ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 14
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सने॑मि च॒क्रम॒जरं॒ वि वा॑वृत उत्ता॒नायां॒ दश॑ यु॒क्ता व॑हन्ति। सूर्य॑स्य॒ चक्षू॒ रज॑सै॒त्यावृ॑तं॒ तस्मि॒न्नार्पि॑ता॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसऽने॑मि । च॒क्रम् । अ॒जर॑म् । वि । व॒वृ॒ते॒ । उ॒त्ता॒नाया॑म् । दश॑ । यु॒क्ताः । व॒ह॒न्ति॒ । सूर्य॑स्य । चक्षिः॑ । रज॑सा । ए॒ति॒ । आऽवृ॑तम् । तस्मि॑न् । आर्पि॑ता । भुव॑नानि । विश्वा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सनेमि चक्रमजरं वि वावृत उत्तानायां दश युक्ता वहन्ति। सूर्यस्य चक्षू रजसैत्यावृतं तस्मिन्नार्पिता भुवनानि विश्वा ॥
स्वर रहित पद पाठसऽनेमि। चक्रम्। अजरम्। वि। ववृते। उत्तानायाम्। दश। युक्ताः। वहन्ति। सूर्यस्य। चक्षुः। रजसा। एति। आऽवृतम्। तस्मिन्। आर्पिता। भुवनानि। विश्वा ॥ १.१६४.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 14
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यत्सनेम्यजरं चक्रमुत्तानायां विववृते दश युक्ता वहन्ति यत्सूर्य्यस्य चक्षू रजसाऽऽवृतमेति तस्मिन् विश्वा भुवनान्यार्पिता सन्तीति यूयं वित्त ॥ १४ ॥
पदार्थः
(सनेमि) समानो नेमिर्यस्मिँस्तत् (चक्रम्) चक्रवद्वर्त्तमानम् (अजरम्) जरादोषरहितम् (वि) विशेषे (ववृते) पुनः पुनरावर्त्तते। अत्र तुजादीनामिति दीर्घः। (उत्तानायाम्) उत्कृष्टतया विस्तृतायां जगत्याम् (दश) प्राणाः (युक्ताः) (वहन्ति) प्रापयन्ति (सूर्यस्य) (चक्षुः) व्यक्तिकारकम् (रजसा) लोकैः सह (एति) गच्छन्ति (आवृतम्) समन्तादाच्छादितम् (तस्मिन्) (आर्पिता) स्थापितानि (भुवनानि) भूगोलाख्यानि (विश्वा) सर्वाणि ॥ १४ ॥
भावार्थः
यो विभुर्नित्यः सर्वलोकाधारस्समयो वर्त्तते तस्यैव गत्या सूर्य्यादिलोकाः प्रकाशिता भवन्तीति सर्वैर्वेद्यम् ॥ १४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (सनेमि) समान नेमि नाभिवाला (अजरम्) जरा दोष से रहित (चक्रम्) चक्र के समान वर्त्तमान कालचक्र (उत्तानायाम्) उत्तम विथरे हुए जगत् में (वि, ववृते) विशेष कर बार-बार आता है और उस कालचक्र को (दश) दश प्राण (युक्ताः) युक्त (वहन्ति) बहाते हैं। जो (सूर्यस्य) सूर्य का (चक्षुः) व्यक्ति प्रकटता करनेवाला भाग (रजसा) लोकों के साथ (आवृतम्) सब ओर से आवरण को (एति) प्राप्त होता है अर्थात् ढंप जाता है (तस्मिन्) उसमें (विश्वा) समस्त (भुवनानि) भूगोल (आर्पिता) स्थापित हैं ऐसा तुम जानो ॥ १४ ॥
भावार्थ
जो विभु, नित्य और सब लोकों का आधार समय वर्त्तमान है, उसी काल की गति से सूर्य आदि लोक प्रकाशित होते हैं, ऐसा सब लोगों को जानना चाहिये ॥ १४ ॥
विषय
पृथिवी- चक्र
पदार्थ
१. गतमन्त्र में वर्णित भूचक्र का वर्णन करते हुए कहते हैं- (चक्रम्) = यह भूचक्र (सनेमि) = समान नेमिवाला है। अक्ष व नाभि की भाँति इसकी [नेमि] परिधि भी जीर्ण-शीर्ण नहीं होती। यह चक्र (अजरम्) = अजर है बुढ़ापे से रहित है। यह नहीं कि यह कार्य नहीं कर रहा हो यह तो (विवावृते) = सूर्य के चारों ओर तीव्र गति से बारम्बार घूम रहा है। २. (उत्ताना-याम्) = यह उत्तान भूचक्र अपनी कीली पर घूमता सदा से सूर्य की परिक्रमा करता चला आ रहा है। इस भूचक्र पर दश अवस्था या विकास के दृष्टिकोण से दस स्थितियों में वर्तमान पुरुष (युक्ताः) = अपनेअपने व्यापार में लगे हुए वहन्ति जीवन का वहन कर रहे हैं। मनुष्य की आयु सामान्यतः सौ वर्ष है। वह दस दशतियों में बाँटी जा सकती है। सब मनुष्य भिन्न-भिन्न दशतियों में हैं। कुछ विरल व्यक्ति ही नवीं या दसवीं दशति तक पहुँचते हैं। उन्हें वेद में 'नवग्व' व 'दशग्व' कहा है। प्रयत्न तो मनुष्य का यही होना चाहिए कि वह 'नवग्व व दशग्व' बने । यदि हम 'युक्ताः' प्रत्येक कार्य में युक्तचेष्ट-नपी-तुली क्रियावाले होंगे तो अवश्य वहाँ तक पहुँच पाएँगे। २. (सूर्यस्य चक्षुः) = सूर्य का प्रकाश रजसा द्युलोक व पृथिवीलोक के मध्य में स्थित अन्तरिक्षलोक से (आवृतम्) = आवृत होकर (एति) = पहुँचता है। इस प्रकार हम प्रचण्ड किरणों से झुलस नहीं जाते। (तस्मिन्) = इस (रज:) = आवृत सूर्यप्रकाश में ही (विश्वा भुवनानि) = सब प्राणी (आर्पिता) = अर्पित हैं। यदि यह प्रकाश हम तक बिना आवरण के ही आता तो हम सब झुलस जाते। यदि यह आता ही नहीं तो भी जीवन असम्भव हो जाता, अतः हम सबकी स्थिति इस सूर्यप्रकाश पर ही निर्भर करती है।
भावार्थ
भावार्थ - सब प्राणी भूचक्र की गतिशीलता और सूर्य के प्रकाश के कारण पृथिवी पर जीवन धारण कर रहे हैं ।
विषय
दक्षाश्व रथवत् सर्वाधार आत्मा।
भावार्थ
जिस प्रकार ( उत्तानायां दश युक्ता वहन्ति ) उत्तान इस भूमि पर दस अश्व एक ही रथ में जुड़कर उसको ढो ले जाते हैं और ( सनेमि अजरं चक्रं विवावृते ) हाल सहित दृढ़ चक्र बराबर घूमता जाता है ( उत्तानायाम् ) उत्तम शक्तिमान् पुरुष, परमेश्वर के आश्रय पर विद्यमान प्रकृति में ही (दश ) पांचों भूत और पांच उनकी तन्मात्राएं सब मिलकर दसों (युक्ताः) परस्पर सम्मिलित होकर ( वहन्ति ) इस जगत् को धारण करते हैं और ( सनेमि ) सर्वत्र समान रूप से नियम पूर्वक चलने हारा ( चक्रम् ) काल ( अजरं ) कभी नाश को न प्राप्त होकर ( वि वा-वृते ) विशेष रूप से वर्त्तता है, व्यतीत होता है। (चक्षुः रजसा आवृ-तम् एति ) जिस प्रकार देखने वाली आंख प्रकाश से युक्त होकर आगे ग्राह्य विषय तक जाती है और ( भुवना ) अन्य इन्द्रिय गण भी उसी के आश्रय रहते हैं उसी प्रकार ( सूर्यस्य ) सूर्य, सर्वोत्पादक, सर्व प्रेरक सूर्य के समान तेजोमय परमेश्वर का ( चक्षुः ) सब पदार्थों को दिखाने और बतलाने वाला वेद और प्रकाशमय सूर्यादि ( रजसा ) प्रकाश युक्त तेज और ज्ञान से ( आवृतं एति ) युक्त होकर प्राप्त होता है ( तस्मिन् ) उसी के ऊपर ( विश्वा भुवनानि ) सब लोक (आ अर्पिता) स्थित हैं। (२) अध्यात्म में—सर्व वशकारी कारक प्राण, सबसे ऊपर विद्यमान् चिति शक्ति के आधार पर चल रहा है और दश प्राण उसमें युक्त होकर देह को धारण करते हैं। सूर्य रूप आत्मा या सूर्यचक्र सहस्त्रदल कमल का अन्तश्चक्षु ज्ञानयुक्त होकर आगे बढ़ता है उसी के आश्रय सब देहस्थ प्राणी जीते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः॥ देवता—१-४१ विश्वदेवाः। ४२ वाक् । ४२ आपः। ४३ शकधूमः। ४३ सोमः॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च। ४५ वाक्। ४६, ४७ सूर्यः। ४८ संवत्सरात्मा कालः। ४९ सरस्वती। ५० साध्या:। ५१ सूर्यः पर्जन्यो वा अग्नयो वा। ५२ सरस्वान् सूर्यो वा॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप्। ८, ११, १८, २६,३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप्। २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२, त्रिष्टुप्। १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२, १५, २३ जगती। २९, ३६ निचृज्जगती। २० भुरिक पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः। ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती। ५१ विराड् नुष्टुप्।। द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो काल विभू, नित्य व सर्व लोकांचा (गोलांचा) आधार आहे त्याच काळाच्या गतीने सूर्य इत्यादी लोक (गोल) प्रकाशित होतात, हे सर्व लोकांनी जाणले पाहिजे. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Existent with its centre and circumference, the unaging wheel, the chariot, of the universe of physio- temporal nature goes on and on, round and round. In the expansive Prakrti, ten motive powers move it on (those ten being the pranic energies). The light of the sun suffused with rajas, energy of universal dynamics, goes on with the worlds. Indeed, all the worlds of existence abide in that light and energy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The circle of time is varyingly mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! you should know that this undecaying wheel of Time which has its belly or Centre in God moves on continuously. In this universe, there are ten Pranas (vital breaths) which hold all the living creatures. The manifesting power of the Sun goes on working surrounded by the planets and they all depend upon Him (the Sun).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All should know that the entire gamut of the movement is controlled by the all-pervading Time. It is eternal and the support of all universe and that all worlds are illumined because of it.
Foot Notes
(सनेमि) समानो नेमियंस्मिन् तत्, चक्रम् = The wheel which has common felly or Centre in the form of God-the Lord of the world (उत्तानायाम् ) उत्कृष्टतया विस्तृतायां जगत्याम् = In the vast universe. (दश) प्राणा: प्राणापानोदानव्यानसमानाः नागकूर्मकृकलदेवदत्तघनञ्जयाख्याश्च = Ten vital energies. (रजसा) लोकैः सह =With the worlds.
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