ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 36
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
स॒प्तार्ध॑ग॒र्भा भुव॑नस्य॒ रेतो॒ विष्णो॑स्तिष्ठन्ति प्र॒दिशा॒ विध॑र्मणि। ते धी॒तिभि॒र्मन॑सा॒ ते वि॑प॒श्चित॑: परि॒भुव॒: परि॑ भवन्ति वि॒श्वत॑: ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । अ॒र्ध॒ऽग॒र्भाः । भुव॑नस्य । रेतः॑ । विष्णोः॑ । ति॒ष्ठ॒न्ति॒ । प्र॒ऽदिशा॑ । विऽध॑र्मणि । ते । धी॒तिऽभिः॑ । मन॑सा । ते । वि॒पः॒ऽचितः॑ । प॒रि॒ऽभुवः॑ । परि॑ । भ॒व॒न्ति॒ । वि॒श्वतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्तार्धगर्भा भुवनस्य रेतो विष्णोस्तिष्ठन्ति प्रदिशा विधर्मणि। ते धीतिभिर्मनसा ते विपश्चित: परिभुव: परि भवन्ति विश्वत: ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त। अर्धऽगर्भाः। भुवनस्य। रेतः। विष्णोः। तिष्ठन्ति। प्रऽदिशा। विऽधर्मणि। ते। धीतिऽभिः। मनसा। ते। विपःऽचितः। परिऽभुवः। परि। भवन्ति। विश्वतः ॥ १.१६४.३६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 36
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
ये सप्तार्द्धगर्भा भुवनस्य रेतो निर्माय विष्णोः प्रदिशा विधर्मणि तिष्ठन्ति। ते धीतिभिस्ते मनसा च परिभुवो विपश्चितो विश्वतः परिभवन्ति ॥ ३६ ॥
पदार्थः
(सप्त) (अर्द्धगर्भाः) अपूर्णगर्भा महत्तत्त्वाहङ्कारपञ्चभूतसूक्ष्मावयवाः (भुवनस्य) संसारस्य (रेतः) वीर्यम् (विष्णोः) व्यापकस्य परमेश्वरस्य (तिष्ठन्ति) (प्रदिशा) आज्ञया (विधर्मणि) विरुद्धधर्मण्याकाशे (ते) (धीतिभिः) कर्मभिः (मनसा) (ते) (विपश्चितः) विदुषः (परिभुवः) परितस्सर्वतो विद्यासु भवन्ति (परि) (भवन्ति) (विश्वतः) सर्वतः ॥ ३६ ॥
भावार्थः
यानि महत्तत्त्वाऽहङ्कारौ पञ्चसूक्ष्माणि भूतानि च सप्त सन्ति तानि पञ्चीकृतानि सर्वस्य स्थूलस्य जगतः कारणानि सन्ति चेतनविरुद्धधर्मे जडेऽन्तरिक्षे सर्वाणि वसन्ति। ये यथावत्सृष्टिक्रमं जानन्ति ते विद्वांसः सर्वतः पूज्यन्ते ये चैतं न जानन्ति ते सर्वतस्तिरस्कृता भवन्ति ॥ ३६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (सप्त) सात (अर्द्धगर्भाः) आधे गर्भरूप अर्थात् पञ्चीकरण को प्राप्त महत्तत्त्व, अहङ्कार, पृथिवी, अप्, तेज, वायु, आकाश के सूक्ष्म अवयवरूप शरीरधारी (भुवनस्य) संसार के (रेतः) बीज को उत्पन्न कर (विष्णोः) व्यापक परमात्मा की (प्रदिशा) आज्ञा से अर्थात् उसकी आज्ञारूप वेदोक्त व्यवस्था से (विधर्मणि) चेतन से विरुद्ध धर्मवाले आकाश में (तिष्ठन्ति) स्थित होते हैं (ते) वे (धीतिभिः) कर्म और (ते) वे (मनसा) विचार के साथ (परिभुवः) सब ओर से विद्या में कुशल (विपश्चितः) विद्वान् जन (विश्वतः) सब ओर से (परि, भवन्ति) तिरस्कृत करते अर्थात् उनके यथार्थ भाव के जानने को विद्वान् जन भी कष्ट पाते हैं ॥ ३६ ॥
भावार्थ
जो महत्तत्त्व, अहङ्कार, पञ्चसूक्ष्मभूत सात पदार्थ हैं वे पञ्चीकरण को प्राप्त हुए सब स्थूल जगत् के कारण हैं। चेतन से विरुद्ध धर्म्मवाले जड़रूप अन्तरिक्ष में सब वसते हैं। जो यथावत् सृष्टिक्रम को जानते हैं वे विद्वान् जन सब ओर से सत्कार को प्राप्त होते हैं और जो इसको नहीं जानते वे सब ओर से तिरस्कार को प्राप्त होते हैं ॥ ३६ ॥
विषय
सात अर्धगर्भ और उनका अधिष्ठाता विष्णु
पदार्थ
१. (सप्तार्धगर्भा) = महत्तत्व, अहंकार और पञ्च तन्मात्राएँ — ये सात ही (भुवनस्य) = सारे ब्रह्माण्ड की (रेतः) = शक्तियाँ हैं व [रीङ् गतौ] उत्पत्ति के स्थान हैं । २. ये सात नाना प्रकार से संसार का (विधर्मणि) = धारण करने में तिष्ठन्ति लगे हैं, परन्तु (विष्णोः प्रदिशा) = उस परमेश्वर के शासन से ही ये सब कार्य चल रहे हैं। ३. जो (विपश्चित:) = विशेषरूप से देखकर चिन्तन करनेवाले होते हैं (ते) = वे (धीतिभिः) = ध्यानों के द्वारा और (ते) = वे (मनसा) = मनन के द्वारा (परिभुवः) = पदार्थों का चारों ओर से [परि] विचार करनेवाले [भुव्-अवकल्कन, चिन्तन], सब दृष्टियों से सोचनेवाले (विश्वतः) = सब ओर से परि भवन्ति इन्द्रियों का परिभव करते हैं। जिधर जिधर से भी मन बाहर जाने का यत्न करता है, उधर-उधर से ही उसे अपने वश में करके अन्दर स्थिर करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - केवल सप्त- अर्ध गर्भों की शक्ति को देखनेवाले, परमेश्वर को भूलकर, भोगवाद में फँस जाते हैं। ज्ञान के अधिष्ठाता विष्णु के देखने पर इन्द्रिय संयम द्वारा भोगवाद से ऊपर उठकर मोक्ष की ओर चलते हैं।
विषय
सूर्यवत् प्रभु का शासन ।
भावार्थ
ज्ञान, या सर्पण करने या व्यापने वाले किरण (अर्धगर्भाः) समृद्धतम जलांश को अपने भीतर ग्रहण करते हुए ( भुवनस्य ) प्राणि मात्र को उत्पन्न करने में समर्थ ( रेतः ) जल को ग्रहण करके ( विष्णोः ) महान् सामर्थ्य वाले सूर्य के ( प्रदिशा ) उत्तम शासन से ही (विधर्मणि) विशेष रूप से धारण करने वाले अन्तरिक्ष में ( तिष्ठन्ति ) स्थित रहते हैं । ( ते ) वे किरण ही ( धीतिभिः ) अपने धारण पोषण या जलवर्षण आदि क्रियाओं से और ( मनसा ) स्तम्भन बल से ( विपश्चितः ) जल को सञ्चित करने वाले अर्थात् जल से समृद्ध होकर या स्वयं (विपश्चितः धीतिभिः मनसा) शक्तिशाली सूर्य की क्रियाओं और स्तम्भन बल से (परिभुवः) सर्वत्र व्यापकर ( विश्वतः परिभवन्ति ) सब और पहुंच जाते हैं । (२) परमेश्वर पक्ष में—( अर्धगर्भाः ) अपने से अधिक शक्तिमान् परमेश्वर के बल ऐश्वर्य को भीतर धारण करने वाले ( सप्त ) सातों महत्, अहंकार और पञ्च सूक्ष्म भूत ( विधर्मणि ) विरुद्धधर्मवान् आकाश में भी ( विष्णोः प्रदिशा तिष्ठन्ति ) परमेश्वर के शासन से ही विराजते हैं । ( ते ते विपश्चितः ) वे, वे नाना विद्वान् जन अथवा (विपश्चितः) परम ज्ञानवान् परमेश्वर के ( धीतिभिः ) ध्यान धारणा, कर्मों और ( मनसा ) ज्ञान बल से ( परिभुवः ) सब विद्याओं को जानकर ( विश्वतः परिभवन्ति ) सब पदार्थों को जान लेते हैं । अथवा वे ही सातों ( धीतिभिः ) ईश्वर की धारण शक्तियां और ( मनसा ) ज्ञान सामर्थ्य से ( विपश्चितः ) विद्वानों के समान क्रिया और ज्ञान से युक्त होकर (परिभुवः) सर्वत्र विकृत होकर, सर्वोत्पादक हो ( सर्वत्र परि भवन्ति ) नाना उत्पन्न पदार्थों के रूप में प्रकट हो रहे हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे महत्तत्त्व, अहंकार, पंचसूक्ष्मभूत सात पदार्थ आहेत. त्यांचे पंचीकरण होऊन ते सर्व स्थूल जगाचे कारण आहेत. चेतनविरुद्ध धर्माच्या जडरूपी अंतरिक्षात त्यांचा वास असतो. जे या यथायोग्य सृष्टिक्रमाला जाणतात त्या विद्वान लोकांचा सर्वत्र सत्कार होतो व जे त्याला जाणत नाहीत ते सर्वत्र तिरस्कृत होतात. ॥ ३६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Seven evolutes of Prakrti, i.e., five subtle elements, mind and senses (which evolve from Ahankara), and the Mahat-tattva, represent half of the divine process of creation (the other half being the creative seed or thought-sankalpa of Parameshthi Prajapati); they are half the womb of the universe the other half is the divine will. By the will of Vishnu they abide in Akasha, eternal space-and-time continuum with their distinct properties and power and comprehend and rule the entire worlds in existence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
To know the structure and order of creation is essential for an enlightened man.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The Mahat tatva (the great principle) Ahankara (Ego) and five Bhootas (elements) in subtle form constitute a set of seven materials. These are of imperfect womb-so to speak for the cause, because they are not quite distinct or perceptible sustaining the fecundating element of the world. In fact, they remain in the inanimate sky and abide by the directions of the Omniscient God. By their actions and by their power, the learned wise persons move around the world in order to make attempts to understand the real nature of objects.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The Mahat tatva, Ahankara and five subtle elements are the cause of all the gross universe. They remain in inanimate space. Those learned persons who know the order and composition of the creation are honored everywhere and those who do not know it, are dishonored.
Foot Notes
(अर्द्धगर्भा:) अपूर्णगर्भा महत्तत्वाहङ्कारपञ्चभूतसूक्ष्मावयवाः = Mahat tatva, Ahankara and five subtle elements. (धितिमिः) कर्ममि:=By actions. धीतिभिः कर्मभिः (NKT 2.7.24 ) ( प्रदिशा) आज्ञा: = By commandment or direction.
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