ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 31
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अप॑श्यं गो॒पामनि॑पद्यमान॒मा च॒ परा॑ च प॒थिभि॒श्चर॑न्तम्। स स॒ध्रीची॒: स विषू॑ची॒र्वसा॑न॒ आ व॑रीवर्ति॒ भुव॑नेष्व॒न्तः ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑श्यम् । गो॒पाम् । अनि॑ऽपद्यमानम् । आ । च॒ । परा॑ । च॒ । प॒थिऽभिः॑ । चर॑न्तम् । सः । स॒ध्रीचीः॑ । सः । विषू॑चीः । वसा॑नः । आ । व॒री॒व॒र्ति॒ । भुव॑नेषु । अ॒न्तरिति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम्। स सध्रीची: स विषूचीर्वसान आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तः ॥
स्वर रहित पद पाठअपश्यम्। गोपाम्। अनिऽपद्यमानम्। आ। च। परा। च। पथिऽभिः। चरन्तम्। सः। सध्रीचीः। सः। विषूचीः। वसानः। आ। वरीवर्ति। भुवनेषु। अन्तरिति ॥ १.१६४.३१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 31
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
अहं गोपामनिपद्यमानं पथिभिरा च परा च चरन्तमपश्यं स सध्रीचीः स विषूचीर्वसानो भुवनेष्वन्तरावरीवर्त्ति ॥ ३१ ॥
पदार्थः
(अपश्यम्) पश्येयम् (गोपाम्) सर्वरक्षकम् (अनिपद्यमानम्) यो मन आदीनीन्द्रियाणि न निपद्यते प्राप्नोति तम् (आ) (च) (परा) (च) (पथिभिः) मार्गैः (चरन्तम्) (सः) (सध्रीचीः) सह गच्छन्तीः (सः) (विषूचीः) विविधा गतीः (वसानः) आच्छादयन् (आ) (वरीवर्त्ति) भृशमावर्त्तते (भुवनेषु) लोकलोकान्तरेषु (अन्तः) मध्ये ॥ ३१ ॥
भावार्थः
नहि सर्वस्य द्रष्टारं परमेश्वरं द्रष्टुं जीवाः शक्नुवन्ति परमेश्वरश्च सर्वाणि याथातथ्येन पश्यति। यथा वस्त्रादिभिरावृतः पदार्थो न दृश्यते तथा जीवोऽपि सूक्ष्मत्वान्न दृश्यते। इमे जीवाः कर्मगत्या सर्वेषु लोकेषु भ्रमन्ति। एषामन्तर्बहिश्च परमात्मा स्थितस्सन् पापपुण्यफलदानरूपन्यायेन सर्वान् सर्वत्र जन्मानि ददाति ॥ ३१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
मैं (गोपाम्) सबकी रक्षा करने (अनिपद्यमानम्) मन आदि इन्द्रियों को न प्राप्त होने और (पथिभिः) मार्गों से (आ, च) आगे और (परा, च) पीछे (चरन्तम्) प्राप्त होनेवाले परमात्मा वा विचरते हुए जीव को (अपश्यम्) देखता हूँ (सः) वह जीवात्मा (सध्रीचीः) साथ प्राप्त होती हुई गतियों को (सः) वह जीव और (विषूचीः) नाना प्रकार की कर्मानुसार गतियों को (वसानः) ढाँपता हुआ (भुवनेषु) लोकलोकान्तरों के (अन्तः) बीच (आ, वरीवर्त्ति) निरन्तर अच्छे प्रकार वर्त्तमान है ॥ ३१ ॥
भावार्थ
सबके देखनेवाले परमेश्वर के देखने को जीव समर्थ नहीं और परमेश्वर सबको यथार्थ भाव से देखता है। जैसे वस्त्रों आदि से ढंपा हुआ पदार्थ नहीं देखा जाता वैसे जीव भी सूक्ष्म होने से नहीं देखा जाता। ये जीव कर्मगति से सब लोकों में भ्रमते हैं। इनके भीतर-बाहर परमात्मा स्थित हुआ पापपुण्य के फल देनेरूप न्याय से सबको सर्वत्र जन्म देता है ॥ ३१ ॥
विषय
मुक्तात्मा
पदार्थ
१. मुक्त कौन हो सकता है ? उत्तर है- (गोपाम्) = इन्द्रियों की रक्षा करनेवाले को (अनिपद्यमानम्) = फिर-फिर विविध योनियों में नीचे न गिरते हुए को (अपश्यम्) = मैंने देखा है, अर्थात् जितेन्द्रिय पुरुष ही मुक्त हुआ करता है । इन्द्रियों को वश में करके यह मुक्त पुरुष क्या करता है ? (आ च परा च) = समीप और दूर, हमारी ओर आनेवाले और हमसे दूर जानेवाले (पथिभिः) = मार्गों से (चरन्तम्) = विचरण करते हुए को मैंने देखा है। मुक्तात्मा सर्वत्र विचरता है। जहाँ हम हैं वहाँ भी आता है और हमसे दूर अन्य लोक-लोकान्तरों में भी जाता है । २. (सः) = वह मुक्तात्मा (सधीची:) = [सह अञ्चति] जिन शरीरों से हमारे साथ उठता-बैठता है उन शरीरों को (वसानः) = धारण करने के स्वभाववाला होता है। (सः विषूची:) = [विश्वग् अञ्चती:] वह चारों ओर विविध लोकों में जानेवाले शरीरों को भी धारण करता है। ३. इस प्रकार विविध शरीरों को धारण करता हुआ यह मुक्तात्मा (भुवनेषु अन्तः) = नाना लोकों में (आवरीवर्ति) = चारों ओर फिर-फिर आवर्तन किया करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- मुक्तात्मा मुक्ति की अवधि समाप्त होने पर नाना लोक-लोकान्तरों में जन्म लेते हैं ।
विषय
सूर्यवत् व्यापके प्रभु का अज्ञान-हरण ।
भावार्थ
मैं उस (गोपाम् ) सब के रक्षक को (पथिभिः) नाना मार्गों से ( आ चरन्तं च ) समीप आते और (परा चरन्तं च) दूर जाते हुए तथा ( अनिपद्यमानं ) कभी भी नाश को प्राप्त न होते हुए को ( अपश्यम् ) निकट और दूर के मार्गों से गुज़रते एवं अस्त न होने वाले सूर्य के समान नाना प्रकारों से साक्षात् करता हूं । परमेश्वर नाना मार्गों तथा उपायों अर्थात् सालिक साधनों से साधक के कभी अति निकट और तामस प्रवृत्तियों से कभी बहुत दूर होता प्रतीत होता है। और (सः) वह ( सध्रीचीः ) उसके सदा साथ रहने और उसके साथ ही प्रकट होने वाली, स्वाभाविक और ( विषूचीः ) सब तरफ़ जाने और व्यापने वाली शक्तियों को किरणों के समान ( वसानः ) अपने में धारण करता हुआ ( भुवनेषु ) उत्पन्न हुए समस्त लोकों के ( अन्तः ) भीतर और ( आ वरीवर्त्ति ) बाहर सर्वत्र वर्तमान रहता है । (२) आत्मा भी ( आ च परा च पथिभिः ) आभ्यन्तर और बाह्य, तथा ब्रह्म के या अध्यात्म के समीप और दूर ले जाने वाले मार्गों से विचरते, कभी नाश न होने वाले इन्द्रियों के पालक आत्मा को मैं साक्षात् करूं। वह स्वाभाविक और विविध दिशाओं में जाने वाली प्राण और इन्द्रियों की चेष्टाओं पर वश करता हुआ ( भुवनेषु ) समस्त प्राणों के भीतर (वरीवर्त्ति) चेष्टा करता है । (देखो अथर्व ०९।१०। ११)
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सर्वांना पाहात असलेल्या परमेश्वराला पाहण्यास जीव समर्थ नाही. परमेश्वर यथार्थ भावाने सर्वांना पाहतो. जसे वस्त्राचे आवरण असल्यास पदार्थ दिसू शकत नाही. तसा जीवही सूक्ष्म असल्यामुळे दिसू शकत नाही. हे जीव कर्मगतीने सर्व लोकात भ्रमण करतात. त्यांच्या आतबाहेर परमात्मा स्थित असून पापपुण्य फळ प्रदाता या न्यायाने सर्वांना जन्म देतो. ॥ ३१ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I pray I may see and realise that universal protector of the world of nature and the mother powers of life, who, ever infallible and immaculate, is immanent and active over the nearest and the farthest paths of existence, and, pervading the centripetal and centrifugal waves of Prakrti, eternally rolls around in the worlds of the universe.$Note: This mantra can be interpreted with reference to the individual soul: I wish and pray I may realise the essential nature of that presiding power over the mind and senses which, though in association with the mind and senses, never falls from its essence and moves over the paths and forms of existence far and near. The soul takes to the forms of Prakrti which, it feels, go with it, as well as to those forms which are various and disagreeable. And thus it goes round and round in and across the worlds of the universe, integrated with all living forms and yet essentially its own self.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How God administers His system is exemplified.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May I clearly see or comprehend the indestructible God through sense organs? The jiva or individual soul walks through the pathways of coming (called birth) and departure (called death). It traverses its path with its body and even without it and having covered itself with its actions (good or evil) it comes (takes birth) again and again in the various planets and forms, though it is immortal by its nature. (2) The mantra is applicable to God as well as the Lord of the world who is beyond the reach of the senses and the Giver of the fruits of the souls according to their good and bad actions.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The souls cannot see (with physical eyes) the Omniscient God and only God sees all of them in their true nature. As a thing inside is not seen when covered with clothes so the soul also can not be seen with eyes. These souls roam about in all the planets according to their actions. God guides them all dwelling inside and outside and gives them birth by giving the fruit of their meritorious and sinful actions.
Foot Notes
(अनिषद्यमानम् ) यो मन आदीनि इन्द्रियाणि न निपद्यते प्राप्नोति तम् = Beyond the reach of senses in the case of God and indestructible. (वसान:) आच्छादयन् = Covering. ( विषूची:) विविधागतीः = various births or forms.
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