ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 7
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒ह ब्र॑वीतु॒ य ई॑म॒ङ्ग वेदा॒स्य वा॒मस्य॒ निहि॑तं प॒दं वेः। शी॒र्ष्णः क्षी॒रं दु॑ह्रते॒ गावो॑ अस्य व॒व्रिं वसा॑ना उद॒कं प॒दापु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । ब्र॒वी॒तु॒ । यः । ई॒म् । अ॒ङ्ग । वेद॑ । अ॒स्य । वा॒मस्य॑ । निऽहि॑तम् । प॒दम् । वेरिति॒ वेः । शी॒र्ष्णः । क्षी॒रम् । दु॒ह्र॒ते॒ । गावः॑ । अ॒स्य॒ । व॒व्रिम् । वसा॑नाः । उ॒द॒कम् । प॒दा । अ॒पुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इह ब्रवीतु य ईमङ्ग वेदास्य वामस्य निहितं पदं वेः। शीर्ष्णः क्षीरं दुह्रते गावो अस्य वव्रिं वसाना उदकं पदापु: ॥
स्वर रहित पद पाठइह। ब्रवीतु। यः। ईम्। अङ्ग। वेद। अस्य। वामस्य। निऽहितम्। पदम्। वेरिति वेः। शीर्ष्णः। क्षीरम्। दुह्रते। गावः। अस्य। वव्रिम्। वसानाः। उदकम्। पदा। अपुः ॥ १.१६४.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे अङ्ग योऽस्य वामस्य वेर्निहितं पदं वेद स इहेमुत्तरं ब्रवीतु यथा वसाना गावः क्षीरं दुह्रते वृक्षाः पदोदकमपुस्तथा शीर्ष्णोऽस्य वव्रिं जानीयुः ॥ ७ ॥
पदार्थः
(इह) अस्मिन् प्रश्ने (ब्रवीत्) वदतु (यः) (ईम्) सर्वतः (अङ्ग) (वेद) जानाति (अस्य) (वामस्य) प्रशस्तस्य जगतः (निहितम्) स्थापितम् (पदम्) (वेः) पक्षिणः (शीर्ष्णः) शिरसः (क्षीरम्) दुग्धम् (दुह्रते) दुहन्ति (गावः) धेनवः (अस्य) (वव्रिम्) वर्त्तुमर्हम् (वसानाः) आच्छादिताः (उदकम्) जलम् (पदा) पादेन (अपुः) पिबन्ति ॥ ७ ॥
भावार्थः
यथा पक्षिणोऽन्तरिक्षे भ्रमन्ति तथैव सर्वे लोका अन्तरिक्षे भ्रमन्ति। यथा गावो वत्सेभ्यो दुग्धं दत्वा वर्द्धयन्ति तथा कारणानि कार्याणि वर्द्धयन्ति। यथा वा वृक्षा मूलेन जलं पीत्वा वर्द्धन्ते तथा कारणेन कार्य्यं वर्द्धते ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अङ्ग) प्यारे (यः) जो (अस्य) इस (वामस्य) प्रशंसित (वेः) पक्षी के (निहितम्) धरे हुए (पदम्) पद को (वेद) जानता है, वह (इह) इस प्रश्न में (ईम्) सब ओर से उत्तम (व्रवीतु) कह देवे। जैसे (वसानाः) झूल ओढ़े हुई (गावः) गौएँ (क्षीरम्) दूध को (दुह्रते) पूरा करती अर्थात् दुहाती हैं वा वृक्ष (पदा) पग से (उदकम्) जल को (अपुः) पीते हैं वैसे (शीर्ष्णः, अस्य) इसके शिर के (वव्रिम्) स्वीकार करने योग्य सब व्यवहार को जानें ॥ ७ ॥
भावार्थ
जैसे पक्षी अन्तरिक्ष में भ्रमते हैं, वैसे ही सब लोक अन्तरिक्ष में भ्रमते हैं। जैसे गौएँ बछड़ों के लिये दूध देकर बढ़ाती हैं, वैसे कारण कार्यों को बढ़ाते हैं वा जैसे वृक्ष जड़ में जल पीकर बढ़ते हैं, वैसे कारण से कार्य बढ़ता है ॥ ७ ॥
विषय
प्रवचनकर्ता उपदेष्टा
पदार्थ
१. इह इस मानव जीवन में (ब्रवीतु) = स्पष्ट शब्दों में उपदेश करे। कौन ? (यः) = जो (ईम्) = अब [ईम्=now] अङ्ग = [ well, in deed, true] ठीक-ठीक वेद- जानता है। किसे ? (अस्य) = इस (वामस्य) = सुन्दर-ही सुन्दर (वे:) = [goer] क्रियाशील प्रभु के (निहितं पदम्) = रक्खे हुए चरण को । वे प्रभु (वाम) सुन्दर हैं, क्योंकि (वि) क्रियाशील हैं। सौन्दर्य का क्रियाशीलता से सम्बन्ध है । क्रियाशीलता ही मनुष्य को स्वस्थ बनाकर सौन्दर्य प्रदान करती है। प्रवचनकर्ता को भी क्रियाशीलता द्वारा सौन्दर्य प्राप्त करना है। प्रवचनकर्ता भी वह तभी बन सकेगा जब प्रभु के तीनों चरणों- उत्पत्ति, पालन और संहार को समझेगा। २. इस प्रकार ज्ञान-सम्पन्न होने के कारण ही अस्य = इसके शीर्ण:- सिर की (गावः) = ज्ञानेन्द्रियाँ (क्षीरम्) = ज्ञानरूपी दूध को दुहते जनता के मानस में पूरण करती हैं। उसका प्रवचन जनता के मन व मस्तिष्क को ज्ञान से भर देता है। जैसे क्षीर मधुर होता है वैसे ही उसकी वाणी से निकलनेवाले शब्द मधुर होते हैं । ३. ये प्रवचनकर्त्ता वव्रिम्-रूप, तेजस्विता को (वसानः) = आच्छादित करने के हेतु से [हेतौ शानच्] (पदा) = [पद गतौ] क्रियाशीलता के द्वारा (उदकम्) = [आपो रेतो भूत्वा] वीर्यशक्ति को (अपुः) = अपने अन्दर ही व्याप्त करने का प्रयत्न करते हैं। वीर्य की सुरक्षा से तेजस्विता आती है। प्रवचनकर्ता की यह तेजस्विता श्रोताओं पर छा-सी जाती है और वह उन्हें प्रभावित कर पाता है।
भावार्थ
भावार्थ- ब्रह्मज्ञानी, मधुरभाषी एवं तेजस्वी ही उपदेष्टा हो सकता है।
विषय
ब्रह्मज्ञानी से आत्मविषयक प्रश्न। शिर से क्षीर दोहने वाली गौओं का रहस्य।
भावार्थ
( अंग ) हे विद्वान् पुरुषो आप लोगों में से ( यः ) जो विद्वान् पुरुष भी ( अस्य ) इस ( वामस्य ) सूर्य के समान अति उत्तम ( वेः ) कान्तिमान्, व्यापक, गतिमान्, तेजोमय हंस के समान विवेकवान् आत्मा के ( निहितं ) भीतर छुपे, निगूढ़, ( पदं ) चिन्मय स्वरूप को ( वेद ) भली प्रकार जानता और साक्षात् करता है वह ( इह ) इस आत्मा के सम्बन्ध में ( ब्रवीतु ) हमें उपदेश करे कि जिस प्रकार ( अस्य गावः ) सूर्य की किरणें ( वब्रिं वसानाः ) तेजोमय रूप को धारण करती हुई ( शीर्ष्णः क्षीरं दुह्रते ) शिर अर्थात् ऊपर की ओर से मेघ द्वारा जल वर्षण करती हैं और जिस प्रकार राजा की ( गावःक्षीरं दुह्रते ) गौएं उत्तम दूध देती हैं उसी प्रकार ( अस्य ) इस आत्मा की ( गावः ) गो-रूप इन्द्रियें ( शीष्णः ) शिरो भाग से ( क्षीरं ) क्षरणशील आनन्द रस को ( दुह्रते ) उत्पन्न करती हैं और ( वव्रिं ) वरण करने योग्य दैहिक आवरण या विषय के स्वरूप को ( वसानाः ) धारण करती हुईं ( पदा ) ज्ञान सामर्थ्य से, ( वृक्षः पदा उदकम् इव ) वृक्ष जिस प्रकार चरण भाग से जल पीते हैं उसी प्रकार ( उदकम् ) उत्तम ज्ञान का पान करती हैं।
टिप्पणी
विशेष विवरण और पहेली का स्पष्टीकरण देखो (अथर्व० का० ९।९।५॥)
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः॥ देवता—१-४१ विश्वदेवाः। ४२ वाक् । ४२ आपः। ४३ शकधूमः। ४३ सोमः॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च। ४५ वाक्। ४६, ४७ सूर्यः। ४८ संवत्सरात्मा कालः। ४९ सरस्वती। ५० साध्या:। ५१ सूर्यः पर्जन्यो वा अग्नयो वा। ५२ सरस्वान् सूर्यो वा॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप्। ८, ११, १८, २६,३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप्। २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२, त्रिष्टुप्। १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२, १५, २३ जगती। २९, ३६ निचृज्जगती। २० भुरिक पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः। ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती। ५१ विराड् नुष्टुप्।। द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे पक्षी अंतरिक्षात भ्रमण करतात तसेच सर्व लोक (गोल) अंतरिक्षात भ्रमण करतात. जशा गाई वासरांना दूध देऊन वाढवितात तसे कारण कार्य वाढविते. जसे वृक्ष मूळाद्वारे जल ओढून घेतात व वाढतात तसे कारणामुळे कार्य वाढते.
इंग्लिश (2)
Meaning
Dear friend, here may speak to me he who well knows the power and presence of this glorious bird ever on the wing and omnipresent, which is concealed in mystery. The holy rays of it from above yield showers of milk and water for life, and, covered in brilliant beauty they drink up the waters as they come and touch the earth with their feet.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
With several similes, a person is called upon to be sensible.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As the learned persons know the truth well about the real nature of this bird-like universe, let them declare it before us. As the well-fed cows give milk and as the birds move about freely in the firmament and as trees drink water through their roots, likewise let wise men tell us about the most acceptable or charming nature of this Supreme Being who is like the Head of the Universe.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the birds fly in the sky, so all worlds move in the firmament. As the cows make their calves grow more and more with their milk, similarly it causes multiply effects. As the trees grow by drinking water through their roots, in the same manner, the effect is multiplied by the cause.
Foot Notes
( वामस्य:) प्रशस्तस्य जगतः = Of this praiseworthy world. ( वक्रिम ) वर्तुम् अहंम् - Acceptable or charming ( वसानाः ) आच्छादिता: = Covered or well-fed.
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