डल पर स्वर्ग को ही उतरा हुआ देखेगा। ४. यह ज्ञान जिसका परिणाम स्वर्ग है गायत्र से उत्पन्न हुआ था। 'गायत्र से उपासना, उपासना से शान्ति, शान्ति से ज्ञान' - इस ज्ञानक्रम में ज्ञानसिन्धु का आदिस्रोत गायत्र- यज्ञ ही है। (गायत्रस्य) = इस यज्ञ की (समिधः) = दीप्ति के साधन (तिस्रः) = तीन (आहुः) = कहे गये हैं। यज् धातु के तीन अर्थों में 'देवपूजा, संगतिकरण, दान' में उन तीन समिधाओं का संकेत है। माता, पिता, आचार्य, अतिथि और परमात्मा - इन पाँच देवों की पूजा, इनके साथ संगतिकरण और इनके प्रति अपने दान (समर्पण) से ज्ञानाग्नि दीप्त होती है। ५. (ततः) उस ज्ञान प्राप्ति से ही मनुष्य महा बल और (महित्वा) = महिमा के दृष्टिकोण से (प्ररिरिचे) = अपने समान योनिवाले सभी पुरुषों को लाँघ जाता है [Excels] | मनुष्य की शक्ति और महिमा इसी बात में है कि उसने भूलोक को स्वर्गलोक बना दिया है।
भावार्थ
भावार्थ- मनुष्य अपने ज्ञान को सर्वोच्च अवस्था तक पहुँचाकर अपनी शक्ति और महिमा से मर्त्यलोक को स्वर्गलोक में परिवर्तित कर देता है ।
विषय
महान् सामर्थ्यवान् प्रभु परमेश्वर ।
भावार्थ
वह परमेश्वर ( जगता ) अपने सर्वप्रेरक, गति देने वाली गमन रूप काल शक्ति से ही ( सिन्धुम् ) वेग से गति करने वाले सूर्यादि लोक समूह को (दिवि) आकाश में (अस्तभायत्) स्तब्ध करता है, थामता है और (रथन्तरे) अन्तरिक्ष में या और अधिक वेगवान् शक्तिमान् के आश्रय पर ही (सूर्य) सूर्य के समान तेजस्वी पिण्ड को (परि अपश्यत्) सर्वत्र भ्रमण करते हुए दिखाता है। उस (गायत्रस्य) गान करने वाले के रक्षक प्रभु परमेश्वर के ही अधीन (समिधः) अच्छी प्रकार देदीप्यमान (तिस्रः) अग्नि, विद्युत् और सूर्य तीनों हैं। (ततः) वह उनसे भी अधिक (महित्वा मह्ना) महान् सामर्थ्य से और महान् स्वरूप से (प्ररिरिचे) उनसे कहीं बढ़कर है। विशेष विवरण देखो ( अथर्व० का ० ९ । १० । ३ ) ॥ इत्यष्टादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा ईश्वराने जग उत्पन्न केले तेव्हा नदी व समुद्र इत्यादी निर्माण केलेले आहेत. जसा सूर्य आकर्षणाने भूगोल धारण करतो तसे सूर्य इत्यादींना ईश्वर धारण करतो. जो सर्व जीवाच्या पाप-पुण्यरूपी कर्मांना जाणून फळ देतो तो ईश्वर सर्व पदार्थांहून महान आहे. ॥ २५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The Lord establishes the ocean of energy in the Dyu, the region of light, by cosmic dynamics of Jagati hymns of omnipotence. In the Antariksha, He establishes the sun, generative and radiating source of light and energy. The blazing fire-woods of divine energy, they say, are three: the sun in the highest sky, lightning, wind and electricity in the atmosphere, and fire and magnetic energy in the earth, and by His grand and adorable omnipotence the Lord transcends all these. Of Gayatra, the Samidhas are said to be three: light, lightning and fire.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Glory to God who is the Greatest.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
God set up rivers and oceans etc. in His light along with the world and surely the sun in the firmament. The wise men declare that by the knowledge of the Gayatri, the happiness of the past, present and future is kindled. Therefore, He (God) who excels all with His Glory is to be adored by all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When God created the universe, He also made rivers, oceans and other things. As the sun upholds the earth and other planets by its gravitational force, likewise God upholds the sets of suns and other luminaries. God is greater than all the objects of the universe as it is He who having known all the good and bad actions of the living beings gives them proper results.
Foot Notes
( रथन्तरे ) अन्तरिक्षे - In the firmament. (दिवि ) प्रकाशे = In the light ( समिघ: ) सम्यक् प्रदीप्ता: पदार्था: = Bright objects.
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