ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 35
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒यं वेदि॒: परो॒ अन्त॑: पृथि॒व्या अ॒यं य॒ज्ञो भुव॑नस्य॒ नाभि॑:। अ॒यं सोमो॒ वृष्णो॒ अश्व॑स्य॒ रेतो॑ ब्र॒ह्मायं वा॒चः प॑र॒मं व्यो॑म ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । वेदिः॑ । परः॑ । अन्तः॑ । पृ॒थि॒व्याः । अ॒यम् । य॒ज्ञः । भुव॑नस्य । नाभिः॑ । अ॒यम् । सोमः॑ । वृष्णः॑ । अश्व॑स्य । रेतः॑ । ब्र॒ह्मा । अ॒यम् । वा॒चः । प॒र॒मम् । विऽओ॑म ॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं वेदि: परो अन्त: पृथिव्या अयं यज्ञो भुवनस्य नाभि:। अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेतो ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम ॥
स्वर रहित पद पाठइयम्। वेदिः। परः। अन्तः। पृथिव्याः। अयम्। यज्ञः। भुवनस्य। नाभिः। अयम्। सोमः। वृष्णः। अश्वस्य। रेतः। ब्रह्मा। अयम्। वाचः। परमम्। विऽओम ॥ १.१६४.३५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 35
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यूयं पृथिव्याः परोऽन्तरियं वेदिरयं यज्ञो भुवनस्य नाभिरयं सोमो वृष्णोऽश्वस्य रेत इवायं ब्रह्मा वाचः परमं व्योमास्ति तानि यथावद्वित्त ॥ ३५ ॥
पदार्थः
(इयम्) (वेदिः) विदन्ति शब्दान् यस्यां साऽऽकाशवायुस्वरूपा (परः) परः (अन्तः) भागः (पृथिव्याः) भूमेः (अयम्) (यज्ञः) यष्टुं संगन्तुमर्हः सूर्यः (भुवनस्य) भूगोलसमूहस्य (नाभिः) आकर्षणेन बन्धनम् (अयम्) (सोमः) सोमलतादिरसश्चन्द्रमा वा (वृष्णः) वर्षकस्य (अश्वस्य) (रेतः) वीर्यमिव (ब्रह्मा) चतुर्वेदविज्जनश्चतुर्णां वेदानां प्रकाशकः परमात्मा वा (अयम्) (वाचः) वाण्याः (परमम्) (व्योम) अवकाशः ॥ ३५ ॥
भावार्थः
पूर्वमन्त्रस्थानां प्रश्नानामिह क्रमेणोत्तराणि वेदितव्यानि पृथिव्या अभित आकाशवायुरेकैकस्य ब्रह्माण्डस्य मध्ये सूर्यो वीर्योत्पादिका ओषधयो पृथिव्या मध्ये विद्यावधिः सर्ववेदाध्ययनं परमात्मविज्ञानं वास्तीति निश्चेतव्यम् ॥ ३५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम (पृथिव्याः) भूमि का (परः) पर (अन्तः) भाग (इयम्) यह (वेदिः) जिसमें शब्दों को जानें वह आकाश और वायु रूप वेदि, (अयम्) यह (यज्ञः) यज्ञ (सूर्य) (भुवनस्य) भूगोल समूह का (नाभिः) आकर्षण से बन्धन, (अयम्) यह (सोमः) सोमलतादि रस वा चन्द्रमा (वृष्णः) वर्षा करने और (अश्वस्य) शीघ्रगामी सूर्य के (रेतः) वीर्य के समान, और (अयम्) यह (ब्रह्मा) चारों वेदों का प्रकाश करनेवाला विद्वान् वा परमात्मा (वाचः) वाणी का (परमम्) उत्तम (व्योम) अवकाश है उनको यथावत् जानो ॥ ३५ ॥
भावार्थ
पिछले मन्त्र में कहे हुए प्रश्नों के यहाँ क्रम से उत्तर जानने चाहिये-पृथिवी के चारों ओर आकाशयुक्त वायु, एक एक ब्रह्माण्ड के बीच सूर्य और बल उत्पन्न करनेवाली ओषधियाँ, तथा पृथिवी के बीच विद्या की अवधि समस्त वेदों का पढ़ना और परमात्मा का उत्तम ज्ञान है, यह निश्चय करना चाहिये ॥ ३५ ॥
विषय
चार उत्तर
पदार्थ
१. गतमन्त्र के पहले प्रश्न का उत्तर है- (इयं वेदिः) = यह वेदि ही-जिस वेदि [कर्मस्थली] पर बैठे हुए हम विचार कर रहे हैं, इस (पृथिव्या) = भूमि का (परः अन्तः) = अन्तिम सिरा है। प्रत्येक वर्तुल वस्तु जहाँ से आरम्भ होती है, वहाँ ही उसकी समाप्ति भी होती है। इस प्रकार बड़े सरल शब्दों में पृथिवी की वर्तुलता का संकेत हुआ है, परन्तु वास्तविक उत्तर तो यह है कि यह वेदि ही इस पृथिवी का अन्तिम उद्देश्य है। हमें इस भूमि को यज्ञवेदि बनाने का प्रयत्न करना चाहिए, यही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। वेद में पृथिवी को 'देवयजनि' शब्द से सम्बोधित किया ही गया है। यह देवों के यज्ञ करने का स्थान है। क्या हम देव न बनेंगे ? २. दूसरे प्रश्न के उत्तर में कहते हैं- (अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः) = यह यज्ञ सारे ब्रह्माण्ड की नाभि है। यज्ञ के कारण ही ब्रह्माण्ड नष्ट-भ्रष्ट नहीं होता। माता में यज्ञ की भावना न होती तो किसी सन्तान का पालन न होता। लोगों में यज्ञ की वृत्ति न होती तो कोई भी सामाजिक संस्था न चलती। कोई भी राष्ट्र न पनपता। नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम । ३. तीसरे प्रश्न का उत्तर है- (अयं सोमः वृष्णः अश्वस्य रेतः) = यह सोम [Semen] वीर्य ही तेजस्वी, अनथक पुरुष की शक्ति है। यही वस्तुतः उसे तेजस्वी व अनथक बना रही है। इसके न रहने पर निस्तेज हो पुरुष थक जाता है। मनुष्य को चाहिए कि इस पृथिवी को यज्ञवेदि समझे, इसे भोगस्थान न बना दे और भोगों का शिकार बनकर कहीं अपनी शक्ति को समाप्त न कर ले । ४. चौथे प्रश्न का उत्तर इस रूप में है - (ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम) = यह ब्रह्म ही वाणी का परम आकाश है। शब्द आकाश का गुण है, परन्तु आकाश के आकाशत्व का कारण भी परमेश्वर है। प्रभु आकाश का भी आकाश है- परम आकाश है। हम सबका धारण प्रभु से होता है। इस प्रकार सोचनेवाला व्यक्ति बद्धावस्था से ऊपर उठकर मुक्तावस्था में पहुँचता है।
भावार्थ
भावार्थ – आध्यात्मिक प्रश्नों के उठाने से प्रभु का ज्ञान होता है और मनुष्य बद्धावस्था से ऊपर उठने का प्रयत्न करता है ।
विषय
पृथिवी के परम अन्त भुवन की नाभि, महान् आत्मा के विश्वोत्पादक सामर्थ्य और परमाश्रय विषयक प्रश्न और उत्तर ।
भावार्थ
( इयं वेदिः ) यह वेदि ( पृथिव्याः परः अन्तः) पृथिवी का परला छोर है। (अयं यज्ञः) यह यज्ञ, परमोपास्य परमेश्वर ही ( भुवनस्य नाभिः) समस्त संसार का आश्रय है। (अयं सोमः) यह सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक सूर्य रूपमय ओषधि रस अर्थात् ताप धारक पुंज ( वृष्णः ) सर्व निषेचक व्यापक परमेश्वर का परम वीर्य रूप तेज है । ( अयं ब्रह्मा ) यह महान् ज्ञानवान् प्रभु ही ( वाचः परमं व्योम ) वेद वाणी का परम रक्षा स्थान है । यज्ञ परक अर्थ स्पष्ट है। ज्ञानवान् सर्व वेत्ता और सब पदार्थों का लाभ कराने वाला परमेश्वर ही वेदि है । वही मही प्रकृति रूप पृथिवी का परम सर्वोत्कृष्ट पालक और पूरक ‘अन्त’ अर्थात् उसमें व्यापक चेतन है । अथर्व० ९ । १० । १४ ॥ आधिभौतिक पक्ष में—वेदि पृथिवी है, यज्ञ सर्वाश्रय है, सोम अन्नादि ओषधिवर्ग, उस सूर्य का सार रूप वीर्य है । ब्रह्मा बुद्धि, वाणी का आश्रय है । इति विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
मागच्या मंत्रात विचारलेल्या प्रश्नांची उत्तरे येथे क्रमाने जाणली पाहिजेत. पृथ्वीच्या चारही बाजूंनी आकाशयुक्त वायू, एकेका ब्रह्मांडात सूर्य व बल उत्पन्न करणारी औषधी तसेच पृथ्वीवर विद्येची सीमा संपूर्ण वेदाचे अध्ययन व परमेश्वराचे उत्तम ज्ञान आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥ ३५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This vedi, creativity and productivity of the earth, is the ultimate end of the earth. This yajna, meeting of solar vitality and earthly productivity, is the centre- hold of life in the world. The vitality of the sun and the shower of soma is the life seed of the generative energy of the creator who is generous and infinite. And Brahma, immanent consciousness of the Lord is the ultimate home of the Word from where it incarnates in the world as Veda.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The answers to the already four solicited questions are here.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, you should know that this sky and the air contained in it help us in verifying the sound. It is the last boundary of the earth. This sun which is so beneficial and desirable is the navel or attractive (gravitating) power of the universe. This juice of the Some (moon plant) and other plants of the moon are like the fecundating power of a virile horse or person. Brahma, the knower of all the Vedas or God-the Revealer of the four Vedas is the Supreme Heaven of the holy speech.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
These are the answers to the above four questions. There is the sky or the air all around the earth. There is the sun in the middle of every solar system. There are herbs on earth which increase vitality, The supreme end of knowledge is the knowledge of God and the study of all Vedas.
Foot Notes
(वेदिः) विदन्ति शब्दान् यस्यां साऽऽकाशवायुस्वरूपा = The sky or the air which enables us know sounds. ( यज्ञ: ) यष्टुं संगन्तुम् अर्ह: सूर्य = The sun, which is highly beneficial. (सोम:) सोमलतादि सरसश्चन्द्रमा वा = The juice of Soma and other herbs or the moon. (ब्रह्मा) चतुर्वेदविज्जनश्चतुर्णां वेदानां प्रकाशक: परमात्मा वा = A scholar who is the knower of all the Vedas or God who is the Revealer of the Vedas.
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