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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 164 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 32
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    य ईं॑ च॒कार॒ न सो अ॒स्य वे॑द॒ य ईं॑ द॒दर्श॒ हिरु॒गिन्नु तस्मा॑त्। स मा॒तुर्योना॒ परि॑वीतो अ॒न्तर्ब॑हुप्र॒जा निर्ऋ॑ति॒मा वि॑वेश ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ई॒म् । च॒कार॑ । न । सः । अ॒स्य । वे॒द॒ । यः । ई॒म् । द॒दर्श॑ । हिरु॑क् । इत् । नु । तस्मा॑त् । सः । मा॒तुः । योना॑ । परि॑ऽवीतः । अ॒न्तः । ब॒हु॒ऽप्र॒जाः । निःऽऋ॑तिम् । आ । वि॒वे॒श॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य ईं चकार न सो अस्य वेद य ईं ददर्श हिरुगिन्नु तस्मात्। स मातुर्योना परिवीतो अन्तर्बहुप्रजा निर्ऋतिमा विवेश ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। ईम्। चकार। न। सः। अस्य। वेद। यः। ईम्। ददर्श। हिरुक्। इत्। नु। तस्मात्। सः। मातुः। योना। परिऽवीतः। अन्तः। बहुऽप्रजाः। निःऽऋतिम्। आ। विवेश ॥ १.१६४.३२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 32
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्जीवविषयमात्रमाह ।

    अन्वयः

    यो जीव ईं चकार सोऽस्य स्वरूपं न वेद य ईं ददर्श स्वस्वरूपम् पश्यति स तस्माद्धिरुक् सन्मातुर्योनान्तः परिवीतो बहुप्रजा निर्ऋतिमिन्वाविवेश ॥ ३२ ॥

    पदार्थः

    (यः) जीवः (ईम्) क्रियाम् (चकार) करोति (न) (सः) (अस्य) जीवस्य स्वरूपम् (वेद) (यः) (ईम्) सर्वां क्रियाम् (ददर्श) पश्यति (हिरुक्) पृथक् (इत्) एव (नु) सद्यः (तस्मात्) (सः) (मातुः) जनन्याः (योना) गर्भाशये (परिवीतः) परितं आवृतः (अन्तः) मध्ये (बहुप्रजाः) बहुजन्मा (निर्ऋतिम्) भूमिम् (आ) (विवेश) आविशति ॥ ३२ ॥

    भावार्थः

    ये जीवाः कर्ममात्रं कुर्वन्ति नोपासनां ज्ञानं च प्राप्नुवन्ति ते स्वस्वरूपमपि न जानन्ति। ये च कर्मोपासनाज्ञानेषु निपुणास्ते स्वस्वरूपं परमात्मानञ्च वेदितुमर्हन्ति। जीवानां प्राग्जन्मनामादिरुत्तरेषामन्तश्च न विद्यते। यदा शरीरं त्यजन्ति तदाऽऽकाशस्था भूत्वा गर्भे प्रविश्य जनित्वा पृथिव्यां चेष्टावन्तो भवन्ति ॥ ३२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर जीव विषयमात्र को कहा है ।

    पदार्थ

    (यः) जो जीव (ईम्) क्रियामात्र (चकार) करता है (सः) वह (अस्य) इस अपने रूप को (न) नहीं (वेद) जानता है (यः) जो (ईम्) समस्त क्रिया को (ददर्श) देखता और अपने रूप को जानता है (सः) वह (तस्मात्) इससे (हिरुक्) अलग होता हुआ (मातुः) माता के (योना) गर्भाशय के (अन्तः) बीच (परिवीतः) सब ओर से ढंपा हुआ (बहुप्रजाः) बहुत बार जन्म लेनेवाला (निर्ऋतिम्) भूमि को (इत्) ही (नु) शीघ्र (आ, विवेश) प्रवेश करता है ॥ ३२ ॥

    भावार्थ

    जो जीव कर्ममात्र करते किन्तु उपासना और ज्ञान को नहीं प्राप्त होते हैं, वे अपने स्वरूप को भी नहीं जानते। और जो कर्म, उपासना और ज्ञान में निपुण हैं, वे अपने स्वरूप और परमात्मा के जानने को योग्य हैं। जीवों के अगले जन्मों का आदि और पीछे अन्त नहीं है। जब शरीर को छोड़ते हैं तब आकाशस्थ हो गर्भ में प्रवेश कर और जन्म पाकर पृथिवी में चेष्टा क्रियावान् होते हैं ॥ ३२ ॥

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    विषय

    गर्भस्थ जीव का चित्रण

    पदार्थ

    १. (यः) = जो पिता (ईम्) = निश्चय से चकार अपने वीर्यदान से इसके शरीर को बनाता है (सः) = वह पिता भी (अस्य न वेद) = इसके सम्बन्ध में कुछ नहीं जानता। हम अपनी सन्तान के भूत-भविष्यत् के विषय में कुछ भी नहीं जानते। २. माता के तो वह गर्भ में है, वह तो देख रही है। क्या वह भी उसे नहीं जानती ? इसका उत्तर है- (यः) = जो व्यक्ति (ईम्) = अब (ददर्श) = देख रहा है (तस्मात्) = उससे भी (इत् नु) = सचमुच अब हिरुक् वह अन्तर्हित है, छिपा हुआ है। (सः) = वह (मातुः योना) = माता की ही योनि में (अन्तः) = अन्दर ही (परिवीतः) = उल्ब [foctus] और जरायु [The outer skin of embryo] से परिवेष्टित है। वहाँ छिपा बैठा है। बिल्कुल बन्द, ज़रा भी दिखता नहीं। स्पष्ट है कि किसी तीव्र समस्या में उलझा है इसलिए सोचने में निमग्न है। ४. यह गर्भस्थ जीव किस समस्या में उलझा है? (बहु प्रजा:) = अरे मैं तो कितने ही जन्मों का भागी बना हूँ [बहुजन्मभाक् - सा०, बह्व्यः प्रजाः (जन्मानि) यस्य सः ] | क्या सदा इसी चक्र में उलझा रहूँगा? यह सोचकर वह (निरृतिम्) - बहुत ही दुःख में आविवेश प्रविष्ट होता है, अर्थात् अत्यन्त दुःखी हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - माता और पिता इस गर्भस्थ जीव के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते। जरायु में लिपटा हुआ जीव अपनी अवस्था का चिन्तन करते हुए अत्यन्त दुःखी हो जाता है।

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    विषय

    अगभ्य आत्मा ।

    भावार्थ

    (यः) जो जीव (ईं चकार) यह सब कार्य करता है ( सः ) वह जीव भी ( अस्य ) इस जीव के स्वरूप को नहीं जानता है। और जो ( ईं ) इस सब अपने कर्म आदि को ( ददर्श ) साक्षी होकर देखता है वह भी (तस्मात्) उस सब से (हिरुक्) पृथक् और छिपा हुआ अदृश्य है । ( सः ) वह ( मातुः ) माता के ( योनौ ) गर्भाशय के ( अन्तः ) भीतर ( परिवीतः ) लिपट २ कर ( बहुप्रजाः ) बहुत से जन्म धारण करता हुआ ( निर्ऋतिम् ) प्राकृत बन्धन को ( आविवेश ) धारता है या भूमि को प्राप्त होता है । अथवा—परमेश्वर पक्ष में देखो अथर्व० भाष्य ९ । १० । १० ॥ आदित्य मेघ पक्ष में—जो (ईं) जल वृष्टि आदि जगत् के पालन के कार्य करता है ( सः ) वह आदित्य आदि जड़ होने से उसको नहीं जानता ( यः ईं ददर्श ) जो इस सृष्टि के बीच जल वृष्टि होने और जगत् के पालन की व्यवस्था को देखता है वह ( तस्मात् हिरुग् इत् नु ) अवश्य उससे भिन्न और छिपा हुआ है । ( सः ) वही ( मातुः यौनौ ) अन्तरिक्ष के एक देश में ( परिवीतः ) प्रकाशित होके ( बहु प्रजाः ) बहुत अन्नादि एवं जीव गणों को प्रजापति के समान उत्पन्न करता हुआ ( निर्ऋतिम् आ विवेश ) जल रूप से भूमि को प्राप्त हो जाता है । ( ३ ) इसी प्रकार जो जीव निषेकादि से गर्भ स्थापन करता है वह जीव के गर्भ में उत्पत्ति के रहस्य को नहीं जानता । प्रभु जो जीव या जनक पिता से भी भिन्न और बढ़कर है वह उसे देखता है । वह मातृयोनि में बहुत जन्मों के बाद आकर बन्धन कष्ट को प्राप्त होता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे जीव कर्म करतात; परंतु उपासना व ज्ञान प्राप्त करीत नाहीत ते आपल्या स्वरूपालाही जाणत नाहीत व जे कर्म उपासना व ज्ञानात निपुण आहेत ते आपल्या स्वरूपाला व परमात्म्याला जाणू शकतात. जीवाचा आरंभ व अन्त नाही. जेव्हा ते शरीराचा त्याग करतात तेव्हा आकाशात राहून नंतर गर्भात प्रवेश करतात व जन्म प्राप्त झाल्यावर पृथ्वीवर प्रयत्नशील व क्रियाशील होतात. ॥ ३२ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    That One that creates this universe, the other, individual soul, knows not of. This other that sees this world of existence goes off from the essence, and, enveloped in the mothers womb, covered in the folds of material form within, it is born and enters the world of mortality for ages in birth after birth.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The soul that does all these outer acts does not know her own nature. A wise man knows the real nature of his soul and knows very distinctly that she is separate and hidden from the body. Enveloped within his mother's womb and thereafter born, such a person with a large number of his sons and daughters (progeny ) born lives in this world and ultimately suffers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those souls who do only outer acts, but do not acquire knowledge and devotion, do not know their real nature. Those who are well-versed in knowledge action and devotion are capable to fulfil it. They know their own nature and also God. The souls are eternal and on giving up the body they remain in the space for some time and enter mother's womb. Having taken births, they are engaged in doing various deeds. (A couple having a large number of children for upbringing and educating ultimately suffer because of heavy family responsibilities. Editor)

    Foot Notes

    (ईम् ) क्रियाम् = This activity. ( हिरुक् ) पृथक = Separate. (निॠ तिम्) भूमिम् = Earth.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The soul that does all these outer acts does not know her own nature. A wise man knows the real nature of his soul and knows very distinctly that she is separate and hidden from the body. Enveloped within his mother's womb and thereafter born, such a person with a large number of his sons and daughters (progeny ) born lives in this world and ultimately suffers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those souls who do only outer acts, but do not acquire knowledge and devotion, do not know their real nature. Those who are well-versed in knowledge action and devotion are capable to fulfil it. They know their own nature and also God. The souls are eternal and on giving up the body they remain in the space for some time and enter mother's womb. Having taken births, they are engaged in doing various deeds. (A couple having a large number of children for upbringing and educating ultimately suffer because of heavy family responsibilities. Editor)

    Foot Notes

    (ईम् ) क्रियाम् = This activity. ( हिरुक् ) पृथक = Separate. (निॠ तिम्) भूमिम् = Earth.

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