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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 164 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 30
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अ॒नच्छ॑ये तु॒रगा॑तु जी॒वमेज॑द्ध्रु॒वं मध्य॒ आ प॒स्त्या॑नाम्। जी॒वो मृ॒तस्य॑ चरति स्व॒धाभि॒रम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒नत् । श॒ये॒ । तु॒रऽगा॑तु । जी॒वम् । एज॑त् । ध्रु॒वम् । मध्ये॑ । आ । प॒स्त्या॑नाम् । जी॒वः । मृ॒तस्य॑ । च॒र॒ति॒ । स्व॒धाभिः॑ । अम॑र्त्यः । मर्त्ये॑न । सऽयो॑निः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनच्छये तुरगातु जीवमेजद्ध्रुवं मध्य आ पस्त्यानाम्। जीवो मृतस्य चरति स्वधाभिरमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनत्। शये। तुरऽगातु। जीवम्। एजत्। ध्रुवम्। मध्ये। आ। पस्त्यानाम्। जीवः। मृतस्य। चरति। स्वधाभिः। अमर्त्यः। मर्त्येन। सऽयोनिः ॥ १.१६४.३०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 30
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरीश्वरविषयमाह।

    अन्वयः

    यद्ब्रह्म तुरगात्वनज्जीवमेजत्पस्त्यानां मध्ये ध्रुवं सच्छये यत्रामर्त्यो जीवः स्वधाभिर्मर्त्येन सह सयोनिस्सन्मृतस्य जगतो मध्य आचरति तत्र सर्वं जगद्वसतीति वेद्यम् ॥ ३० ॥

    पदार्थः

    (अनत्) प्राणत् (शये) शेते। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेष्विति तलोपः। (तुरगातु) सद्योगमनम् (जीवम्) (एजत्) कंपयन् (ध्रुवम्) (मध्ये) (आ) (पस्त्यानाम्) गृहाणां जीवशरीराणां वा (जीवः) (मृतस्य) मरणस्वभावस्य (चरति) गच्छति (स्वधाभिः) अन्नादिभिः (अमर्त्यः) अनादित्त्वान्मृत्युधर्मरहितः (मर्त्येन) मरणधर्मेण शरीरेण (सयोनिः) समानस्थानः ॥ ३० ॥

    भावार्थः

    अत्र रूपकालङ्कारः। यश्चलत्स्वचलोऽनित्येषु नित्यो व्याप्येषु व्यापकः परमेश्वरोऽस्ति। नहि तद्व्याप्त्या विनाऽतिसूक्ष्ममपि वस्त्वस्ति तस्मात्सर्वैर्जीवैरयमन्तर्यामिरूपेण स्थितो नित्यमुपासनीयः ॥ ३० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो ब्रह्म (तुरगातु) शीघ्र गमन को (अनत्) पुष्ट करता हुआ (जीवम्) जीव को (एजत्) कंपाता और (पस्त्यानाम्) घरों के अर्थात् जीवों के शरीर के (मध्ये) बीच (ध्रुवम्) निश्चल होता हुआ (शये) सोता है। जहाँ (अमर्त्यः) अनादित्व से मृत्युधर्मरहित (जीवः) जीव (स्वधाभिः) अन्नादि और (मर्त्येन) मरणधर्मा शरीर के साथ (सयोनिः) एकस्थानी होता हुआ (मृतस्य) मरण स्वभाववाले जगत् के बीच (आ, चरति) आचरण करता है, उस ब्रह्म में सब जगत् वसता है, यह जानना चाहिये ॥ ३० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में रूपकालङ्कार है। जो चलते हुए पदार्थों में अचल, अनित्य पदार्थों में नित्य और व्याप्य पदार्थों में व्यापक परमेश्वर है, उसकी व्याप्ति के विना सूक्ष्म से सूक्ष्म भी वस्तु नहीं है, इससे सब जीवों को जो यह अन्तर्यामिरूप से स्थित हो रहा है, वह नित्य उपासना करने योग्य है ॥ ३० ॥

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    विषय

    बद्ध व मुक्त जीव का स्वरूप

    पदार्थ

    १. जब तक जीव विकर्मों या सकाम कर्मों के कारण (पस्त्यानाम्) = इन शरीररूप गृहों के (मध्ये) = बीच में (आ शये) = निवास करता है तब तक उसका स्वरूप निम्न प्रकार का होता है [क] (अनत्) = यह प्राण-अपान, श्वासोच्छ्वासादि की क्रिया को चलाता है, [ख] (तुरगातु) = यह तूर्ण गमन है, बड़ी तीव्रता से सब व्यापारों को करनेवाला है, [ग] (जीवम्) = इसी के कारण शरीर जीवनवाला [जीवनवत्, living] कहलाता है। यह गया और देह निर्जीव हुई, [घ] (एजत्) = इसके कारण ही यह शरीर गतिवाला है, [ङ] (ध्रुवम्) = अविचलित है, स्थिर है। शरीर चल है, आत्मा अचल । २. इस प्रकार बद्धावस्था में आत्मा के स्वरूप का वर्णन करके मुक्तात्मा का चित्रण करते हैं। निष्काम कर्मों के द्वारा जब यह जीव इस शरीर में बद्ध नहीं होता तो (मृतस्य) = इस प्राणत्याग कर देनेवाले शरीर का (जीव:) = जिलानेवाला आत्मा, शरीर को छोड़ने के बाद भी, अर्थात् मुक्त हो जाने पर भी [क] (चरति) = विचरता क्रियाशील होता है। कहाँ विचरता है ? ब्रह्म के साथ विचरता है । [ख] जब तक जीव शरीर में था तब तक सब क्रियाएँ इन्द्रियों के द्वारा होती थीं; अब वे किस प्रकार होती हैं ? इसका उत्तर है- (स्वधाभिः) = अपनी धारक शक्तियों के द्वारा, [ग] यह मुक्तात्मा (अमर्त्यः) = अब मरणधर्मा नहीं, [घ] इस मुक्तात्मा में (मर्त्येन) = मर्त्य वस्तु से (असयोनिः) = समान स्थानवाला नहीं है। इसका अब किसी भी मर्त्य वस्तु से सम्बन्ध नहीं रहता।

    भावार्थ

    भावार्थ - बद्धजीव मुक्त होकर सर्वोच्च स्थिति में पहुँच जाता है।

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    विषय

    देहों में आत्मवत् लोकों में प्रभु की स्थिति ।

    भावार्थ

    (जीवः) जीव आत्मा (पस्त्यानां मध्ये) गृहों के बीच में गृहपति के समान और प्रजाओं और सेनाओं के बीच प्रजापति, राजा और सेनापति के समान देहों के बीच उनका (ध्रुवम्) धारण करने वाला होकर स्थिर रूप से (जीवम्) जीवनप्रद और प्राणधारक ( तुरगातु ) अति वेग से इन्द्रियों में गति उत्पन्न करता हुआ, (एजत्) शरीर को सञ्चालित करता हुआ और ( अनत् ) प्राण देता हुआ, चेतन रूप होकर ( शये ) व्याप रहा है वह (जीवः) जीवात्मा ( मृतस्य ) मरने वाले जड़ देह के बीच में (स्वधाभिः) अपने आप को धारण करने वाली शक्तियों या अन्नों के द्वारा ( चरति ) भोग कराता और विचरता है । वह स्वयं ( अमर्त्यः ) मरणधर्मा देह से भिन्न होकर भी ( मर्त्येन ) मरने वाले शरीर के साथ ( सयोनिः ) एक ही आश्रय में रहता है। परमेश्वर के पक्ष में—परमेश्वर ( अनत् ) सबको प्राण देता हुआ ( तुरगातु ) शीघ्र गति देने वाला, सर्व प्रेरक, ( ध्रुवं ) कूटस्थ ब्रह्म ( पस्त्यानां मध्ये जीवम् एजत् ) शरीरों और लोकों के बीच में कर्मानुसार जीव को प्रवेश करता हुआ स्वयं (शये) अदृश्य, निष्क्रिय रूप से व्याप रहा है और (जीवः मृतस्य स्वधाभिः चरति) जीव जड़ देह का अपने किये कर्मों द्वारा या अन्नों से भोग करता है । वह आत्मा या ब्रह्म ( अमर्त्यः ) मरणधर्मा जीव से भिन्न होकर भी ( मर्त्येन सयोनिः ) जीव के साथ ही व्यापक रूप से रहा करता है। देखो ( अथर्व ० ९ । १० । ८ ॥ ) इत्येकोनविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात रूपकालंकार आहे. जो चल पदार्थात अचल, अनित्य पदार्थात नित्य व व्याप्य पदार्थात व्यापक परमेश्वर आहे, त्याच्या व्याप्तीशिवाय सूक्ष्मातील सूक्ष्म वस्तूही नाही. सर्व जीवात अन्तर्यामी रूपाने जो स्थित आहे. तो नित्य उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥ ३० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Living and breathing, moving at the speed of infinity yet constant and omnipresent, the Spirit of the Universe abides eternal, impelling the individual soul to move among the variety of material forms. And thus, the immortal spirit of mortal man moves around in love and company with the mortal forms of material beauty by virtue of its karma and self sacrifice.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of God are dealt with.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should know that God is with you and gives power to the soul which is swift moving, it's living fixed in the central abode of body. This soul is immortal though set in the mortal body. The body lives in the world upon food during the life which again is lifeless. The soul moves about in this inanimate world. Everything in the world dwells in God, He being the Omnipresent.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That God is unchanging among the changing objects, Eternal among the perishable beings and things, and pervading all as the Inner-most spirit of all. It is ever to be adored by all. There is not even the subtlest thing in the world which is not pervaded by that Supreme Being.

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