ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 27
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
हि॒ङ्कृ॒ण्व॒ती व॑सु॒पत्नी॒ वसू॑नां व॒त्समि॒च्छन्ती॒ मन॑सा॒भ्यागा॑त्। दु॒हाम॒श्विभ्यां॒ पयो॑ अ॒घ्न्येयं सा व॑र्धतां मह॒ते सौभ॑गाय ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒ङ्ऽकृ॒ण्व॒ती । व॒सु॒ऽपत्नी॒ । वसू॑नाम् । व॒त्सम् । इ॒च्छन्ती॑ । मन॑सा । अ॒भि । आ । अ॒गा॒त् । दु॒हाम् । अ॒श्विऽभ्या॑म् । पयः॑ । अ॒घ्न्या । इ॒यम् । सा । व॒र्ध॒ता॒म् । म॒ह॒ते । सौभ॑गाय ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिङ्कृण्वती वसुपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात्। दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं सा वर्धतां महते सौभगाय ॥
स्वर रहित पद पाठहिङ्ऽकृण्वती। वसुऽपत्नी। वसूनाम्। वत्सम्। इच्छन्ती। मनसा। अभि। आ। अगात्। दुहाम्। अश्विऽभ्याम्। पयः। अघ्न्या। इयम्। सा। वर्धताम्। महते। सौभगाय ॥ १.१६४.२७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 27
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ गोः पृथिव्याश्च विषयमाह ।
अन्वयः
यथा हिङ्कृण्वती मनसा वत्समिच्छन्तीयमघ्न्या गौरभ्यागात्। याऽश्विभ्यां पयो दुहां वर्त्तमाना भूरस्ति सा वसूनां वसुपत्नी महते सौभगाय वर्द्धताम् ॥ २७ ॥
पदार्थः
(हिङ्कृण्वती) हिमिति शब्दयन्ती (वसुपत्नी) वसूनां पालिका (वसूनाम्) अग्न्यादीनाम् (वत्सम्) (इच्छन्ती) (मनसा) (अभि) (आ) (अगात्) अभ्यागच्छति (दुहाम्) (अश्विभ्याम्) सूर्यवायुभ्याम् (पयः) जलं दुग्धं वा (अघ्न्या) हन्तुमयोग्या (इयम्) (सा) (वर्द्धताम्) (महते) (सौभगाय) शोभनानामैश्वर्याणां भावाय ॥ २७ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पृथिवी महदैश्वर्यं वर्धयति तथा गावो महत्सुखं प्रयच्छन्ति तस्मादेताः केनापि कदाचिन्नैव हिंस्याः ॥ २७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब गौ और पृथिवी के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ।
पदार्थ
जैसे (हिङ्कृण्वती) हिंकारती और (मनसा) मन से (वत्सम्) बछड़े को (इच्छन्ती) चाहती हुई (इयम्) यह (अघ्न्या) मारने को न योग्य गौ (अभि, आ, अगात्) सब ओर से आती वा जो (अश्विभ्याम्) सूर्य और वायु से (पयः) जल वा दूध को (दुहाम्) दुहते हुए पदार्थों में वर्त्तमान पृथिवी है (सो) वह (वसूनाम्) अग्नि आदि वसुसञ्ज्ञकों में (वसुपत्नी) वसुओं की पालनवाली (महते) अत्यन्त (सौभगाय) सुन्दर ऐश्वर्य के लिये (वर्द्धताम्) बढ़े, उन्नति को प्राप्त हो ॥ २७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पृथिवी महान् ऐश्वर्य को बढ़ाती है, वैसे गौएँ अत्यन्त सुख देती हैं, इससे ये गौएँ कभी किसीको मारनी न चाहियें ॥ २७ ॥
विषय
वेदज्ञान का साधन व लाभ
पदार्थ
१. यह वेदवाणी [क] (हिंकृण्वती) = हिङ्कार करती हुई [रश्मय एव हिङ्कारः - जै० उ० १।३३।९] हिंकार शब्द रश्मियों-किरणों का वाचक है। यह वेदवाणी ज्ञान- रश्मियों को फैलाकर अज्ञानान्धकार को दूर करती है, [ख] (वसुपत्नी वसूनाम्) = यह [यज्ञों] उत्तम कर्मों की पालिका है। वेदाध्ययन से मनुष्य की उत्तम कर्मों में रुचि उत्पन्न होती है, [ग] (अश्विभ्यां पयः दुहाम्) = [सुशिक्षितौ स्त्रीपुरुषौ अश्विनौ - द०] सुशिक्षित स्त्री पुरुषों के लिए यह वेदवाणी क्रियाशील बनानेवाले ज्ञान- दुग्ध का दोहन करती है, अर्थात् उन्हें अकर्मण्यता से दूर करके क्रियावान् बनाती है, [घ] (इयम् अघ्न्या) = यह 'अघ-घ्नी' [निरु० ११।४३ । ३] है, पापों को नष्ट करनेवाली है। यह शुभ प्रवृत्ति को उत्पन्न करके अशुभ-प्रवृत्ति को समाप्त करनेवाली है, [ङ] (सा) = वह वेदवाणी (महते सौभगाय वर्धताम्) = महान् सौभाग्य के लिए होती है। जिस घर में ब्रह्म-घोष होता है, उस घर में अशुभ समाप्त होकर शुभ-ही- शुभ का विस्तार होता है। २. यह वेदवाणी इतने लाभों को देनेवाली होकर प्रत्येक से पढ़ने योग्य है। इसके ज्ञान का प्रकार यह है कि — [क] (मनसा वत्सम्) = मन से, पूरे ध्यान से उच्चारणवाले को (इच्छन्ती) = चाहती हुई (अभ्यगात्) = यह प्राप्त होती है। वस्तुतः वेदमन्त्रों को समझने के लिए सर्वोत्तम साधन पूर्ण एकाग्रता से इसके मन्त्रों का उच्चारण ही है, (ख) इस वेदवाणी को समझने के लिए दूसरा साधन अघ्न्या शब्द से सूचित हो रहा है। यह अहन्तव्य है, इसके स्वाध्याय में विच्छेद नहीं आना चाहिए।
भावार्थ
भावार्थ - वेदवाणी अज्ञानान्धकार को दूर करती है, उत्तम कर्मों में रुचि उत्पन्न करती है, क्रियाशील बनाती है, अशुभ वृत्तियों को समाप्त करती है और घर को सुन्दर बनाती है । इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए दो साधन हैं - मन से इसके मन्त्रों का उच्चारण और अविच्छिन्नरूप से प्रतिदिन इसका स्वाध्याय ।
विषय
परमेश्वर के माता एवं गौ वत् ज्ञान रसदान, और मातृवत् प्राणि मात्र से प्रेम ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( वत्सम् इच्छन्ती ) अपने बछड़े की प्यारी गौ ( हिंकृण्वती ) अपने वत्स के प्रति प्रेम हिंकार शब्द पूर्वक उस को चूमती हुई ( मनसा अभि आ अगात् ) चित्त से स्नेहपूर्वक गृह में बछड़े के समीप आ जाती है और वह ( वसूनां ) मनुष्यों के ( वसुपत्नी ) अन्न, दुग्ध, घृत आदि सब ऐश्वर्यों और बाल वृद्धादि सबको पालने वाली होती है । (इयं अघ्न्या) वह कभी वध न करने योग्य एवं सदा पालने योग्य होकर (अश्विभ्यां) स्त्री पुरुषों के लिये (पयः दुहाम्) दूध प्रदान करती है और ( सा महते सौभगाय ) वह बड़े भारी सौभाग्य की वृद्धि के लिये ( वर्धतां ) वृद्धि को प्राप्त हो । उसी प्रकार ( वसूनां वसुपत्नी ) समस्त लोकों में वसने वाले जीवों को पालन करने वाली और (मनसा) ज्ञानपूर्वक ( वत्सम् इच्छन्ती ) वसे हुए इस लोक रूप वत्स को प्रेम से चाहती हुई, प्रभु की परमेश्वरी शक्ति ( हिंकृण्वती ) वेद द्वारा ज्ञानोपदेश करती हुई ( अभि आ अगात् ) साक्षात् दिखाई देती है । ( इयं ) वह (अघ्न्या) अविनाशिनी होने से ‘अघ्न्या’ है । वह (अश्विभ्यां) इन्द्र, वायु और आत्मा और मन दोनों को (पयः दुहाम्) पुष्टिप्रद सामर्थ्य प्रदान करती है । उत्तम ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये ( वर्धताम् ) सबसे बढ़कर है और वह हमें बढ़ावे । शेष पक्षों की योजना देखो अथर्व ० ७ । ७३। ८॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी पृथ्वी महान ऐश्वर्य वाढविते तशा गाई अत्यंत सुख देतात त्यासाठी कुणीही कधीही गाईंचा वध करता कामा नये. ॥ २७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Lowing and loving, this mother cow, sustainer of the breath and supports of life, caressing her children with her heart of tenderness, comes to bless us all round. May she, never never to be killed or hurt, distil the milk of life’s energy from the sun and wind and ever grow for the great good fortune and prosperity of life on earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The wealth of cow progeny be increased.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
This inviolable cow comes to her calf loving and seeks it with no diversion. It is the producer and is storehouse of good food like milk, curds, ghee etc. In the similar way, is the earth, the protector of the treasures of the fire and other substances. She takes water from the sun and the air. May that inviolable cow or the earth grow for great and good prosperity. It is she that gives good milk to Ashvins (2)—teachers, preachers and others for the growth of their body and mind. May she prosper to our greater advantage.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the earth takes us to great prosperity, likewise the cows give much happiness. Therefore they should never be killed by any one.
Foot Notes
(वसूनाम्) अग्न्यादिनाम् - Of fire and other substances. (अश्विभ्याम् ) सूर्यवायुभ्याम् = From the sun and the air. Here and in other mantras, the word अघ्न्या is very significant. It wards off ambiguity and denotes that she is never to be slaughtered by anyone at any time. In the Vedic lexicon--Nighantu, the cow has a synonym Aghnya (अघ्न्या) which means it cannot be killed, vide अघ्न्या इति गोनाम् (NKT-11.4.45).
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