ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 18
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒वः परे॑ण पि॒तरं॒ यो अ॑स्यानु॒वेद॑ प॒र ए॒नाव॑रेण। क॒वी॒यमा॑न॒: क इ॒ह प्र वो॑चद्दे॒वं मन॒: कुतो॒ अधि॒ प्रजा॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒वः । परे॑ण । पि॒तर॑म् । यः । अ॒स्य॒ । अ॒नु॒ऽवेद॑ । प॒रः । ए॒ना । अव॑रेण । क॒वि॒ऽयमा॑नः । कः । इ॒ह । प्र । वो॒च॒त् । दे॒वम् । मनः॑ । कुतः॑ । अधि॑ । प्रऽजा॑तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवः परेण पितरं यो अस्यानुवेद पर एनावरेण। कवीयमान: क इह प्र वोचद्देवं मन: कुतो अधि प्रजातम् ॥
स्वर रहित पद पाठअवः। परेण। पितरम्। यः। अस्य। अनुऽवेद। परः। एना। अवरेण। कविऽयमानः। कः। इह। प्र। वोचत्। देवम्। मनः। कुतः। अधि। प्रऽजातम् ॥ १.१६४.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 18
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यो विद्वानस्यावः परेण च वर्त्तमानं पितरमनुवेद। यः पर एनाऽवरेणानुवेद स कवीयमानः कुत इदं मनः प्रजातमितीह कोऽधि प्रवोचत् ॥ १८ ॥
पदार्थः
(अवः) अवस्तात् (परेण) परेण मार्गेण (पितरम्) पालकं सूर्यम् (यः) (अस्य) (अनुवेद) विद्यापठनानन्तरं जानाति (परः) परस्मात् (एना) एनेन (अवरेण) मार्गेण (कवीयमानः) अतीव विद्वान् (कः) (इह) अस्यां विद्यायां जगति वा (प्र) (वोचत्) प्रवदेत् (देवम्) दिव्यगुणसंपन्नम् (मनः) अन्तःकरणम् (कुतः) (अधि) (प्रजातम्) उत्पन्नम् ॥ १८ ॥
भावार्थः
ये मनुष्या विद्युतमारभ्य सूर्यपर्यन्तमग्निं पितरमिव पालकं जानीयुः। यस्य पराऽवरे कार्यकारणाख्ये स्वरूपे स्तस्तदुपदेशं दिव्यान्तःकरणा भूत्वा इह प्रवदेयुः ॥ १८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो विद्वान् (अस्य) इसके (अवः) अधोभाग से और (परेण) परभाग से वर्त्तमान (पितरम्) पालनेवाले सूर्य को (अनुवेद) विद्या पढ़ने के अनन्तर जानता है (यः) जो (परः) पर और (एना) इस उक्त (अवरेण) नीचे के मार्ग से जानता है वह (कवीयमानः) अतीव विद्वान् है और (कुतः) कहाँ से यह (देवम्) दिव्यगुणसम्पन्न (मनः) अन्तःकरण (प्रजातम्) उत्पन्न हुआ ऐसा (इह) इस विद्या वा जगत् में (कः) कौन (अधि, प्र, वोचत्) अधिकतर कहे ॥ १८ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य बिजुली को लेकर सूर्यपर्यन्त अग्नि को पिता के समान पालनेवाला जानें जिसके पराऽवर भाग में कार्यकारण स्वरूप हैं उसका उपदेश दिव्य अन्तःकरणवाले होकर इस संसार में कहें ॥ १८ ॥
विषय
पिता का अनुवेदन
पदार्थ
१. (अव:) = प्रकृतिविद्या के क्षेत्र में (परेण) = पराविद्या के प्रतिपादक वाक्यों से और [परेण] पराविद्या के क्षेत्र में (एना अवरेण) = इन अपराविद्या के प्रतिपादक वाक्यों से (यः) = जो (अस्य) = इस ब्रह्माण्ड के (पितरम्) - पालक को अनुवेद - जानता है, वह (प्रवोचत्) = प्रवचन करता है। प्रकृति विद्या और ब्रह्मविद्या - दोनों के परस्पर संगत हो जाने पर मनुष्य इस ब्रह्माण्ड के रक्षक प्रभु का साक्षात्कार कर पाता है। 'अनुवेद' शब्द स्पष्ट कह रहा है कि [अनु] प्रकृति के ज्ञान के पश्चात् ही प्रभु का साक्षात् होता है। २. अपरा और पराविद्या को जोड़कर प्रभु का साक्षात्कार करनेवाला व्यक्ति जब किसी भी प्राकृतिक वस्तु का प्रयोग करता है तो (कवीयमानः) = कवि की भाँति आचरण करनेवाला होता है। वह वस्तुओं के तत्त्व को समझता है । तत्त्वज्ञान के कारण उन पदार्थों का ठीक ही प्रयोग करता है और पदार्थों के सौन्दर्य में सौन्दर्य के निर्माता को देखता है । (कः) = वह आनन्द में रहता है। वह स्थितप्रज्ञ बन जाता है । (इह) = [प्रवोचत्] यह क्रान्तदर्शी, सदा प्रसन्न मानव-जीवन में प्रवचन करता है। प्रकाश प्राप्त कर वह उस प्रकाश को औरों को भी देता है। ३. उस प्रकाश के फैलाने में वह अपने सुखों को तिलाञ्जलि देता है । वस्तुतः (कुतः अधि) = पृथिवी से, पार्थिव भागों से ऊपर उठकर [कु-पृथिवी, तस्- से] उसमें (देवं मनः) = दैवी वृत्तिवाला मन (प्रजातम्) = उत्पन्न हो चुका है। यह दैव मन तो देने का ही पाठ पढ़ता है।
भावार्थ
भावार्थ- अपरा और पराविद्या के मेल से मनुष्य ईश्वर का साक्षात्कार करता है । यह मनुष्य सदा आनन्द में रहता है और उस प्रकाश को सर्वत्र फैलाता है ।
विषय
परात्पर प्रभु के विरल ज्ञाता।
भावार्थ
(यः) जो विद्वान् पुरुष ( अस्य ) इस स्थावर जंगम जगत् के ( अवः ) इस लोक में प्रत्यक्ष और ( परेण ) परे अप्रत्यक्ष में भी ( पितरं ) परिपालक परमेश्वर को भी ( एना अवरेण परः ) इस पृथ्वी लोक से ऊपर ( परेण अवः ) पर आकाश से नीचे स्थित मेध या विद्युत के समान सबके बीच में विराजमान् सर्व सुख प्रद सबके जीवन प्रद ( अनु वेद ) विद्याभ्यास, ज्ञान, ध्यान, मनन, दर्शन, द्वारा साक्षात् जान लेता है वह ( इह ) इस लोक में ( कः ) कोई विरला ही होता है जो ( कवीयमानः ) अति विद्वान् क्रान्तदर्शी होकर ( प्र वोचत् ) तत्व ज्ञान का उपदेश करता है। वही अध्यात्म में यह भी बतलाता है कि ( एवं ) इसी प्रकार ( मनः ) मनन शील अन्तःकरण,और ज्ञानशील चित् और मन, चेतना वान् जीव गण भी ( कुतःअधि प्रजातम् ) कहां से उत्पन्न होता है। ( अथर्व० ९ । ९ । १८)
टिप्पणी
( समस्त सूक्त देखो अथर्व० का० ९ । सू० ९, १० )
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः॥ देवता—१—४१ विश्वदेवाः। ४२ वाक् । ४२ आपः। ४३ शकधूमः। ४३ सोमः॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च। ४५ वाक्। ४६, ४७ सूर्यः। ४८ संवत्सरात्मा कालः। ४९ सरस्वती। ५० साध्या:। ५१ सूर्यः पर्जन्यो वा अग्नयो वा। ५२ सरस्वान् सूर्यो वा॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप्। ८, ११, १८, २६,३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप्। २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२, त्रिष्टुप्। १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२, १५, २३ जगती। २९, ३६ निचृज्जगती। २० भुरिक पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः। ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती। ५१ विराड् नुष्टुप्।। द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो माणूस विद्युतपासून सूर्यापर्यंत अग्नी हा पित्याप्रमाणे पालनकर्ता आहे, हे जाणतो. ज्याच्या पराऽवर (अगोदरनंतर) भागात कारण स्वरूप आहेत त्याचा उपदेश दिव्य अन्तःकरणयुक्त बनून जगाला सांगावा. ॥ १८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Here who could be the man of poetic vision who knows this lower side of the earth with reference to that other higher side, and that higher side with reference to this lower side, and who further knows the father sun, lord sustainer of the earth, and who knows and who can say where from this brilliant and divine mind is born?
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The learned persons should preach the Divine Sermon.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The learned person knows very well about the sun above the earth, and the energy below the solar system as the Protectors. After studying the various sciences, being very wise, he should unfold the truth how or when the divine mind is produced.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The men who know Agni, from electricity to the sun, as Protector like the father, they also know the cause and effect of every thing. Such people should tell us about all such mysteries because they are endowed with the divine mind.
Foot Notes
(पितरम् ) पालंक सूर्यम् = The sun who is Protector like a father.
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