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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 164 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 40
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सू॒य॒व॒साद्भग॑वती॒ हि भू॒या अथो॑ व॒यं भग॑वन्तः स्याम। अ॒द्धि तृण॑मघ्न्ये विश्व॒दानीं॒ पिब॑ शु॒द्धमु॑द॒कमा॒चर॑न्ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒य॒व॒स॒ऽअत् । भग॑ऽवती । हि । भू॒याः । अथो॒ इति॑ । व॒यम् । भग॑ऽवन्तः । स्या॒म॒ । अ॒द्धि । तृण॑म् । अ॒घ्न्ये॒ । वि॒श्व॒ऽदानी॑म् । पिब॑ । शु॒द्धम् । उ॒द॒कम् । आ॒ऽचर॑न्ती ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूयवसाद्भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम। अद्धि तृणमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुयवसऽअत्। भगऽवती। हि। भूयाः। अथो इति। वयम्। भगऽवन्तः। स्याम। अद्धि। तृणम्। अघ्न्ये। विश्वऽदानीम्। पिब। शुद्धम्। उदकम्। आऽचरन्ती ॥ १.१६४.४०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 40
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विदुषीविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अध्न्ये त्वं सुयवासाद्भगवती भूया हि यतो वयं भगवन्तस्स्याम। यथा गौस्तृणं जग्ध्वा शुद्धमुदकं पीत्वा दुग्धं दत्वा वत्सादीन् सुखयति तथा विश्वदानीमाचरन्ती सत्यथो सुखमद्धि विद्यारसं पिब ॥ ४० ॥

    पदार्थः

    (सुयवसात्) या शोभनानि यवसानि सुखानि अत्ति सा (भगवती) बह्वैश्वर्ययुक्ता विदुषी (हि) किल (भूयाः) (अथो) (वयम्) (भगवन्तः) बह्वैश्वर्ययुक्ताः (स्याम) भवेम (अद्धि) अशान (तृणम्) (अघ्न्ये) गौरिव वर्त्तमाने (विश्वदानीम्) विश्वं समग्रं दानं यस्यास्ताम् (पिब) (शुद्धम्) पवित्रम् (उदकम्) जलम् (आचरन्ती) सत्याचरणं कुर्वती। अयं निरुक्ते व्याख्यातः। निरु० ११। ४४ ॥ ४० ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यावन्मातरो वेदविदो न स्युस्तावत्तदपत्यान्यपि विद्यावन्ति न भवन्ति। या विदुष्यो भूत्वा स्वयंवरं विवाहं कृत्वा सन्तानानुत्पाद्य सुशिक्ष्य विदुषः कुर्वन्ति ता गाव इव सर्वे जगदाह्लादयन्ति ॥ ४० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विदुषी स्त्री के विषय में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अध्न्ये) न हनने योग्य गौ के समान वर्त्तमान विदुषी ! तू (सुयवसात्) सुन्दर सुखों को भोगनेवाली (भगवती) बहुत ऐश्वर्यवती (भूयाः) हो कि (हि) जिस कारण (वयम्) हम लोग (भगवन्तः) बहुत ऐश्वर्ययुक्त (स्याम) हों। जैसे गौ (तृणम्) तृण को खा (शुद्धम्) शुद्ध (उदकम्) जल को पी और दूध देकर बछड़े आदि को सुखी करती है वैसे (विश्वदानीम्) समस्त जिसमें दान उस क्रिया का (आचरन्ती) सत्य आचरण करती हुई (अथो) इसके अनन्तर सुख को (अद्धि) भोग और विद्यारस को (पिब) पी ॥ ४० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जबतक माताजन वेदवित् न हों तबतक उनमें सन्तान भी विद्यावान् नहीं होते हैं। जो विदुषी हो स्वयंवर विवाह कर सन्तानों को उत्पन्न कर उनको अच्छी शिक्षा देकर उन्हें विद्वान् करती हैं, वे गौओं के समान समस्त जगत् को आनन्दित करती हैं ॥ ४० ॥

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    विषय

    हमें भगवान् बनानेवाली 'गौ'

    पदार्थ

    १. मिलकर उठने-बैठने के लिए सात्त्विक बुद्धि आवश्यक है। सात्त्विक बुद्धि के लिए गोदुग्ध का सेवन आवश्यक है, अतः गौ का उल्लेख इस मन्त्र में हुआ है - (सूयवसात्) = [सु+यवस्+आत्] उत्तम तृणादि खानेवाली (अघ्न्ये) = हे अहन्तव्य गौ ! तू हि निश्चय से (भगवती) = ऐश्वर्यवाली (भूया:) = हो (अथ उ) = और (वयम्) = हम भी (भगवन्तः) = उत्तम ऐश्वर्यवाले (स्याम) = हों । २. तू (विश्वदानीम्) = सदा (तृणम्) = तृण अद्धि-खा तथा (आचरन्ति) = चारों ओर भिन्न-भिन्न पशुचर स्थानों में चरती हुई (शुद्धम्) = शुद्ध (उदकम्) = पानी (पिब) = पी। ३. गोदुग्ध हमारे लिए अधिक-से-अधिक उपयोगी हो इसके लिए आवश्यक है कि [क] गौ को जो चरी दी जाए वह उत्तम हो, [ख] वह शुद्ध जल पिए, [ग] वह एक जगह बँधी न रहे, चरने के लिए गोचर भूमियों में जाए।

    भावार्थ

    भावार्थ - उत्तम तृण खानेवाली और उत्तम जल पीनेवाली गौ के दुग्ध का सेवन हमें भगवान्– वीर्य, ज्ञान और शोभा सम्पन्न बनाएगा।

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    विषय

    गौ के समान परमेश्वरी शक्ति और विदुषी स्त्री का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (अघ्नये) अविनाशशीले ! (सुयवसात्) जिस प्रकार ग़ौ उत्तम तृण आदि खाने हारी होकर (शुद्धम् उदकम्) शुद्ध जल पीती और ( तृणम् ) तृण खाती और ( विश्वदानीं आचरन्ती भगवती भवति ) समस्त संसार को दूध आदि पौष्टिक पदार्थ और कृषि आदि द्वारा अन्न प्रदान कर ऐश्वर्यसुख से पूर्ण होती है उसी प्रकार हे (अघ्न्ये) कभी नाश न करने वा न होने योग्य ! अविनाशिनी ! परमेश्वरी शक्ते ! तू (सुयवसात्) समस्त उत्तम ‘यवस’ अर्थात् प्राप्त होने योग्य ऐश्वर्य सुखों का स्वयं प्राप्त करने और अन्यों को प्राप्त कराने वाली है । तू सदा ( हि ) निश्चय से ( भगवती ) सेवने योग्य ऐश्वर्यो की स्वामिनी ( भूयाः ) बनी रह । ( अथो ) और ( वयं ) हम ( भगवन्तः स्याम ) ऐश्वर्यवान् बनें । (तृणम् अद्धि) गौ जिस प्रकार तृण खाती है उसी प्रकार छेदन करने योग्य तुच्छ देह बन्धन एवं तुच्छ सांसारिक दुखों को खाजा, नष्ट कर और जिस प्रकार ( विश्वदानीं ) गौ सदा (आचरन्ती ) सर्वन्न विचरण करती हुई ( शुद्धम् उदकम् ) शुद्ध जल पान करती है उसी प्रकार यह परमेश्वरी शक्ति ( विश्वदानीं आ चरन्ती ) सर्वदा, सर्वत्र व्यापती हुई अथवा सबको सब प्रकार के सुखैश्वर्य प्रदान करती हुई ( शुद्धम् उदकम् ) विशुद्ध ज्ञान रस को पान करती या पालन करती या अन्यों को पान कराती है । ( २ ) इसी प्रकार विदुषी स्त्री भी आदरणीय होने से ‘अघ्न्या’ है वह भी पीड़ित करने योग्य नहीं है, वह उत्तम ‘यवस’ अन्य और भोग्य पदार्थों का आहार करे । ऐश्वर्य वाली हो, उसके द्वारा उसके पति, भ्राता आदि भी सुख ऐश्वर्य के भागी हों । वह तृण अर्थात् रोग हारी वानस्पतिक पदार्थ अन्नादि खावे और शुद्ध जल का पान करे और स्वयं उत्तम सुख भोगे और ज्ञान रस का पान करे, करावे। सब को दान आदि दे । अन्य पक्षों का स्पष्टी करण देखो अथर्व का० ७ । ७३ । ११ ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जोपर्यंत माता वेद जाणत नाहीत तोपर्यंत त्यांची संतती ही विद्यायुक्त होत नाही. ज्या स्त्रिया विदूषी बनून स्वयंवर विवाह करून संतती उत्पन्न करतात व त्यांना सुशिक्षण देऊन विद्वान बनवितात त्या गाईप्रमाणे संपूर्ण जगाला आनंदित करतात. ॥ ४० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Adorable lady of knowledge and wisdom, be great and illustrious with holy food for mind and spirit, and then, we pray, we too may have the honour and prosperity of knowledge and well-being. Holy and inviolable as the mother cow, living on pure food and drinking pure water, and conducting yourself with kindness and grace, bless us with the generous gift of universal knowledge and joy of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Something about a learned lady.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned lady ! blessed with he virtues like a cow, you be happy and full of prosperity of all kinds. Let us also be owner of wealth of all kinds. As a cow eats good grass and drinks pure water and gives happiness to her calves and mankind by giving milk, likewise, you, enjoy happiness and drink the juice of knowledge, being a liberal donor.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    So long as the mothers have no knowledge of the Vedas, their children also generally cannot become scholars. Those women who acquire knowledge, marry according to the Svayamvara (self-choice) rites beget noble offspring. That makes them highly learned by giving good education and make the world delighted like the cows.

    Foot Notes

    (सुयवसात् ) या शोभनानि यवसानि सुखानि अत्ति सा = Enjoyer of happiness like a cow that eats good grass. (अघ्न्ये) गौ: इव वर्तमाने = Learned lady behaving like an inviolable cow.

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