ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 43
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - शकधूमः, सोमः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
श॒क॒मयं॑ धू॒ममा॒राद॑पश्यं विषू॒वता॑ प॒र ए॒नाव॑रेण। उ॒क्षाणं॒ पृश्नि॑मपचन्त वी॒रास्तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन् ॥
स्वर सहित पद पाठश॒क॒ऽमय॑म् । धू॒मम् । आ॒रात् । अ॒प॒श्य॒म् । वि॒षु॒ऽवता॑ । प॒रः । ए॒ना । अव॑रेण । उ॒क्षाण॑म् । पृश्नि॑म् । अ॒प॒च॒न्त॒ । वी॒राः । तानि॑ । धर्मा॑णि । प्र॒थ॒मानि॑ । आ॒स॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शकमयं धूममारादपश्यं विषूवता पर एनावरेण। उक्षाणं पृश्निमपचन्त वीरास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ॥
स्वर रहित पद पाठशकऽमयम्। धूमम्। आरात्। अपश्यम्। विषुऽवता। परः। एना। अवरेण। उक्षाणम्। पृश्निम्। अपचन्त। वीराः। तानि। धर्माणि। प्रथमानि। आसन् ॥ १.१६४.४३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 43
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ ब्रह्मचर्यविषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या अहमाराच्छकमयं धूममपश्यमेनाऽवरेण विषूवता धूमेन परो वीराः पृश्निमुक्षाणं चापचन्त तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्नभवन् ॥ ४३ ॥
पदार्थः
(शकमयम्) शक्तिमयम् (धूमम्) ब्रह्मचर्यकर्मानुष्ठानाग्निधूमम् (आरात्) समीपात् (अपश्यम्) पश्यामि (विषूवता) व्याप्तिमता (परः) परस्तात् (एना) एनेन (अवरेण) अर्वाचीनेन (उक्षाणम्) सेचकम् (पृश्निम्) आकाशम् (अपचन्त) पचन्ति (वीराः) व्याप्तविद्याः (तानि) (धर्म्माणि) (प्रथमानि) आदिमानि ब्रह्मचर्याख्यानि (आसन्) सन्ति ॥ ४३ ॥
भावार्थः
विद्वज्जना अग्निहोत्रादियज्ञैर्मेघमण्डलस्थं जलं शोधयित्वा सर्वाणि वस्तूनि शोधयन्ति। अतो ब्रह्मचर्याऽनुष्ठानेन सर्वेषां शरीराण्यात्ममनसी च शोधयन्तु। सर्वे जनाः समीपस्थं धूममग्निमन्यं पदार्थञ्च प्रत्यक्षतया पश्यन्ति परावरज्ञो विद्वाँस्तु भूमिमारभ्य परमेश्वरपर्यन्तं वस्तुसमूहं साक्षात्कर्त्तुं शक्नोति ॥ ४३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ब्रह्मचर्य विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! मैं (आरात्) समीप से (शकमयम्) शक्तिमय समर्थ (धूमम्) ब्रह्मचर्य कर्मानुष्ठान के अग्नि के धूम को (अपश्यम्) देखता हूँ (एना, अवरेण) इस नीचे इधर-उधर जाते हुए (विषूवता) व्याप्तिमान् धूम से (परः) पीछे (वीराः) विद्याओं में व्याप्त पूर्ण विद्वान् (पृश्निम्) आकाश और (उक्षाणम्) सींचनेवाले मेघ को (अपचन्त) पचाते अर्थात् ब्रह्मचर्यविषयक अग्निहोत्राग्नि तपते हैं (तानि) वे (धर्माणि) धर्म (प्रथमानि) प्रथम ब्रह्मचर्यसञ्ज्ञक (आसन्) हुए हैं ॥ ४३ ॥
भावार्थ
विद्वान् जन अग्निहोत्रादि यज्ञों से मेघमण्डलस्थ जल को शुद्ध कर सब वस्तुओं को शुद्ध करते हैं इससे ब्रह्मचर्य के अनुष्ठान से सबके शरीर, आत्मा और मन को शुद्ध करावें। सब मनुष्यमात्र समीपस्थ धूम और अग्नि वा और पदार्थ को प्रत्यक्षता से देखते हैं और अगले-पिछले भाव को जाननेवाला विद्वान् तो भूमि से लेके परमेश्वरपर्यन्त वस्तुसमूह को साक्षात् कर सकता है ॥ ४३ ॥
विषय
धूएँ से अग्नि का ज्ञान
पदार्थ
१. (शकमयम्) = [शकृन्मयं शुष्कगोमयसम्भूतम्] उपलों से उठे हुए (धूमम्) = धूएँ को (आरात्) = [नाति दूरे] कुछ ही दूर पर (अपश्यम्) = मैंने देखा है और (एना) = इसे (विषूवता) = व्याप्तिवाले, चारों ओर फैले हुए (अवरेण) = समीप ही विद्यमान धूएँ से (पर:) = [परस्तात् तत्कारणभूतमग्निम्] दूर आँखों से ओझल अग्नि को मैंने जाना है। संसार में प्राकृतिक पदार्थ हमारी आँखों के सामने हैं। [अपराविद्या] विज्ञान के अध्ययन से हम उन पदार्थों की महिमा को स्पष्ट देखते हैं। यह रचना रचयिता के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न कर देती है। जैसे धूएँ से अग्नि का ज्ञान होता है उसी प्रकार रचना से रचयिता का ज्ञान होता है। २. प्रभु का दर्शन परिपक्व बुद्धिवाला ही कर पाता है। प्रभु इस महान् ब्रह्माण्ड के शकट के खेंचनेवाले बड़े 'अनड्वान्' हैं, जीव छोटी-सी गृहस्थ की गाड़ी को खींचने के कारण छोटा 'उक्षा' है । इस (पृश्निं उक्षाणम्) = छोटे बैल को (वीराः) = [व्याप्तविद्याः] ज्ञानशूर आचार्य (अपचन्त) = ज्ञान के द्वारा परिपक्व बुद्धिवाला बनाते हैं । ३. इस छोटे उक्षा का परिपाक ही- अबोध बालक को सुबोध बनाना ही (प्रथमानि धर्माणि) = मुख्य कर्त्तव्य (आसन्) = थे । वस्तुतः माता-पिता व आचार्य का सबसे महान् कर्त्तव्य यही है कि वे अपने बालकों को विज्ञान की शिक्षा से सुशिक्षित करें ।
भावार्थ
भावार्थ - हम कार्य से कारण को खोजें, अपराविद्या से पराविद्या की ओर चलें, परिपक्व बुद्धि होकर प्रभु के दर्शन करने में समर्थ बनें ।
विषय
शकमय धूम, नीहारिका तथा परमेश्वर और गुरु का वर्णन ।
भावार्थ
मैं (आरात्) समीप से (धूमम्) सब बाधाओं को कंपा कर दूर करने वाले, (शकमयम्) शक्तिमान् को (अपश्यम्) देखता हूं कि वह (अवरेण) इस निकृष्ट रूप (विषूवता) फैलने वाले (एना) इस यज्ञाग्नि से उत्पन्न धूम से (परः) कहीं उत्तम है। उस उत्तम शक्तिमय, ब्रह्मचर्य पालन रूप, सर्व प्रकम्पी धूम द्वारा (वीराः) सर्व विद्याओं में कुशल और विविध विद्याओं का अच्छी प्रकार उपदेश प्रवचन करने हारे आचार्य एवं गुरुजन (उक्षाणं) विद्याओं के वहन करने और मेघ के समान अन्यों के देने में समर्थ, (पृश्निम्) सूर्य के समान तेजस्वी और व्रतपालक ब्रह्मचारी पुरुष को (अपचन्त) तप द्वारा परिपक्व करते हैं (तानि धर्माणि) ये धर्म, ये उत्तम कर्मानुष्ठान के प्रकार (प्रथमानि) सब से प्रथम, सर्व श्रेष्ठ (आसन्) हैं । ( २ ) ब्रह्म और सृष्टिपक्ष में—अति दूर (शकमयं) शक्तिमान् (घूमम्) धूम के समान जो नीहार (Nebulea ) को मैं वैज्ञानिक (अपश्यम्) देख रहा हूं (एना) इस (अवरेण) अपेक्षया समीप (विषूवता) चारों दिशाओं में फैलने या ग्रह, उपग्रह और आकाशीय पिण्डों को उत्पन्न करने के पदार्थ से युक्त धूम से भी (परः) परे उससे भी उत्कृष्ट या सूक्ष्मतर, (वीराः) विविध दिशाओं में गति करने वाले पदार्थ (उक्षाणं) सब भावी पिण्डों को वहन करने और अन्यों में बल सेचन करने वाले (पृश्निम्) महान् सूर्य को (अपचन्त) परिपक्व, परिपुष्ट और अधिक प्रतापी बना रहे हैं । (तानि) वे नाना प्रकार (धर्माणि) जगत् को धारण करने वाले बल या नियम या तत्त्व (प्रथमानि) सृष्टि के पूर्व में (आसन्) विद्यमान रहे । ( ३ ) परमेश्वर पक्ष में—यह जीव या यह संसार स्पन्दन शील होने से, ‘धूम’ और शक्तिमय होने से ‘शकमय’ है । वह अति समीप है । स्वयं उत्पन्न होने और विविध प्रजाओं के उत्पन्न करने से ‘विषुवान्’ है। उससे भी परे उत्कृष्ट सर्व धारक, सब को बल देने वाला ‘पृश्नि’ आदित्य या मेघ के समान, सर्वपालक परमेश्वर है उसको विद्वान् जन ( अपचन्त ) प्राप्त करने के लिये तप और योग करते हैं । वे ही धर्म पुण्य कार्य सर्व श्रेष्ठ हैं । ( अथर्व० ९। १०। २५ )।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान लोक अग्निहोत्र इत्यादी यज्ञांनी मेघमंडलातील जल शुद्ध करून सर्व वस्तू शुद्ध करतात. म्हणून ब्रह्मचर्याच्या अनुष्ठानाने सर्वांचे शरीर व आत्मे आणि मन शुद्ध करावे. सर्व माणसे जवळ असलेला धूर व अग्नी तसेच इतर पदार्थ प्रत्यक्ष पाहतात; पण मागचे व पुढचे भाव जाणणारा विद्वान भूमीपासून परमेश्वरापर्यंत वस्तू समूहाला साक्षात करू शकतो. ॥ ४३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I have seen from close quarters the clouds of smoke and vapour laden with power. From this close by, I perceive the powerful catalytic agents of nature far off busy heating and creating the clouds of soma replete with vitality. These processes are the first operations of natural evolution and behaviour higher up in space.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The merits of Brahmacharya (a state of continence and chastity) highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! I have closely watched the smoke of the fire of the Brahmacharya (a state of continence and chastity) which is powerful. From this pervading smoke, learned persons ripen their knowledge of the space and the clouds etc. The observance of Brahmacharya etc. was and still is the primary obligation for all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Intelligent persons purify all articles first by purifying the water in the cloud through the performance of Agnihotra (worship God through sacred fire) and other Yajna (non-violent sacrifices). Therefore along with it they should purify the bodies, minds and souls of all by urging upon them the observance of Brahmacharya (continence). Blessed with it, a seer is capable to perceive clearly all substances, from earth to God.
Foot Notes
(शकमयम् ) शक्तिमयम् = Powerful. ( धूमम्) ब्रह्मचर्य कर्मानुष्ठानधूमम् = The smoke of the observance of Brahmacharya. (उक्षाणम्) सचकम् मेघम् = The cloud that sprinkles water. ( पृश्निम् ) आकाशम् = Sky.
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